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स्पिन के सरदार की रंगीन दास्तान

दिल्ली से महान स्पिन गेंदबाज बिशन सिंह बेदी का फोन आया। उन्होंने कहा कि मेरे आसपास हर कोई अन्ना हजारे-अन्ना हजारे चीख रहा...

स्पिन के सरदार की रंगीन दास्तान
Mon, 24 Oct 2011 10:08 PM
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दिल्ली से महान स्पिन गेंदबाज बिशन सिंह बेदी का फोन आया। उन्होंने कहा कि मेरे आसपास हर कोई अन्ना हजारे-अन्ना हजारे चीख रहा है। कुछ महीने पहले यही लोग आईपीएल-आईपीएल चीख रहे थे। जन लोकपाल की जगह संसद को एक भेड़चाल विरोधी बिल पास करना चाहिए। रामलीला मैदान में हुए तमाशे के बारे में यह मेरी सुनी हुई सबसे सटीक और चुटीली टिप्पणी थी। एक खिलाड़ी की तरह या कप्तान की तरह या कोच या कमेंटेटर की तरह बेदी का दिमाग अपने ढंग से सोचता है। उनके विचार कभी हास्यास्पद होते हैं, तो कभी समझदारी भरे। पर हर बार बिल्कुल मौलिक होते हैं।

मैं बिशन सिंह बेदी से पहली बार साल 1974 में मिला था। तब वह अपने क्रिकेट के सर्वोच्च शिखर पर थे, और मैं स्कूल से निकला ही था। वह बंगलुरु में मेरे चाचा के घर रात के खाने पर आए थे, जहां उन्होंने व्हिस्की की एक पूरी बोतल साफ कर दी थी। अगले दिन उन्होंने कर्नाटक की मजबूत टीम को ठिकाने लगा दिया। उसी साल मैंने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में दाखिला लिया। दिल्ली में तब भी बहुत सारे बड़े लोग रहते थे, लेकिन बेदी की उनमें भी एक खास पहचान थी। तब वह दिल्ली की रणजी ट्रॉफी टीम के कप्तान थे और जल्दी ही भारत के कप्तान होने वाले थे। बेदी रंगीन कपड़े पहनते थे, खूबसूरत गेंदबाजी करते थे और जो भी दिल में आता था, बेझिझक कह देते थे।

बेदी की शख्सियत और खेल की महानता को बंगलुरु के लेखक सुरेश मेनन ने उनकी एक नई जीवनी ‘बिशन : पोट्रेट ऑफ क्रिकेटर’ में बखूबी उभारा है। यह किताब बहुत गहराई और आत्मीयता के साथ आलोचनात्मक नजरिये से बेदी की शख्सियत को प्रस्तुत करती है। सुरेश मेनन ने युवा खिलाड़ियों के प्रति बेदी की उदारता के बारे में बहुत मर्मस्पर्शी लिखा है। बिशन सिंह बेदी नौजवानों को इंग्लैंड के शिक्षाप्रद दौरों पर नियमित रूप से ले जाते हैं। इसके लिए वह पैसा खुद जुटाते हैं और मैच आयोजित कराते हैं। मेनन जब भी बेदी के घर गए, उन्होंने वहां कस्बों, छोटे शहरों से आए किशोर खिलाड़ियों को रहते देखा। बेदी के व्यक्तित्व का यह बड़ापन उनमें शुरू से ही था। उनके एक पुराने शिक्षक बताते हैं कि वह अक्सर अपने अपंग साथियों को ह्वील चेयर पर बिठाकर खुद धकेलते थे। मेनन लिखते हैं कि पुराने खिलाड़ियों ने खेल का कर्ज उतारने को एक घिसा-पिटा मोहरा बना दिया था। बेदी ने इस मुहावरे को उसका असली अर्थ वापस लौटाया।

