बीच बहस में छूट गया वर्ष
हर गुजरते साल के साथ न्यायिक व्यवस्था के सामने चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। इस मामले में 2012 भी इसका अपवाद नहीं...
हर गुजरते साल के साथ न्यायिक व्यवस्था के सामने चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। इस मामले में 2012 भी इसका अपवाद नहीं है। जबकि इसके मुकाबले 2011 में न्यायिक सक्रियता (कुछ लोग इसे न्यायिक अतिसक्रियता बताते रहे हैं) दिखी थी। अनाज सड़ने से लेकर काले धन तक के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने विधायिका व कार्यपालिका को वक्त-वक्त पर दिशा-निर्देश जारी किए। एक माहौल बन गया था कि हमारी न्यायपालिका जन हित के मुद्दों को उठा रही है। इसके अलावा, व्यवस्था में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा जन-आंदोलन उठ खड़ा हुआ था। साल 2012 में यह आंदोलन अपने ही विवादों में बिखर गया। ऐसे में, यह साल न्याय व कानून-व्यवस्था से जुड़े कई मुद्दों को बीच बहस में ही छोड़ जाता है।
इस साल न्यायिक सक्रियता ज्यादा नहीं दिखने की वजह क्या रही? कंपनी मामलों से जुड़े विवादों व टैक्स मसलों पर बेशक न्यायपालिका ने कुछ ठोस फैसले लिए, परंतु अन्य मसलों पर ऐसी स्थिति आई ही नहीं। इसकी एक बड़ी वजह हो सकती है कि साल 2011 के आखिर तक ज्यादातर अहम मुद्दे उछल चुके थे, जैसे 2जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ घोटाला, जमीन अधिग्रहण विवाद, वगैरह। परंतु 2012 में यह माना गया कि पहले ही कई मामलों में सरकार व न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी, इसलिए इस बार दोनों तरफ से अतिरिक्त सावधानी बरती जा रही है।
साल भर इस विषय पर ज्यादा चर्चा होती रही कि हर क्षेत्र के कानूनों में कौन कौन से सुधारों की आवश्यकता है। इनसे जुड़े विधेयकों व मुद्दों पर आम राय बनाने के प्रयास चलते रहे। मसलन, भ्रष्टाचार निरोधक विधेयक, व्हिसिल ब्लोअर प्रोटेक्शन बिल, शिकायत निवारण विधेयक, न्यायिक जवाबदेही विधेयक व ताजातरीन बलात्कार के मामले में सख्त सजा की मांग। लेकिन कानूनों में सुधार से बड़ा सवाल उसे अमल करने को लेकर है। बलात्कार के कितने मामलों में सजा हो पाती है? खैर, इसे छोड़िए, यह बताइए कि बलात्कार के कितने मामलों में एफआईआर दर्ज होती है? अपने यहां अपराध घटाने का सबसे बेहतर व आसान तरीका है कि अपराध को दर्ज ही न करो। अपराध और सजा के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है। हाई-प्रोफाइल मामलों में तो पुलिस-प्रशासन का रवैया देखते बनता है।
फोरेंसिक रिपोर्ट, साइंटिफिक प्रूफ व गवाह तक बदल दिए जाते हैं। जहां तक व्यवस्था में भ्रष्टाचार का प्रश्न है, तो अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने कहा है, ‘गहरे पानी में तैर रही मछली के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह पानी पी रही है या नहीं, इसी तरह से यह जानना असंभव है कि सरकारी नौकर किस मद में पैसा ले रहा है।’ वह नौकरशाही पर ध्यान केंद्रित करते हुए फिर कहते हैं, ‘आकाश में उड़ती चिड़ियों की ऊंचाई व उड़ान के बारे में पता लगाना संभव है, पर सरकारी पदों पर काम कर रहे लोगों के निजी हितों का पता लगाना असंभव है।’ अगर कौटिल्य आज होते, तो नौकरशाही में भ्रष्टाचार की यह स्थिति देखकर घबरा गए होते।
