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ताकि न्याय की राह में भ्रष्टाचार न हो

कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा में महाभियोग प्रस्ताव पारित होने से उच्च न्यायपालिका के जजों की जवाबदेही तय करने की बहस को नया ईंधन मिला...

ताकि न्याय की राह में भ्रष्टाचार न हो
Mon, 22 Aug 2011 08:55 PM
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कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा में महाभियोग प्रस्ताव पारित होने से उच्च न्यायपालिका के जजों की जवाबदेही तय करने की बहस को नया ईंधन मिला है। यह तर्क भी दिया जाने लगा है कि उच्च न्यायपालिका को जिम्मेदार बनाने के लिए उसे लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए, ताकि भ्रष्टआचरण सिद्ध होने पर जज को तुरंत पद से हटाया जा सके और महाभियोग जैसी लंबी तथा जटिल प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। लेकिन क्या इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता बची रहेगी और क्या अदालतों में पराजित मुकदमेबाज जजों के खिलाफ झूठी शिकायतों का ढेर नहीं लगा देंगे? प्रस्तावित न्यायाधीश मानक तथा जवाबदेही बिल-2010 में भी भ्रष्ट जजों को हटाने की प्रक्रिया नहीं बदली गई है, बल्कि इस बिल के अनुसार जजों के खिलाफ आई शिकायतों की जांच पर बनी तीन कमेटियों ने स्थिति को और जटिल कर दिया है। कमेटी में अटॉर्नी जरनल को भी रखा गया है, जो आए दिन जजों के सामने पेश होकर सरकार की पैरवी करते हैं। फिर वह उस जज के खिलाफ अपनी सच्ची राय कैसे दे सकेंगे, यह सवाल भी इस बिल से उठा है। इसलिए इस बिल से भी वह बात नहीं बन रही। आखिर क्या हैं अन्य रास्ते, जिनसे जजों को जवाबदेह बनाया जा सके और उनमें यह डर पैदा किया जा सके कि जो वे करते हैं, उसके लिए उन्हें तुरंत पद से हटाया जा सकता है।

उच्च न्यायपालिका के जजों को लोकपाल के दायरे में लाने की बात जरूर हो रही है, लेकिन जजों को इसके दायरे में लाना उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होगी। ऐसा करने से आरोपी जज एक अभियुक्त की तरह हो जाएगा, जो निचली अदालतों में अपनी पैरवी करता घूमेगा। बेहतर यह है कि संविधान में एक संशोधन कर दिया जाए, जिससे ऐसे जज को तुरंत हटाया जा सकता हो, जो सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की राय में संदिग्ध चरित्र का हो और जज बने रहने के काबिल न हो। सेवा से हटने के बदले उसे कुछ पैसा दे दिया जाए, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों का बोझ, जिनकी ईमानदारी पर लोगों को संदेह हो, न्यायपालिका नहीं झेल सकती।

दरअसल असली खामी उच्च न्यायपालिका में जजों की मौजूदा नियुक्ति प्रणाली में है, जो पूरी तरह से अपारदर्शी और गोपनीय है। क्या इसे बदला नहीं जाना चाहिए? प्रणाली की अपारदर्शिता के कारण चयन मंडल (कोलेजियम) को उम्मीदवार के पूर्व चरित्र के बारे में कुछ पता नहीं लगता, वह सिर्फ उसकी वकालत में कुशलता और कोर्ट में व्यवहार ही देखता है। सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम द्वारा किसी के नाम की सिफारिश करने के बाद ही उसके बारे में पता लगाता है कि फलां वकील जज बनने वाले हैं, लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है। यही वजह है कि सौमित्र सेन, पीडी दिनाकरन और निर्मल यादव जैसे लोग न्यायपालिका में घुसपैठ कर जाते हैं। मेरा मानना है कि सरकार को जजों की नियुक्ति के लिए विश्वविद्यालयों के वीसी की नियुक्ति जैसी प्रणाली अपनानी चाहिए। इसके लिए एक उच्चस्तरीय सर्च कमेटी बने, जो काबिल जजों की तलाश करे। यही प्रक्रिया हाईकोर्ट के स्तर पर भी अपनाई जा सकती है। कमेटी में सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट के निष्ठावान जज, सरकार के नुमाइंदे तथा नेता प्रतिपक्ष को रखा जा सकता है। साथ ही यह कमेटी ऐसे लोगों की ‘नो कंसीडरेशन’ सूची भी बना सकती है, जो न्यायाधीश बनने के लिए अयोग्य हैं।

