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अजर-अमर है हमारी हिंदी

आपने पिछले दिनों अखबार में खबर पढ़ी होगी कि देश की सर्वोच्च अदालत ने इस बात पर मोहर लगा दी है कि उत्तर प्रदेश में उर्दू दूसरी राजभाषा बनी रहेगी। 1980 के दशक की शुरुआत में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने...

अजर-अमर है हमारी हिंदी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 13 Sep 2014 08:05 PM
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आपने पिछले दिनों अखबार में खबर पढ़ी होगी कि देश की सर्वोच्च अदालत ने इस बात पर मोहर लगा दी है कि उत्तर प्रदेश में उर्दू दूसरी राजभाषा बनी रहेगी। 1980 के दशक की शुरुआत में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे दूसरी राजभाषा का दर्जा देने का इरादा जगजाहिर किया था, तब सामाजिक, सांस्कृतिक और सियासी हलकों में तूफान उठ खड़ा हुआ था। अब जब बरसों बाद यह फैसला आया है, तो इसने देश के सबसे बड़े सूबे में उतनी हलचल भी नहीं मचाई, जितनी किसी बच्चे के ढेला मारने से गांव की पोखरियों में उठा करती है। इस चुप्पी की वजह क्या है? जवाब देने से पहले एक किस्सा सुनाता हूं। मैं उन दिनों इलाहाबाद में एक अखबार का ब्यूरो प्रमुख हुआ करता था। प्रयाग तब आज की तरह पुराने स्पंदन की याद में कराहता शहर नहीं था। महादेवी वर्मा, उपेंद्रनाथ ‘अश्क’, अमृत राय, जगदीश गुप्त, अमरकांत, शैलेश मटियानी जैसे तमाम नामी-गिरामी हिंदी साहित्यकार वहां रहते थे। लोग मजाक में कहा करते थे कि किसी भी गली में जाकर पूछ लो, क्या यहां कोई कवि, हाईकोर्ट का वकील या एजी ऑफिस का बाबू रहता है, तो हर घर से सिर झांकते नजर आ जाएंगे। खुद विश्वनाथ प्रताप सिंह इलाहाबादी थे, विरोध की मुखर शुरुआत भी यहीं से हुई।

उन दिनों हाईकोर्ट और पत्थर गिरजाघर के बीच एक होटल हुआ करता था, जिसके संचालक हिंदीप्रेमी थे। उन्होंने बड़ी मान-मनुहार के साथ हिंदी साहित्यकारों, प्रेमियों और पत्रकारों की सभा बुलाई। वे ऐतिहासिक लमहे थे, क्योंकि बरसों बाद लोगों ने महादेवी वर्मा को किसी मंच पर देखा था। वह अपने घर से बहुत कम निकलती थीं। हिंदी जगत में ‘सप्त ऋषियों’ की तरह माने जाने वाले लोगों ने ‘राजा साहब’ की नीयत की जमकर लानत-मलामत की। इस सभा में मैंने इन विभूतियों को सुझाव दिया कि आप लोग क्यों नहीं इस घोषणा के विरोध में एक-एक लेख लिखते? हम लोग उन्हें देश की सभी भाषाओं में अनुवाद कराकर छपवाएंगे। जो खुद न लिखना चाहें, वे इंटरव्यू दे दें। मेरा कहना था- आप लोग नामी-गिरामी हैं। आपके विचारों का समूचे देश के जनमानस पर असर पड़ेगा। सबने हामी भर दी, लेकिन आगे जो हुआ, वह दिल तोड़ने वाला था।

अगले कुछ दिन बेहद तकलीफ और मानसिक यातना के थे। मैं इन महान व्यक्तित्वों को फोन कर-करके थक गया। खुद लिखना तो दूर, कोई इंटरव्यू तक देने को तैयार नहीं था। लोग जब फोन पर टाल-मटोल करने लगे, तो मैंने उनके घरों पर धरना देना शुरू किया। मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा, जब मैंने एक कथाकार को अपनी पोती से सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में बात करते देखा। वह एक महान साहित्यिक घराने में जन्मे थे। मुझे उम्मीद थी कि उनके यहां शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया जाता होगा। खैर, बड़ी मान-मनुहार के बाद सिर्फ महादेवी वर्मा इंटरव्यू के लिए राजी हुईं। वह भी इस शर्त पर कि मैं उन्हें सवाल पहले ही लिखकर दे दूं। उनका मानना था कि रिपोर्टर पूछते कुछ हैं, सुनते कुछ और हैं और अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। उनके अनुभव कटु थे और सतर्कता अपेक्षित।

