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बांग्लादेश युद्ध और उसके बाद

पाकिस्तान को शिकस्त देकर हमने 1971 में जो फौजी बढ़त हासिल की थी, उसे बाद में दूसरे मोर्चों पर बरकरार नहीं रखा जा...

बांग्लादेश युद्ध और उसके बाद
Thu, 15 Dec 2011 09:24 PM
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भारत-पाकिस्तान संबंधों में बांग्लादेश का बनना एक अहम कड़ी है। 40 साल पहले हुए बांग्लादेश युद्ध की सबसे खास बात यह थी कि हमने यह जंग महज 13 दिनों में न सिर्फ जीत ली, बल्कि दुश्मन सेना से आत्मसमर्पण भी करवा लिया। इतने कम समय में एक युद्ध को अंजाम तक पर पहुंचा देना वाकई ऐतिहासिक है। अंतिम जीत भले ही हमें 16 दिसंबर को मिली हो, लेकिन निर्णायक सफलता तो छह-सात दिसंबर को ही मिल गई थी।

इसके पहले ऐसा लग रहा था कि जमीनी लड़ाई में हमारे जवानों के सामने मुश्किलें और बढ़ेंगी। हम लोग उस वक्त पूर्वी पाकिस्तान के उत्तर—पश्चिमी इलाके में दुश्मनों से मोर्चा ले रहे थे। हमारी बटालियन का नाम था—2/5 गोरखा राइफल्स। हमें सबसे पहले पीरगंज ऑपरेशन की जिम्मेदारी सौंपी गई थी और हमारा लक्ष्य था बोगरा सेक्टर पर कब्जा करना। सात दिसंबर को हम लोगों ने पाकिस्तानी फौज को जबर्दस्त शिकस्त दी। इसके साथ ही हमारी फतह की कहानी शुरू हो गई, जिसे भारतीय वायुसेना ने बखूबी अंजाम दिया। यही टर्निंग प्वॉइंट रहा। 16 दिसंबर को हम बांग्लादेश को पाकिस्तान से मुक्त कराने में सफल रहे।

इस युद्ध के कई दूरगामी फायदे हुए। सबसे बड़ा फायदा हुआ कि हमने लगातार शिकस्त के सिलसिले को तोड़ा। उस समय तो कुछ लोग यहां तक कहने लगे थे कि हम एक हजार साल से बस हार ही रहे हैं। 1962 में चीन से मिली करारी हार के जख्म तब तक भरे नहीं थे। ऐसे में इस जीत ने हमारी सेना के मनोबल को बढ़ाने का काम किया। दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भारत की क्षेत्रीय पहचान पुख्ता हुई और अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों ने भारत की सामरिक ताकत को सराहा।
दूसरी बड़ी उपलब्धि यह रही कि हमारी वायुसेना ने अपना जौहर दिखाया। कहा जाता है कि आपकी फौज कितनी मजबूत है, उसका अंदाजा हवा में ही लगता है। पहली बार वायुसेना को इतने बड़े पैमाने पर हमले करने का मौका मिला था। हमने कई बमवर्षक विमानों को पहली बार जंग में उतारा था। तीसरी बड़ी उपलब्धि थी पाकिस्तान के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत का टूटना, जो क्षेत्रीय संतुलन के लिए सबसे ज्यादा जरूरी था। पाकिस्तान का निर्माण इसी सिद्धांत के आधार पर हुआ था।

भारत और पाकिस्तान के विभाजन के लिए यह कहा गया था कि हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रहे सकते, इसलिए दोनों के लिए दो अलग-अलग राष्ट्र बनाने जरूरी हैं। तब भी भारतीय नेताओं ने इस नीति की आलोचना की थी। लेकिन पाकिस्तान बनने के दो दशक के भीतर ही वहां अलग बांग्लादेश की मांग होने लगी। इससे पाकिस्तान को समझ में आ गया कि मजहब और भाषा के आधार पर देश की मांग समस्या का हल नहीं है।

द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत की नींव तभी चरमरा गई थी, जब मार्च 1971 में शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार करके पश्चिमी पाकिस्तान ले जाया गया था। उसके बाद अवामी लीग की बागडोर जिया-उर-रहमान ने संभाली थी। बांग्लादेश में पाकिस्तानी फौज के दमन से तंग आकर एक करोड़ शरणार्थी भारत आ गए। मुक्ति वाहिनी, नियमितो वाहिनी और गोनो वाहिनी अपने स्तर पर पाकिस्तानी फौज से लोहा ले रही थीं, जिन्हें बाद में हमारा साथ मिला।