बीते वर्ष में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल बना था, उससे इस साल जरूर रिश्वतखोरी घटी, सरकारी कामकाज में अनियमितता के मामले कम सामने आए, लेकिन खत्म नहीं हुए हैं। वैसे भी यह सब कानून बनने भर से खत्म नहीं होगा, बल्कि उसके ठोस अमल व जन-जागरूकता से समाप्त होगा। तीसरा मुद्दा है सामाजिक बदलाव का। हमें समझना होगा कि न्याय-प्रणाली फैसले देती है, वह समाज नहीं बदलती। समाज तो हमें खुद बदलना होगा। अगर देश में हर आधे घंटे पर यौन हिंसा के कई मामले दर्ज होते हैं, तो इसके लिए हम ही कसूरवार हैं, क्योंकि औरतों के प्रति हमारा नजरिया दिन-ब-दिन बदतर होता जा रहा है। इसी तरह से समाज में भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, तो कहीं-न-कहीं इसके लिए हमारी जीवन-शैली कसूरवार है।
इस पर भी चर्चा जरूरी है कि बाजार इनके लिए कितना उत्तरदायी है। यह वक्त है, जब हम संसाधन की आपूर्ति और मांग के विस्फोटक अंतर को देखें-समझों, अपने आचरण को चेक व क्रॉस-चेक करें और जरूरतों को घटाएं। अगर आप कोई चीज जरूरत से ज्यादा जमा कर रहे हैं, तो इसका एक अर्थ यह भी है कि आप दूसरे के हक को मार रहे हैं। आयोगों की रिपोर्टों के लिए भी यह साल जाना जाता रहेगा। द कमिशन ऑफ इन्क्वॉयरी एक्ट यह सुविधा देता है कि एक राज्य या केंद्र जन महत्व के किसी मसले की जांच कराए। लेकिन हाल के वर्षों में एक संकीर्ण सोच यह पनपी है कि आयोगों का अर्थ होता है, जनता के पॉपुलर मूड को नकारना और मामले की लीपापोती करना।
यह इसलिए कि अधिकतर आयोग या तो साल-दर-साल खिंचते जाते हैं या फिर उनकी रिपोर्ट धूल फांक रही होती हैं। जबकि दक्षिण अफ्रीका और दूसरे देशों में जांच आयोगों के साथ सरकार की प्रतिबद्धता का कानून है। उम्मीद है कि अगले साल कुछ आयोगों के हक में कानून बनेंगे। पांचवां मुद्दा है न्यायिक फैसले में देरी का। पश्चिम में कहा जाता है कि ‘जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड।’ अपने यहां इस तरह की अवधारणा कुछ वर्ष पहले तक नहीं थी, हालांकि अब त्वरित न्याय की मांग तेज हो गई है।
अकेले देश भर के हाईकोर्ट में लाखों मामले लंबित हैं। वक्त ज्यादा गुजरने से दो मुख्य दिक्कतें आती हैं। पहली, फरयादियों का काफी पैसा खर्च हो जाता है, अर्थव्यवस्था के लिए भी यह समस्या है और फिर, गवाह मुकर जाते हैं या खरीद लिए जाते हैं, जिनसे इंसाफ नहीं मिल पाता है। यह अपने आप में एक अपराध है। देश में प्रति दस लाख की आबादी पर अंदाजन, 13.5 न्यायाधीश हैं, जबकि पश्चिम देशों में यह अनुपात डेढ़ सौ का है। इसके अलावा, देश में जितने कोर्ट हैं, उतने जज नहीं हैं। कई सौ जजों के पद रिक्त हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल 1,734 फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन का निर्देश दिया है। वैसे, ऐसे कई एडिशनल कोर्ट काम कर रहे हैं। लेकिन इन्हें स्थायी करने या फिर गठन करने को लेकर सरकार के सामने इंफ्रास्टक्चर व पूंजी की समस्याएं आती हैं, जिनका हल भी इस साल नहीं निकल पाया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)