उन दिनों मैं खुद को इतना छला हुआ महसूस करता था कि सार्वजनिक तौर पर भी यह कहने और लिखने में कुछ संकोच नहीं करता था कि जो लोग हिंदी की खाते हैं, वही हिंदी को खा रहे हैं। इन ‘महान’ लोगों ने मंच से बड़े-बड़े सवाल उठाए थे- यह हिंदी के खिलाफ षड्यंत्र है, इससे सामाजिक समरसता पर असर पड़ेगा, सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलेगा, उत्तर प्रदेश की गंगा-जमुनी संस्कृति नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी, आदि-आदि। ऐसा हुआ क्या? आज तीन दशक बाद इतने ‘बड़े लोगों’ की थोथी आशंकाओं को जानकर आप भी मेरे साथ मुस्करा रहे होंगे।
पता नहीं क्यों, हिंदी वाले हमेशा खोखली आशंकाओं से ग्रस्त रहते हैं? इलाहाबाद का यह उदाहरण तो बहुत पुराना पड़ गया। कुछ नई बातें बताता हूं। टेलीविजन के आगमन, मोबाइल के प्रसार या फेसबुक की बढ़ती लोकप्रियता ने भी आशंकाशास्त्रियों को अपने शस्त्रों पर धार चढ़ाने का अवसर दिया। एसएमएस का जब प्रचलन बढ़ने लगा, तो इस किस्म के प्राणियों ने कहा कि अब तो हिंदी गई। इसका हाल तुर्की जैसा हो जाएगा।

अगर भाषा रह-बच भी गई, तो लिपि तो खत्म ही हो जाएगी। ऐसा भी नहीं हुआ। आपने अनुभव किया होगा कि वे लोग, जो पहले सोशल मीडिया अथवा मोबाइल पर अंग्रेजी का प्रयोग करते थे, अब हिंदी में लिखने लगे हैं। इसकी अकेली वजह यह है कि हिंदीभाषी उपभोक्ताओं की मंडी में बड़ी हैसियत रखते हैं। एप्पल का आईफोन हो या सैमसंग अथवा नोकिया के स्मार्ट फोन, प्राय: हर कंपनी ने देशी भाषाओं में फोंट उपलब्ध करा दिए हैं। टाइप करना अंग्रेजी जितना आसान नहीं, तो पहले जितना मुश्किल भी नहीं रहा है। पिछले दिनों न्यूयॉर्क स्थित ‘वॉलस्ट्रीट जर्नल’ के मुख्यालय में मैंने ऐसा सॉफ्टवेयर देखा, जो हिंदी बोलने वालों को संसार की सभी प्रमुख भाषाओं से जोड़ सकता है। उसे परखने की इच्छा से मैंने इटली के एक पत्रकार से हिंदी में पूछा कि क्या चाय पीना पसंद करोगे? उसने अपनी भाषा में जस का तस यह सवाल सुना और इतालवी में जवाब दिया कि जब दिल्ली आऊंगा, तब पिला देना। मुझे अपनी मातृभाषा में यह उत्तर हासिल हुआ।

मतलब साफ है, आशंकाशास्त्रियों के झांसे में मत आइए और अपनी जुबान की ताकत पर भरोसा कीजिए। वह दिन दूर नहीं, जब लोगों को आपसी बात-व्यवहार के लिए अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश या अरबी सीखनी नहीं होगी। इस तरह के सॉफ्टवेयर सस्ते होकर आम आदमी की पहुंच में आते जाएंगे। लिहाजा डरने की जरूरत नहीं है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? ‘इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ के मुताबिक, भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या 24 करोड़ के जादुई आंकड़े को पार कर चुकी है। इनमें से करीब 75 फीसदी लोग मोबाइल के जरिये इंटरनेट का उपयोग करते हैं। इसी संस्था ने 2012 में पाया था कि 37 प्रतिशत से अधिक भारतीय अंग्रेजी के मुकाबले अपनी भाषा में उपलब्ध कंटेंट को प्राथमिकता देते हैं। यही वजह है कि गूगल जैसी अंतरराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पाद हमें हिंदी में उपलब्ध कराती हैं और स्नैपडील या फ्लिपकार्ट जैसे बहुराष्ट्रीय महारथी अपनी वेबसाइट हिंदी में भी लांच कर चुके हैं।

कमाल देखिए। खोखले तर्क शास्त्रियों को यहां भी भय के भूत के पीछे भागने का मौका मिल गया है। अब वे खुश होने की बजाय भाषायी शुद्धता के लिए मरे जा रहे हैं। यह ठीक है कि हमारी राष्ट्रभाषा में तमाम भारतीय और विदेशी भाषाओं के शब्दों ने घुसपैठ कर ली है, पर यह रास्ता एकतरफा नहीं है। हमारे भी शब्द तमाम भाषाओं में गहरी पैठ बना चुके हैं। जब आप ‘ग्लोबल विलेज’ के नागरिक हों, तो न तो इससे बचा जा सकता है और न ही बचने की जरूरत है। इतिहास गवाह है कि अपनी तमाम खूबियों के बावजूद वे तमाम भाषाएं पीछे रह गईं, जिन्होंने खुद को समय के साथ बदलने से इनकार कर दिया। आज हिंदी दिवस के शुभ अवसर पर इस सच को सोचने-समझने से बेहतर और क्या हो सकता है? भारतेंदु हरिश्चंद्र आज हमारे बीच होते, तो कितने खुश होते! उनकी हिंदी अब ‘हतभागिनी’ नहीं रही है। हिंदी और हिंदीभाषियों की ओर से उनको इससे बेहतर श्रद्धांजलि नहीं हो सकती।

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