जो पहला टेस्ट मैच बेदी ने देखा था, वही टेस्ट मैच था, जिसमें वह खेले थे। आजकल के खिलाड़ी पुराने खिलाड़ियों की तुलना में कितने बिगड़ैल हो गए हैं, यह भी इस किताब से दिखता है। 1975-76 की सर्दियों में बेदी ने श्रीलंका के खिलाफ एक अनौपचारिक टेस्ट मैच नागपुर में खेला था। उसके बाद उन्हें चंडीगढ़ में दलीप ट्रॉफी मैच खेलने जाना था। बीसीसीआई उनका टिकट खरीदना भूल गई, इसलिए बेदी को तीसरे दर्जे के रैक में अनारक्षित जाना पड़ा। क्रिकेट प्रशासक इतने कंजूस थे कि वे हर क्रिकेटर को प्रति टेस्ट मैच 250 रुपये देते थे। जब बेदी और उनकी टीम ने न्यूजीलैंड के खिलाफ एक टेस्ट मैच चार दिन में जीत लिया, तो बोर्ड ने उनके 50-50 रुपये काट लिए। यदि आज भारतीय क्रिकेटरों को अच्छा पैसा मिलता है, तो इसके पीछे बेदी जैसे क्रिकेटरों का ही संषर्घ है। इस किताब में मेनन ने खिलाड़ियों का संगठन बनाने में बेदी की भूमिका के बारे में बताया है। जिस संगठन ने सक्रिय और रिटायर्ड क्रिकेटरों के लिए बेहतर पारिश्रमिक की मांग की और उसे पाया भी। बेदी ऐसा कुछ तो अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से कर पाए और कुछ इसलिए कि वह क्रिकेट के महानतम खिलाड़ियों में से एक थे। इस किताब को पढ़कर मुझे पहली बार पता चला कि बेदी अकेले खिलाड़ी हैं, जो विदेश में भारत की पहली चार विजयों (न्यूजीलैंड-1968, वेस्टइंडीज-1971, इंग्लैंड-1971 और ऑस्ट्रेलिया-1978) में शामिल रहे हैं।

सुरेश मेनन ने अपनी किताब की शुरुआत इस वाक्य से की है, ‘मैंने सुना है कि तुम बिशन सिंह बेदी की जीवनी लिख रहे हो। तुमने वह किस्सा सुना है.. इसके बाद यह कहने वाला ऐसा कोई किस्सा सुनाता था, जो लगभग सच लगता था या असंभव की दुनिया में शामिल हो जाता था।’ मैं इस लेख का अंत दो किस्सों से करना चाहता हूं, जो सच हैं, क्योंकि मैं इनका गवाह भी हूं।

कुछ बरस पहले इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री जॉन मेजर एक निजी यात्रा पर दिल्ली आए थे। उनके मेजबान ने एक पार्टी रखी, जिसमें उन्होंने मेहमानों के चुनाव में काफी समझदारी दिखाई। अपने मेहमान के राजनैतिक रसूख की वजह से उन्होंने एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री और तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त को भी बुलाया। जॉन मेजर की क्रिकेट में दिलचस्पी को देखते हुए दो पूर्व टेस्ट खिलाड़ियों को भी बुलाया गया। उस शाम की लंबी गपशप में जॉन मेजर ने बाकी सारे मेहमानों की उपेक्षा की। वह लगातार बिशन सिंह बेदी से बात करते रहे और दोनों ने क्रिकेट के कई सारे किस्से सुनाए। उनमें से बहुत से फ्रेडी ट्रमन के बारे में थे, जिनके सर जॉन मेजर बड़े प्रशंसक थे, जबकि बेदी उनके खिलाफ खेले थे। जब वह पार्टी खत्म होने को थी, तो मुझे एकमात्र वाक्य कहने का मौका मिला। जब मैंने मुख्य अतिथि से कहा कि मुझे उम्मीद है कि वह एफएसटी (फेडरिक स्टूअर्ड ट्रमन) के किस्सों के बारे में एक किताब लिखेंगे। जॉन मेजर ने कहा सिर्फ एफएसटी क्यों, मैं बीएसबी के बारे में भी कई किस्से जानता हूं।

पिछले दिनों मैं काबुल गया था, जहां हमारे दूतावास ने इस बात में दिलचस्पी दिखाई कि कोई प्रख्यात भारतीय क्रिकेटर वहां आकर नौजवान अफगानों को क्रिकेट खेलने के लिए प्रेरित करे और प्रशिक्षित भी करे। मैंने कहा कि जो खिलाड़ी अब भी खेल रहे हैं, वे शायद आतंकवाद से प्रभावित ऐसी जगह पर आने का खतरा न मोल लें। उन्होंने पूछा कि क्या कोई रिटायर्ड प्लेयर आ सकता है? बिशन सिंह बेदी और अन्य कई खिलाड़ियों के नामों की चर्चा हुई। जब मैंने भारत आकर बेदी से पूछा कि अगर उन्हें बुलाया जाए, तो क्या वह अफगानिस्तान जाना चाहेंगे? स्पिन के सरदार ने तुरंत कहा, क्यों नहीं। क्रिकेट के लिए मैं कहीं भी जा सकता हूं। क्रिकेट के लिए कहीं भी जाना बेदी का मूलमंत्र है। जैसे उनके कई पुराने साथियों का मूलमंत्र है- कहीं भी और कुछ भी, लेकिन पैसे के लिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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