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इतिहास की कसौटी पर नरसिंह राव

जो मापदंड पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के लिए अपनाए जाते हैं, उसी कसौटी पर नरसिंह राव को भी कसना चाहिए, पर क्या इतिहास इतना ईमानदार...

इतिहास की कसौटी पर नरसिंह राव
Sun, 08 Jul 2012 09:03 PM
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इतिहास क्रूर होता है और न्यायप्रिय भी। वह त्रासदी भी है और आनंद भी। वह नायक और खलनायक में फर्क नहीं करता है। ऐसे में, क्या इतिहास से यह उम्मीद लगाई जाए कि जब कभी वह भारत के नायकों की सूची बनाए, तो उसमें पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव का नाम काफी ऊपर रखे? पिछले दिनों दो किताबों ने शायद उनके साथ न्याय नहीं किया। पूर्व केंद्रीय मंत्री दिवंगत अर्जुन सिंह की किताब में इशारा किया गया है कि सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के पक्ष में नरसिंह राव नहीं थे। उधर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में लिखा है कि जब बाबरी मस्जिद ढहाई जा रही थी, तो नरसिंह राव अपने कमरे में पूजा कर रहे थे। यानी इतना बड़ा हादसा हो गया और नरसिंह राव ने उसको रोकने के लिए कोई तत्परता नहीं दिखाई।

इन दोनों ही तस्वीरों में नरसिंह राव नायक नहीं हैं। एक तस्वीर उन्हें नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ खड़ा करती है, तो दूसरी उन्हें कांग्रेस की सेकुलरवादी परंपरा व विचारधारा के उलट स्थापित करती है। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश के चुनावों में कहा था कि अगर उस वक्त नेहरू-गांधी परिवार का कोई शख्स प्रधानमंत्री रहा होता, तो बाबरी मस्जिद नहीं गिरने दी जाती। कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ जाकर कोई नेता राजनीति नहीं कर सकता। इसलिए नरसिंह राव का जिक्र कांग्रेस के बड़े और छोटे नेता नहीं करते। उनकी विरासत से दूर रहने की कोशिश करते हैं। जिन नरसिंह राव को जवाहरलाल नेहरू ने एक रैली में भाषण देते हुए देखा था और उससे प्रभावित होकर उन्हें राजनीति में लगातार आगे बढ़ाया, वही नरसिंह राव कांग्रेसी नेताओं के लिए अस्पृश्य हो गए। फिर राव के बारे में यह भी प्रचलित है कि प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने राजीव गांधी की हत्या की जांच में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। सोनिया गांधी ने एक बार राजीव गांधी की जांच पर सार्वजनिक मंच से नाराजगी भी जताई थी। यानी वह नेहरू-गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान नहीं रह पाए। वह परिवार की विरासत को आगे बढ़ते नहीं देखना चाहते थे, बल्कि कांग्रेस की सेकुलर परंपरा को भी मिटा देना चाहते थे। 

मेरा मन इस बात से सशंकित रहता है कि क्या इतिहास में नरसिंह राव का सही आकलन हो पाएगा? क्या उनको नायक माना जाएगा? किसी देश के इतिहास में किसी को तब नायक माना जाता है, जब वह उस देश और समाज को निर्णायक दिशा देने का काम करता है, उस देश की किस्मत बदल देता है और समाज के हर तबके पर उसका असर दिखता है। गांधीजी के बारे में किसी को कभी संदेह नहीं होता। उन्होंने भारत को आजादी दिलाने के साथ पूरे भू-भाग के लोगों को एक सूत्र में पिरोने का काम किया, जो पहले कभी नहीं हुआ था। यह अलग-अलग प्रांतों, जातियों और राजाओं का देश था। गांधीजी ने इसकी आत्मा को एक करने का काम करके उसे बताया कि तुम सब एक हो। नेहरूजी ने गांधीजी की परंपरा को आजादी के बाद एक राजनीतिक शख्सियत दी, उसे नेशन-स्टेट के रूप में स्थापित किया और हमारी आत्मा में उसे रचाया-बसाया। जिन्ना यह नहीं कर पाए, जिसका खामियाजा पाकिस्तान आज भुगत रहा है। इंदिरा गांधी ने देश को ‘नेहरू  के आदर्शवाद’ से बाहर निकाला, उसे यथार्थ के धरातल पर खड़ा किया। जेपी ने इंदिरा गांधी को ललकारा और यह सच कर दिखाया कि जनांदोलन देश के सबसे ताकतवर नेता को भी झुका सकते हैं, हरा सकते हैं।

