फोटो गैलरी

Hindi Newsभले लोगों से किनारा काटती राजनीति

भले लोगों से किनारा काटती राजनीति

अगर सभी भले लोग चालाक होते, और सभी चालाक भले होते, तो दुनिया पहले से कहीं ज्यादा खूबसूरत होती, काश! ऐसा हो...

भले लोगों से किनारा काटती राजनीति
Tue, 11 Sep 2012 07:47 PM
ऐप पर पढ़ें

अगर सभी भले लोग चालाक होते, और सभी चालाक भले होते, तो दुनिया पहले से कहीं ज्यादा खूबसूरत होती, काश! ऐसा हो पाता..। ये पंक्तियां न तो बहुत अच्छी हैं और न ही चतुराई भरी, परंतु कहीं न कहीं हमारे मर्म को छूती हैं। ये पंक्तियां डेम एलिजाबेथ वर्डसवर्थ ने लिखी हैं, जो महान कवि विलियम वर्डसवर्थ की भांजी थीं। वह महारानी विक्टोरिया के महान साम्राज्य के दौर की कवयित्री थीं। एलिजाबेथ वर्डसवर्थ भी एक बड़ी शख्सियत की मालकिन थीं। साल 1879 से 1909 तक प्रिंसिपल रही एलिजाबेथ निस्संदेह कुछ ऐसे भले लोगों को जानती थीं, जिन्हें चतुर लोगों ने परेशान किया और कुछ ऐसे चतुर लोगों को भी वह जानती थीं, जिन्हें नैतिकता की ओट लेकर भले लोगों ने नकार दिया। इन्हीं दो श्रेणियों के बीच अच्छाई विचरती है और एलिजाबेथ भी खुद को इन्हीं के बीच पाती थीं। अगर वह खुद को भली मान रही होतीं, तो उनके कुछ कुलीन मित्र उन्हें चालाक मानते या यदि वह खुद को चालाक समझती, तो ऐसे लोग भी होते, जो उन्हें चालाक छोड़ कुछ भी मान लेते।

जो भी हो, ये दो श्रेणियां- ‘भला’ और ‘चालाक’ अपने अंतर-परिवर्तन की संभावनाओं के साथ मुझे आकर्षित करती हैं।
 गौतम बुद्ध को ही लीजिए। मान लीजिए, वह प्रबुद्ध की जगह चतुर रहे होते..,तो उनके समकालीनों को सिद्धार्थ के रूप में एक बुद्धिमान राजा और यशोधरा के रूप में एक संतुष्ट महारानी देखने को मिला होता, कपिलवस्तु भी एक खुशहाल साम्राज्य होता। लेकिन शेष दुनिया को क्या मिलता, इतिहास का क्या होता? वे कभी तथागत को नहीं जान पाते। उनकी दूरदर्शिता या करुणा दुनिया के लिए अनभिज्ञ ही रहती। आगे चलकर इतिहास कभी सम्राट अशोक को नहीं देख पाता, जिन्होंने आज के अफगानिस्तान से लेकर आंध्र प्रदेश तक में बौद्ध उपदेशों का अपने काल में प्रचार-प्रसार किया। न ही महान शासक कनिष्क का उद्भव हुआ होता, जिन्होंने नागाजरुन, अश्वघोष और वसुमित्र जैसे बौद्धिक प्रखरता वाले इंसानों को आगे बढ़ाया, ताकि भावी संसार बुद्ध के विचारों से आलोकित हो।

अगर सिद्धार्थ एक चतुर राजा होते, तो न सारनाथ होता और न ही सांची। न तक्षशिला, नालंदा के विश्वविद्यालय होते और न ही एलोरा, अजंता, अनुराधापुर, पोलोन्नरुवा और बामियान का ही अस्तित्व होता। यही नहीं, हमारा दौर राहुल सांकृत्यायन द्वारा तैयार बौद्ध पांडुलिपियों का साक्षी भी न बनता। न ही हम नेहरू के पंचशील के सिद्धांत के गवाह बनते और न ही अंबेडकर बौद्ध धर्म अपना पाते। दलाई लामा न तो ल्हासा से भागते और न ही निर्वासित जीवन जीते। वियतनामी बौद्ध भिक्षु थिच न्हाट हान भी न तो इस हिंसक दौर में बौद्ध पाठशालाओं को जीवित कर पाते और न ही आंग सान सू की का उद्भव हुआ होता। ये सब न हुआ होता, अगर सिद्धार्थ महज चतुर राजा की जमात में शामिल हुए होते।

