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आंकड़ों पर इठलाती अमीरी

सपनों के सौदागर इस बात पर अभी से दिवाली मना सकते हैं कि भारत कुछ मुट्ठी भर रईसों के मामले में दूसरे नंबर पर पहुंच गया...

आंकड़ों पर इठलाती अमीरी
Sat, 08 Oct 2011 09:40 PM
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सपनों के सौदागर इस बात पर अभी से दिवाली मना सकते हैं कि भारत कुछ मुट्ठी भर रईसों के मामले में दूसरे नंबर पर पहुंच गया है। मायाजाल के महादेश अमेरिका की एक कंपनी के अनुसार अमीरी के एक मानक के मामले में चीन, ब्राजील, जर्मनी और यूरोप के तमाम देशों से हिन्दुस्तान बहुत आगे निकल गया है। क्या वाकई?

सबसे पहले सर्वे की रिपोर्ट को विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं। रिपोर्ट का कहना है कि 27 प्रतिशत अमेरिकी परिवार अमीर हैं, जबकि भारत में 1.25 प्रतिशत लोग धनी हैं। चीन में यह आंकड़ा 0.75 पर आकर लटक गया है। सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में 1.25 प्रतिशत लोगों को रईस कहने का अर्थ यह नहीं है कि वे गिनती में कम हैं। ऐसा जनसंख्या की अधिकता की वजह से हुआ है। सर्वेक्षणकर्ताओं के मुताबिक, भारत में ऐसे 30 लाख लोग हैं, जिनकी हैसियत एक लाख अमेरिकी डॉलर निवेश करने की है। 121 करोड़ की विशाल आबादी में तीस लाख! ये तो खिचड़ी में नमक के बराबर भी न हुए। बाकी बचे 120 करोड़ से ज्यादा लोगों का क्या हाल है?

कहने की जरूरत नहीं कि वे बेहाल हैं। इन पंक्तियों को लिखते वक्त विजयदशमी के रावण को जले हुए 48 घंटे भी नहीं हुए हैं। इंसान की लगाई हुई हर आग की तरह पुतले तो जल गए हैं, पर दशानन अपने विविध रूपों में सामने खड़ा अट्टहास कर रहा है। आज ही महंगाई के आंकड़े आए हैं और एक बार फिर से खाने-पीने की वस्तुओं के दामों ने दहाई के अंक के पास पहुंच गया है। जब खाद्य महंगाई को लगभग दस अंक हासिल हो रहे हों, तो मान लीजिए कि आम इंसानों का जीना दूभर हो रहा होगा। यकीनन इस देश के अधिसंख्य लोगों के मन में यह सवाल उथल-पुथल मचा रहा होगा कि इस दिवाली पर उनका दिवाला निकलने जा रहा है।

पश्चिमी राष्ट्रों के लोग पिछले पांच सौ वर्षो से शेष दुनिया को सिर्फ सपने और नसीहतें ही बांटते आए हैं। उनके बोए बबूल को काटते-काटते हमारी तमाम पीढ़ियां खाक में मिल गईं। यही वजह है कि जब कोई एजेंसी इस तरह के सब्जबाग दिखाने की कोशिश करती है, तो मन की गहराइयों में रचे-बसे बबूल और घने हो जाते हैं। अगर यह ठीक है कि रईसों और रईसी के एक पैमाने में हम दुनिया में दूसरे नंबर पर पहुंच गए हैं, तो तमाम मानक ऐसे भी हैं, जो ओढ़ी हुई इस अमीरी के रंग को बदरंग कर देते हैं। विश्व बैंक ने 2005 में एक विश्वव्यापी सर्वे किया था। उसके मुताबिक, दुनिया के एक-तिहाई गरीब भारत में रहते हैं। कुल जमा 41.6 प्रतिशत लोगों को अपनी जिंदगी गरीबी की जगमान्य रेखा से नीचे गुजारने पर मजबूर होना पड़ रहा है। क्या है गरीबी का मानक? तो सुन लीजिए। ये लोग उन्हें निर्धन मानते हैं, जो हर रोज अपनी जिंदगी 1.25 अमेरिकी डॉलर से कम में गुजारते हैं। आपको याद होगा। कुछ दिनों पहले भारतीय योजना आयोग ने एक आंकड़ा पेश किया था। जिसके तहत आम आदमी हर रोज 32 रुपये में गुजर-बसर कर सकता है। यह ठीक है कि भीषण विरोध के बाद नई दिल्ली के वातानुकूलित चैनगाहों में बैठकर लिखी गई यह रपट वापस ले ली गई, पर अगर उस पर यकीन करें, तो फिर 1.25 अमेरिकी डॉलर में तो गुजर-बसर से आगे भी काफी कुछ किया जा सकता है। समय आ गया है। जब हम हकीकत की काली गहराइयों में झांककर देखें और आंकड़ों के जुगनू चमकाना बंद करें।

अमीरी और गरीबी के इस महासंग्राम में कुछ और दिल दहलाने वाले आंकड़े हैं। भारत में प्रति व्यक्ति आय कुल 1,219 डॉलर सालाना है, जो कि संसार में 142वां स्थान रखती है। माना जाता है कि हिन्दुस्तान में 2011 से 2020 के बीच प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी की दर 13 प्रतिशत रहेगी। यानी एक हिन्दुस्तानी इस दशक के अंत में औसतन 4,200 अमेरिकी डॉलर कमा रहा होगा। एक अन्य रिपोर्ट कहती है कि 2015 तक भारत में गरीब काफी कम हो चुके होंगे। फिर पूछना चाहूंगा- क्या वाकई?

