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अपनी बनाई राह पर चले रवि शंकर

बनारस से पंडितजी ने अपनी जीवन-यात्रा शुरू की और इलाहाबाद के शिवकुटी मंदिर के पास गंगातट पर राग गंगेश्वरी की रचना...

अपनी बनाई राह पर चले रवि शंकर
Sat, 15 Dec 2012 10:11 PM
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‘रवि शंकर नहीं रहे।’ मैंने अपने एक वरिष्ठ सहयोगी से फोन पर कहा। मकसद था सुबह से काम शुरू कर अगले दिन के ‘हिन्दुस्तान’ को समाचार और विचार की दृष्टि से अनूठा बनाना, ताकि पंडितजी को सार्थक श्रद्धांजलि दी जा सके। उन्होंने कुछ आश्चर्य से प्रतिप्रश्न किया, ‘अरे! ..?’ वह इसी नाम के दूसरे प्रतापी पुरुष का नाम ले रहे थे। नहीं, मैंने उन्हें बीच में टोका- मैं पंडित रवि शंकर की बात कर रहा हूं।’ ‘अच्छा!’ उनकी आवाज में झोंप और दुख, दोनों का मिश्रण था।

मेरे सहयोगी बेहद काबिल, संवेदनशील और साहित्य-संगीत प्रेमी हैं, पर हर समय खबरों को जीने की वजह से अक्सर हमारे दिमाग में उन लोगों के नाम उभरते हैं, जो फिलवक्त चर्चा में होते हैं। महीनों से अस्वस्थ चल रहे पंडित रविशंकर इन दिनों खबरों से बाहर थे, पर इसका यह मतलब कतई नहीं कि देश और दुनिया में उनका महत्व कम हो गया था। वह भले ही 92 साल की उम्र में दुनिया से रुखसत हुए हों, पर जिंदगी के शुरुआती दौर में ही उन्होंने इतना कुछ कर लिया था, जो उनकी ख्याति को अजर-अमर और अविनाशी बनाए रखने के लिए काफी है।

तीन दशक पहले पंडितजी कितना मान और नाम कमा चुके थे, इसका एक नमूना पेश करना चाहूंगा। वह इलाहाबाद आए हुए थे। प्रयाग संगीत समिति में कुछ चुनिंदा लोगों के सामने उनकी प्रस्तुति थी। जब वह मंच पर आए, तो हॉल में बैठे लोग उठ खड़े हुए और उनके स्वागत में देर तक तालियां बजती रहीं। रवि शंकर को यूं तो ‘भारत रत्न’, ‘ग्रैमी’ और न जाने कौन-कौन से पुरस्कार मिले, पर लोगों के मन में अपने प्रति श्रद्धा की इतनी गहरी जड़ें जमा लेना आसान नहीं था। उस शाम जो लोग उनके स्वागत में भाव-विभोर हुए जा रहे थे, वे इलाहाबादी थे। इस शहर के लोग आसानी से किसी के इतने मुरीद नहीं बनते। एक उदाहरण देना चाहूंगा।

मैं दस-ग्यारह साल का था। हमारा घर टैगोर टाउन में हुआ करता था। वहां से आनंद भवन कुछ मिनटों में पैदल पहुंचा जा सकता था। इंदिरा गांधी उस समय देश की प्रधानमंत्री हुआ करती थीं। अधिकतर लोग उन्हें प्यार से ‘इलाहाबाद की बेटी’ कहा करते थे। वह जब भी आतीं, मेरी मां हम तीनों भाई-बहनों को लेकर भारद्वाज आश्रम के सामने स्थित टीले पर जमा भीड़ का हिस्सा बन जातीं। हम श्रीमती गांधी की एक झलक देखने के लिए बेकरार रहते। वह कार में हाथ जोड़े हुए लोगों का अभिवादन करती गुजरतीं, पर माहौल खुशनुमा नहीं होता। हर बार कुछ लोग काले झंडे लेकर प्रकट हो जाते। ‘मुर्दाबाद’, ‘वापस जाओ’ के नारे श्रद्धा और अपनेपन पर भारी पड़ जाते। बाद में बहैसियत पत्रकार उस शहर में काम करते हुए मैंने कई बुजुर्गो से पूछा कि नेहरू-गांधी परिवार का मौरुसी शहर होने के बावजूद इलाहाबाद की इतनी दुर्दशा क्यों है? लगभग सभी का जवाब था कि जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के लिए दुनिया भर में लाल कालीन बिछती, पर यहां हर बार काले झंडे दिखाए जाते। बड़े नेता अपने विरोध को सहजता से लेते हैं, पर अपने गृह नगर में बात-बेबात होने वाले ऐसे प्रदर्शन उन्हें भावनात्मक रूप से परेशान करते थे। इलाहाबाद के मुट्ठी भर लोगों ने ही उनका विरोध किया, पर इसका दंश पूरे शहर को भोगना पड़ गया। ऐसे संवेदनशील शहर में पंडित रवि शंकर के लिए जब लोग खड़े होकर तालियां बजा रहे थे, तो मेरे दिमाग में यह साफ हो गया कि इस शख्स ने अपने लिए अमरत्व गढ़ लिया है।