इसके ठीक विपरीत, अगर औरंगजेब एक आलमगीर न होकर मामूली फकीर होता.., तो वह अपना अधिकतर वक्त कैलीग्राफी (सुलेखन) में बिताता, और शायद गोल टोपी को बुन रहा होता। वह अपने पिता को बंदी न बनाता। उसने अपने बड़े भाई दारा शिकोह को बकरी की तरह कटवाया नहीं होता और अपने अन्य भाइयों, लंपट शुजा और मनमौजी मुराद, को बख्श देता। दरअसल, आलमगीर चालाक था और इसलिए उसने कयामत, खौफ व बर्बरता के व्यूह को रचा। बेशक उसकी चतुराई के कुछ प्रभाव पड़े, जिन्हें इतिहास बखानता है। यह गौर करने लायक है कि जब वह बादशाह था, तो उसके 21 सूबों में स्थायित्व का भाव था। यकीनन, मयूर सिंहासन के चारों पांव खून से सने थे, पर वह चट्टान की मानिंद मजबूत था।

इटली के यायावर लेखक मानुची का आकलन है कि, ‘औरंगजेब की हुकूमत का सफाया करने के लिए 30,000 यूरोपीय सिपाहियों को मिलकर जोर लगाना पड़ा और तब जाकर वे उसके साम्राज्य पर अपना सिक्का जमा सके।’ इससे यही साफ होता है कि औरंगजेब का साम्राज्य बड़ा और सुसंगठित था। अगर औरंगजेब की जगह दारा शिकोह बादशाह बनता, तो दुनिया एक दार्शनिक सम्राट को जानती, एक कवि-हृदय सम्राट को पहचानती।

लेकिन तब हिन्दुस्तान के नक्शे का क्या होता? कुछ तीन शताब्दियों के बाद ब्रिटिश इंडिया, इंडिया यानी भारत बना। हो सकता था कि हमें फ्रेंच इंडिया, पुर्तगाली इंडिया और डच व डेनिस इंडिया के अवशेष देखने को मिलते, जिनकी सरहदें शाही भारत की बादशाही, सूबेदारी, वजीर, निजाम और नवाबी व्यवस्था की तरह बेलगाम व बेतरतीब होतीं।

हिंदी में ‘भला’ का मतलब अच्छा होता है और ‘भोला’ का मतलब मासूम। आह! इस अंतर को देखिए! भलाई प्रशंसनीय है, पर भोलापन नहीं। जाहिर है, चतुराई की प्रशंसा होती है, यहां तक कि नापसंदगी के बावजूद। फिर भी, भलाई की अपेक्षा चतुराई एक शासन पद्धति में असराहनीय विकल्प होता है। हालांकि, व्यावहारिकता के मुताबिक, नेता की चतुराई तभी तक अच्छी लगती है, जब तक कि वह अपने लिए नहीं दिखाई गई हो और मूर्खतापूर्ण न लगती हो। व्यावहारिकता हमें यह भी बताती है कि नेता अच्छे हों, यह अच्छा है, लेकिन सीधे-सादे न हों। इसलिए जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जहां अपनी अच्छाई की वजह से भरोसेमंद इंसान थे, वहीं अपनी बुद्धिमानी के लिए प्रशंसनीय थे और  लाल बहादुर शास्त्री जैसे व्यक्ति में प्रधानमंत्री बनने के गुण देखे गए। और आज क्या है? हर तरह की बुद्धि दुर्लभ होती जा रही है और चतुराई को उसके विकल्प के तौर पर देखा जाता है।

इसीलिए आज राजनीतिक तकनीशियन, वित्तीय इंतजामात करने वालों व प्रशासनिक जुगाड़ भिड़ाने वालों की पूछ अधिक है। यकीनन, आज सच बोलने वाले अच्छे लोगों और सतर्क करने वाले समझदार लोगों की कोई पूछ नहीं, एक प्रतिबद्ध करदाता की तरह, आधी रात में लाल बत्ती पर रुकने वाले चालक की तरह राजनीति में किसी गैर-चतुर व्यक्ति को भला इंसान कहा जाता है। मुझे खेद इस बात से नहीं है कि भारत में चालाक लोग भले लोगों से आगे निकल गए, बल्कि अफसोस इससे है कि चतुराई के प्रति हमारा अंध निवेश खतरनाक होता जा रहा है। अब चतुराई का ध्येय बस अपनी सेवा है।

यह पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के रूप में कायम है। इसमें निजी उपहार है, निजी जायदाद है, निजी विलासिता है, निजी मुनाफे के लिए निजी उद्यम है और निजी मदद है। जब इसे जन उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो फिर से निजी सौदेबाजी की जाती है, फिर से अपने हित साधे जाते हैं और अपनी सुरक्षा का खयाल रखा जाता है। आज के दौर में सिद्धार्थ सम्राट तो होते हैं, लेकिन कपिलवस्तु की खुशी उनका ध्येय नहीं होता और न ही आज के आलमगीर का इरादा मयूर सिंहासन को स्थिर बनाए रखना है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें
अगला लेख पढ़ें