नरसिंह राव ने जब देश की कमान संभाली, तब देश मंदिर-मस्जिद और मंडल के साथ-साथ आतंकवाद की आग में झुलस रहा था। लेकिन उससे बड़ी समस्या थी अर्थव्यवस्था का दिवालिया होने की कगार पर पहुंचना। सोना गिरवी रखने की मजबूरी। नरसिंह राव के सामने दो रास्ते थे। एक, पुरानी समाजवादी-लीक पर चलते जाना और दूसरा, बाजारवाद का दामन थामना। पहले रास्ते पर चलना आसान था। ज्यादा आलोचना नहीं होती। लेकिन नरसिंह राव ने दूसरा रास्ता चुना। नेहरूवादी विरासत को किनारे रखा। उन्होंने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री चुना। अर्जुन सिंह जैसे पुराने समाजवादी नेताओं की तमाम आलोचनाओं के बाद उन्होंने मनमोहन सिंह को काम करने की पूरी आजादी दी। लाइसेंस परमिट राज को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया गया। आज भारत को अगर दुनिया के नक्शे पर सुपर पावर के तौर पर देखा जाता है, तो इसका क्रेडिट सिर्फ नरसिंह राव को जाता है। उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था में जो बुनियादी बदलाव किए, उसी पर चलकर बाकी के प्रधानमंत्रियों ने विकास की गति को तेज किया और अब हिन्दुस्तान को भूखों-नंगों का देश नहीं कहा जाता, और न ही सांप-संपेरों का देश।

अर्थव्यवस्था के साथ आतंकवाद को थामने में भी नरसिंह राव का बुनियादी रोल है। 1991 में पंजाब और कश्मीर केंद्र सरकार की गलत नीतियों की वजह से जल रहे थे। पंजाब में केपीएस गिल को खुली छूट देकर पहले आतंकवादियों की कमर तोड़ी और फिर तमाम दबावों को दरकिनार कर वहां विधानसभा चुनाव करवाए। बेअंत सिंह मुख्यमंत्री बने और धीरे-धीरे पंजाब मे शांति लौट आई। कश्मीर तो लग रहा था कि हाथ से ही निकल जाएगा। लेकिन नरसिंह राव ने वहां भी अफसरों को खुले मन से काम करने दिया, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय आलोचनाओं के बावजूद वहां चुनाव करवाए। मुझे तो ऐसा लगता है कि नरसिंह राव ने शायद जान-बूझकर बाबरी मस्जिद ढहने दी, ताकि एक मुद्दा हमेशा के लिए खत्म हो जाए। आरएसएस के कई नेता यह भी मानते हैं कि अगर बाबरी मस्जिद बची रहती, तो उन्हें आगे भी हिंदुवादी ताकतों को एक करने का मौका मिलता। बाबरी मस्जिद ढहने के बाद भी नरसिंह राव ने संघ परिवार को इस कदर लगातार उलझाए रखा कि मुद्दे के प्रति संघ परिवार की साख ही संदेहों के घेरे में आ गई।

हालांकि उन्हें अंत में भ्रष्टाचार के घनघोर दंश भी ङोलने को मिले। हवाला कांड हो या फिर लखूभाई पाठक का मामला, सेंट किट्स मामला हो या फिर चंद्रास्वामी व अदनान खाशोगी का साथ, उनके माथे पर बदनामी के वे दाग हैं, जो कभी नहीं छूटेंगे। लेकिन इतिहास अगर टुकड़ों में देखेगा, तो शायद न्याय न करे। जैसे पंडित नेहरू को सिर्फ कश्मीर व चीन नीति और इंदिरा गांधी को केवल आपातकाल के आलोक में परखना ठीक नहीं होगा। जो मापदंड नेहरू और इंदिरा के लिए अपनाए जाते हैं, उसी कसौटी पर नरसिंह राव को भी कसा जाना चाहिए। लेकिन क्या ऐसा होगा? क्या इतिहास इतना ईमानदार होगा? क्या इतिहास को ईमानदार होने दिया जाएगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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