लेकिन इतना जानने के बाद भी न्यायपालिका को जवाबदेह बनाना चाहिए। सरकार ने साल 1993 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से तय हुई नियुक्ति की मौजूदा प्रणाली को बदलने के लिए कोई कदम नहीं उठाया, जबकि कोलकाता हाईकोर्ट के जस्टिस सेन, दिल्ली हाईकोर्ट के जज शमित मुखर्जी, सिक्किम के पीडी दिनाकरन आदि इसी प्रणाली की देन हैं। पिछले दिनों संसद में सरकार ने कहा है कि इस प्रक्रिया को बदलने का अभी कोई प्रस्ताव नहीं है। दरअसल सरकार में इच्छाशक्ति का अभाव है। सरकार जवाबदेही विधेयक ला रही है, जो जजेज इंक्वायरी ऐक्ट-1968 का स्थान लेगा। लेकिन अच्छे इरादों के बावजूद यह विधेयक दंतहीन है, जो समस्या को प्रभावशाली तरीके से हैंडल नहीं कर सकेगा। यदि किसी जज के खिलाफ शिकायत है, तो उसे जांच के दौरान सस्पेंड करने का प्रावधान बिल में होना चाहिए। इसके साथ ही हमें यह भी देखना चाहिए कि जज ऐसे लोगों का शिकार न बने, जो मुकदमे में हारे हुए हैं। लेकिन इस बिल का अनचाहा प्रभाव यह है कि यह ऐसी शिकायतों को उत्साहित करता है, जो न्यायपालिका की स्वायत्तता के लिए बिल्कुल उचित नहीं है। दूसरी ओर, इस बिल में कदाचारी जजों को तत्काल हटाने का प्रावधान नहीं है और महाभियोग प्रकिया की सिफारिश कर यह बिल पुराने कानून की जगह पर आ जाता है। जज इस बात को जानते हैं कि महाभियोग के जरिये उन्हें हटाना नामुमकिन जैसा है, इसलिए वे किसी से नहीं डरते।

सुप्रीम कोर्ट इस बिल के पक्ष में नहीं है। वह कहता है कि कदाचारी जज के खिलाफ जांच की हमारी आंतरिक प्रक्रिया पर्याप्त है। पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस केजी बालकृष्णन ने कहा भी है कि जज कोई सामान्य सरकारी कर्मचारी नहीं है, जिन्हें छोटी-सी शिकायत पर सस्पेंशन, चेतावनी आदि दी जा सकती हो। जज या तो दोषी होता है या नहीं होता। लेकिन समस्या यह है कि सुप्रीम कोर्ट का इनहाउस प्रोसीजर पारदर्शी नहीं है। यह महसूस किया जाता है कि विपरीत प्रचार से बचने के लिए केसों को कालीन के नीचे दबा दिया जाता है। इसलिए जजों की जवाबदेही के लिए एक स्पष्ट तथा पारदर्शी मशीनरी की जरूरत है। आज आलम यह है कि संपत्ति की घोषणा के मामले में न्यायपालिका में अब भी हिचक है। यदि न्यायपालिका और प्रणाली में जनता के विश्वास को बनाए रखना है, तो हमें पारदर्शिता को सुनिश्चित करना ही होगा।

मेरा मानना है कि संसद को जजों के न्यायिक आचार तथा चरित्र का संरक्षक बनाना बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला नहीं है। यदि सांसद अपने मानदंडों से जजों के र्दुव्यवहार का आकलन करने लगे, तो गंभीर कदाचार के दोषी जजों को हटाने में संसद सफल नहीं हो पाएगी। इसलिए र्दुव्यवहार तथा संदिग्ध सत्यनिष्ठा के दोषी पाए गए जजों को हटाने का तरीका बदलना ही होगा। जस्टिस सेन ने तीन जजों की निष्पक्ष जांच कमेटी तथा उसके बाद राज्यसभा की कमेटी द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद भी हार नहीं मानी और मामला संसद तक ले जाना पड़ा। यह स्वस्थ स्थिति नहीं है। 

प्रस्तुति- श्याम सुमन
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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