लेकिन बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन के सूत्रधार और अवामी लीग के अध्यक्ष शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत-बांग्लादेश रिश्तों की ऊंचाई का जो सपना उस समय देखा था, उसे पूरा करने में दोनों देश अब तक विफल रहे हैं। यही नहीं, उस वक्त भावी बांग्लादेश को लेकर हमारा जो अनुमान था, वह भी धूमिल हो गया। यह संभावना व्यक्त की गई थी कि बांग्लादेश में आने वाली सरकारों से हमारे रिश्ते मधुर रहेंगे। पूर्वी सीमा पर स्थिरता की गुंजाइश भी वक्त के साथ खत्म होती गई। इसके उलट घुसपैठ और आतंकी गतिविधियां बढ़ ही गईं। एकदम से एंटी-इंडियन माहौल का बनना इस बात का द्योतक है कि बांग्लादेश को लेकर हमारी विदेश नीति में किसी प्रकार की चूक रह गई थी। युद्ध की बिसात पर हम जिसके हकदार थे, उससे महरूम ही रहे।

सच तो यह है कि कई क्षेत्रों में हमें नुकसान का सामना करना पड़ा। एक शानदार सैन्य जीत को हम राजनीतिक जीत में नहीं बदल पाए। इसकी बानगी देखिए- उस वक्त 93,000 पाकिस्तानी सैनिक हमारे बंदी थे। तब हम चाहते, तो शिमला समझौते में कश्मीर विवाद का हल अपने तरीके से कर सकते थे। पाकिस्तानी जेलों से अपने लोगों को निकाल सकते थे। लेकिन हम कूटनीतिक फायदा नहीं उठा सके। दूसरी तरफ, बांग्लादेश निर्माण के बाद पाकिस्तानी फौज में स्थिरता और मजबूती, दोनों ही आई।

दरअसल इससे पहले तक पाकिस्तानी फौज दो हिस्सों में बंटी थी। हुकूमत के सामने दोनों तरफ की सरहदों को भौगोलिक स्तर पर नियंत्रित करना मुश्किल हो रहा था। लेकिन अब उनकी एकाग्रता सिर्फ एक जगह ही है। बांग्लादेश के बनने के बाद कई और आतंकी संगठनों का निर्माण हुआ। पाकिस्तान में और आतंकी संगठन इसलिए बने कि उनका मकसद भारत से बदला लेना था। वहीं बांग्लादेश में उल्फा ने अपना अड्डा बनाया और इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठन ने पांव पसारे।

दरअसल, ये वे संगठन रहे, जिन्हें पाकिस्तान से पैसा और बांग्लादेश में शरण मिलते रहे। बीच के कई साल तो ऐसे भी रहे, जब भारत-बांग्लादेश समझौते को भी वहां की सरकारों ने नकारा।

वक्त हर जख्म को भर देता है। पाकिस्तान भी अब उस टीस से निकलने लगा है। इधर, भारत भी विकास के पथ पर अग्रसर है। अभी बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार है। जब-जब भी शेख हसीना की सरकार वहां सत्ता में आती है, बांग्लादेश से हमारे संबंध अपेक्षाकृत बेहतर हो जाते हैं। परिवहन, वाणिज्य व तकनीक के क्षेत्र में हमारे रिश्ते ठोस हैं। लेकिन अब भी रह-रहकर सीमा और तीस्ता जल विवाद उठते रहते हैं। इन दिनों दोनों के सैन्य संबंधों में मिठास आई है। दोनों संयुक्त सैन्य अभ्यास कर रहे हैं। बांग्लादेश में उल्फा के ठिकानों को मिटा दिया गया है। हाल ही में बांग्लादेश के आर्मी चीफ जनरल मोहम्मद अब्दुल मोबीन भारत दौरे पर थे। वह बांग्लादेश की मुक्ति में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को सलामी देने के लिए नेशनल डिफेंस एकेडमी भी गए।
प्रस्तुति: प्रवीण प्रभाकर
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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