सौभाग्य से मेरा रिश्ता काशी और प्रयाग, दोनों शहरों से है। बनारस से पंडितजी ने अपनी जीवन-यात्रा शुरू की और इलाहाबाद के शिवकुटी मंदिर के पास गंगातट पर राग गंगेश्वरी की रचना की। अगर किसी ने इन धार्मिक नगरियों के घाटों से गंगा को पल-दर-पल गुजरते हुए देखा है, तो वह पंडितजी की अदायगी की बारीकियों को समझ सकता है। उनके अंदर राग-रागिनी की गंगा बहती थी। जिस तरह यह सदानीरा कभी रुकती नहीं, उसी तरह रवि शंकर ने भी कभी अपनी रचनात्मकता को विराम नहीं दिया। वह जब तक जिए, अपने काम के प्रति समर्पित रहे। उनसे जुड़े दो किस्से याद आ रहे हैं।

उन्होंने जब ‘रिम्पा’ की स्थापना की और उसके एक आयोजन में हिस्सा लेने के लिए बनारस पहुंचे, तो उन्हें 104 डिग्री बुखार था। मित्रों और स्नेहियों ने समझाया कि आप आराम करें। पर नहीं, उन्होंने उसी स्थिति में सितार के तारों को छेड़ा और सभी श्रोता उसके जादू में डूबने-उतराने लगे। कुछ समय पहले भी यही हुआ। वह शायद उनकी अंतिम सार्वजनिक प्रस्तुति थी। तबियत ठीक नहीं थी। डॉक्टरों ने मना किया था। सहयोगी खिलाफ थे। स्नेही रोक रहे थे। फिर भी, व्हील चेयर पर बैठकर ऑक्सीजन का मुखौटा लगाए, वह मंच पर जा पहुंचे। शरीर थक रहा था, पर आत्मा का बल इतना मजबूत था कि वह और उनकी अदायगी एक बार फिर लोगों की यादों पर हरी दूब-सी जम गई। भूलिए मत। स्मृतियों के किले भले ही खंडहर हो जाएं, किंतु उन पर जमी हरियाली तब भी कायम रहती है। ऐसे थे रवि शंकर, काल की शिला पर अमिट हस्ताक्षर छोड़ने वाले। खुद अपनी राह बनाकर हमेशा उस पर चलते जाने वाले।

इलाहाबाद की उसी शाम की ओर लौटना चाहूंगा। उस दिन उन्होंने मुझे एक बड़ी सीख दी थी। तब मैं नौजवान रिपोर्टर हुआ करता था। हर समय एक घुन खाए जाता कि सत्ता की ऊंचाइयों पर बैठे हुए लोग हों या किसी और क्षेत्र के शीर्ष पर आसीन महापुरुष, सबके सब आम आदमी को बिसरा बैठे हैं। उसी समय मैंने उनसे पूछा था कि आप शास्त्रीय संगीत को जन सामान्य तक पहुंचाने के लिए क्या करना चाहेंगे? पंडित रविशंकर का बेलाग जवाब था- ‘क्लासिकल संगीत ‘क्लास’ के लिए होता है, लेकिन वह ‘मासेस’ के बीच से ही उपजता है। मैं ‘मास’ को ध्यान में रखकर क्लासिक संगीत रचता रहूंगा।’ आज बरसों बाद सोचता हूं, वह कितने सही थे। बीटल्स के साथ जुगलबंदी कर अथवा फिल्मों के लिए संगीत रच या फिर काशी की संगीत परंपरा को जिंदा रखने की कोशिशें कर उन्होंने हर बार आम आदमी तक शास्त्रीय संगीत पहुंचाने की कोशिश की। जटिलता को सुलभ बना देना रविशंकर की सबसे बड़ी खासियत थी।

इसके लिए उन पर तमाम आरोप भी लगे, पर सफलता और आरोप, एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक इल्जाम यह भी है कि उन्होंने आगे बढ़ने की कोशिश में कई लोगों को टंगड़ी मारी और कई ‘अपनों’ का बेजा इस्तेमाल किया। कहने वालों ने कसर नहीं छोड़ी, पर वह बेखौफ बढ़ते गए। इससे उनका जो भला-बुरा हुआ, वह अपनी जगह है, पर अपनी कला के बूते पर उन्होंने भारत को नई पहचान दी। आज अमेरिका में सितार बनते हैं और वहां के लोग इसे सुनते-गुनते हैं। हम हिन्दुस्तानी गर्व से कह सकते हैं कि हम तलवारों से मुल्क नहीं, बल्कि अपनी कला-संस्कृति से मानवों के दिल जीतते हैं। भारत और भारतीयता के इस रचनात्मक अश्वमेघ को बढ़ाने के लिए पंडितजी को हमारा प्रणाम!

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