भूलिए मत। 1990 के बाद से लगातार आंकड़ों के छल भरे तमाम खेल हम लोगों ने देखे हैं। कभी कहा जाता था कि 2000 से 2010 के बीच में दुनिया में अनोखी प्रगति होगी। इसी के आधार पर 2020, 2030 और 2050 के तमाम आंकड़े रच लिए गए। पर अफसोस के साथ याद आता है कि किसी ने भी 2008 की मंदी के बारे में सोचने की जहमत नहीं उठाई। अर्थशास्त्र के बाजीगर कुछ भी कहें, पर इसमें कोई दो राय नहीं है कि इंसानियत उनके खोखले सिद्धांतों से पूछकर अपना रास्ता तय नहीं करती। अमेरिका में बदहाली के विरोध में लोगों का बढ़ता कारवां उन्हें आईना दिखा रहा है।

समूचे यूरोप की लड़खड़ाहट इसका दूसरा उदाहरण है। अभी दो साल भी नहीं हुए, जब बराक ओबामा से लेकर तमाम महारथियों ने खुद अपने हाथ अपनी पीठ ठोंकी थी कि आर्थिक मंदी दूर हो चुकी है। पहले वे अपने यहां कर्ज भुगतान के संकट को नहीं पढ़ पाए थे। अब ग्रीस के संकट से खौफजदा उनके चेहरे देखकर लगता है कि अमीरी और गरीबी की शाश्वत लड़ाई बाजार की चोंचलेबाजी से दूर नहीं होगी। उसके लिए हमें जमीनी रास्ते तलाशने पड़ेंगे। फिलहाल विश्व के किसी सत्तानायक या दानवीर संस्थाओं के मुखिया में ऐसा करने का दमखम दिखाई नहीं देता। यूरोपियन सेंट्रल बैंक के मुखिया जीन क्लॉट ने जब गए गुरुवार को अपनी आखिरी प्रेस कांफ्रेंस की, तो उनके चेहरे पर हताशा की धुंध बिखरी हुई थी। उनकी आठ साल की मेहनत पर मौजूदा यूरोपीय संकट ने पानी फेर दिया है। वह हताश भाव से रुखसत हो रहे थे। दुनिया के तमाम सत्तानायकों का यही हश्र होने वाला है।

कभी पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने ‘ग्लोबल विलेज’ का शोशा उछाला था। अमेरिकी राष्ट्रपतियों को शायद इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जाता है कि वे अपनी मर्जी से जब चाहे तब दुनिया को सपने बेच सकते हैं, लुभाने की कोई और कोशिश कर सकते हैं या मन आने पर धमका भी सकते हैं। क्लिंटन का ग्लोबल विलेज कितना बना, यह तो मालूम नहीं, पर यह सच है कि आर्थिक असमानताओं के बादल बरसते कहीं और हैं, पर भीगते हम सब हैं। 2008 में अमेरिका लड़खड़ाया, तो हिन्दुस्तान में हजारों लोगों की नौकरियां चली गईं। अब यूरोप डगमगा रहा है। हम सब दिल थामकर बैठे हैं। न जाने कब, किस पर बिजली गिर जाए। पर हम हिन्दुस्तानियों को बहुत हताश होने की जरूरत नहीं है। भारतीय बाजार की अंदरूनी खपत और 70 प्रतिशत लोगों का कृषि से जुड़ाव हमें कभी भी जमींदोज नहीं होने देगा। तीन साल पहले यह सच साबित हो चुका है।
यकीन मानिए। हमारे हरियाले खेतों और सदानीरा नदियों में अब भी 121 करोड़ लोगों की भूख और प्यास बुझाने की शक्ति है। बस एक बार संकल्प करने की जरूरत है। तो क्या सोच रहे हैं आप? सिर्फ दरवाजे पर दीया जलाकर छोड़ देंगे और हमेशा की तरह लक्ष्मी जी के वाहन का इंतजार करते रहेंगे या फिर अपने अंदर भी कोई जोत जलाने की कोशिश करेंगे? इस ‘ग्लोबल विलेज’ का सम्मानित सदस्य होने के नाते कुछ जिम्मेदारी आपकी भी है। 

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