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संस्कृति का गणतंत्र

अगर हिंदी का कोई गणतंत्र है,  तो वह उसकी राजधानी हैं। वह हिंदी के विकेंद्रीकरण के सबसे बड़े प्रतीक हैं। वह हिंदी के भोपाल हैं, पटना हैं, रायपुर हैं, जयपुर हैं, मुंबई हैं, नागपुर हैं। वही अशोक...

संस्कृति का गणतंत्र
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 16 Jan 2015 08:43 PM
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अगर हिंदी का कोई गणतंत्र है,  तो वह उसकी राजधानी हैं। वह हिंदी के विकेंद्रीकरण के सबसे बड़े प्रतीक हैं। वह हिंदी के भोपाल हैं, पटना हैं, रायपुर हैं, जयपुर हैं, मुंबई हैं, नागपुर हैं। वही अशोक वाजपेयी कल 74  साल के हो गए। अशोक वाजपेयी की बात करना,  उनकी कविताओं,  आलोचना को याद भर करना नहीं हैं। यद्यपि वह हिंदी की दूसरी परंपरा के सबसे बड़े कवि हैं,  जिनकी कविताओं में मनुष्यता की सच्ची आवाज सुनाई देती है, विचारधारा की झूठी टंकार नहीं। लेकिन अशोक वाजपेयी का योगदान एक लेखक से भी विराट उस हिंदीसेवी का है, जो जहां भी गए, हिंदी अपने साथ लेकर गए।

भाषाओं के बीच आवाजाही ही नहीं,  कलाओं के साथ हिंदी के संवाद के महती काम में वह जीवन भर लगे रहे। बिना इस बात की परवाह किए कि हिंदी वाले इस परिसर विस्तार में अपनी जगह बना पाएंगे या नहीं। हम हिंदी वालों की आदत है कि हर बड़े प्रयास को हम अपनी क्षुद्रताओं से छोटा बनाने में लगे रहते हैं। अशोक वाजपेयी हमेशा क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर गुणीजन संगम बनाने में लगे रहे। एक ऐसा ‘पब्लिक स्फियर’, जो हो तो हिंदी का अपना, लेकिन जो सीना तानकर, आंखों में आंखें डालकर दुनिया के साहित्य से, कला के विराट संसार से सहज संवाद स्थापित कर सके। आखिर आज हमारी भाषा के कितने बुजुर्ग लेखक हैं,  जो नियमित रूप से लिखते हों, बहसों के केंद्र में बने रहते हों? निजी आरोपों-प्रत्यारोपों में नहीं, बल्कि वैचारिक बहसों मे अपने को अपडेट रखते हों?
जानकी पुल में प्रभात रंजन

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