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समाज के साथ चले कानून

एक विधा के रूप में साइबर कानून लगातार विकसित हो रहा है। भारतीय साइबर कानून और इसकी अनेक बारीकियों पर सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला न्याय-शास्त्र की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ने का सूचक है। सर्वोच्च...

समाज के साथ चले कानून
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 26 Mar 2015 11:15 PM
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एक विधा के रूप में साइबर कानून लगातार विकसित हो रहा है। भारतीय साइबर कानून और इसकी अनेक बारीकियों पर सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला न्याय-शास्त्र की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ने का सूचक है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में सूचना-प्रौद्योगिकी कानून 2000 की धारा-66 ए को असांविधानिक करार दिया है। दरअसल, धारा-66 ए अभिव्यक्ति की आजादी पर अस्पष्ट नियमों की क्रूरता का प्रतीक था। यह गंभीर और अबाध अभिव्यक्ति को दबाने का हथियार था, जिसका काफी गलत इस्तेमाल हो चुका है। यह हमारे मित्र की तुलना में शत्रु अधिक था। इसलिए सूचना प्रौद्योगिकी कानून, 2000 की धारा-66 ए को खारिज करके शीर्ष अदालत ने वैसे जीवंत भारतीयों की अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सचमुच एक बड़ा काम किया है, जो डिजिटल विधा में पारंगत हैं। 

साफ है, यह निर्णय इस अर्थ में जनता के विश्वास को फिर से बहाल करने में सहयोग करेगा कि उनकी बोलने और सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी संविधान द्वारा संचालित होती है, न कि मनमाने कानूनी प्रावधानों से। जाहिर है, धारा-66 ए का जो मनोवैज्ञानिक भय था, वह अब खत्म हो गया है और इस आधार पर यह कहा  जाना चाहिए कि यह फैसला साइबर क्षेत्र में विचारों के स्वच्छंद और भयमुक्त आदान-प्रदान का नया दौर लाएगा। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) का उल्लंघन करने और अनुच्छेद 19 (2) द्वारा इसकी सुरक्षा न करने के आधार पर इसको रद्द कर दिया।

यह फैसला ठोस वैधानिक सिद्धांतों पर आधारित है, जिनको समय-समय पर शीर्ष अदालत ने अपना समर्थन दिया है। हालांकि, यह भी साफ है कि इस फैसले का असर कई हितधारकों पर पड़ेगा, जिनमें सामान्य इंटरनेट उपभोक्ता भी हैं और इंटरनेट पेशेवर भी।
पीड़ित के नजरिये से देखें, तो यह फैसला उनको कानूनी इलाज से दूर ले जाता है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि इंटरनेट के जरिये पीछा करने, सोशल मीडिया पर अभद्र टिप्पणी करने या तस्वीरें चस्पां कर सामाजिक उपद्रव फैलाने या साइबर दुनिया में किसी को अपमानित करने जैसे काम हमारे देश में काफी हो रहे हैं। मोबाइल वेब और वॉट्सअप जैसी ओवर द टॉप एप्लीकेशन्स के आगमन ने साइबर अपराधियों के लिए और भी उर्वर  जमीन तैयार कर दी है, जिससे उनके लिए गैर-कानूनी और आपराधिक कृत्यों को अंजाम देना और आसान हो गया है। ऐसी स्थितियों में धारा-66 ए के तहत जो समाधान उन्हें मिलता था और जिससे प्रभावित लोगों को कुछ राहत मिल जाती थी, वह अब खत्म हो गई है। साइबर अपराधी और कुछ स्वार्थी तत्व इसलिए खुश होंगे, क्योंकि अब उनके सिर पर धारा-66 ए की तलवार नहीं लटक रही है।

इस फैसले से धारा-66 ए (सी) के हिस्से के तौर पर स्पैम के विनियमन से संबंधित प्रावधान भी रद्द हो गया है। इसे इस तथ्य के आलोक में देखा जाना चाहिए कि भारत दुनिया के स्पैम उत्पादन करने वाले शीर्ष देशों में शामिल है और भारत के पास कोई स्पैम लॉ नहीं है। साइबर क्षेत्र में किसी को डराने-धमकाने की करतूत भी भारत में तेजी से फैल रही है। इसमें इजाफे की आशंका बढ़ी है, क्योंकि इंटरनेट पर अफवाहों के सौदागरों के सामने भी धारा-66 ए की दीवार अब नहीं होगी। इस लिहाज से कानून पालन करने वाली संस्थाओं को इनके नियमन के दौरान कई बड़ी मुश्किलें आने की आशंका है।

बहरहाल, इस फैसले में सभी तरह के इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के लिए दस सीखें हैं। पहली, इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की आजादी अटल है, सिर्फ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत जो सांविधानिक रोक है, वही इस पर लागू होगी । दूसरी, मनमाने और अस्पष्ट सरकारी प्रावधान बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी की बेड़ियां नहीं बन सकते। तीसरी, कानूनी प्रावधानों में अस्पष्टता के किसी भी तथ्य को, जो इसे दुरुपयोग के लिए उत्तरदायी बताए, कानून द्वारा समर्थन नहीं दिया जा सकता। चौथी, सूचना का अधिकार महत्वपूर्ण है और इसे किसी भी तरीके से कमतर नहीं किया जा सकता। पांचवीं, यह फैसला उन सबके लिए राहत की सांस लेकर आया है, जिनके खिलाफ आईटी ऐक्ट की धारा-66 ए के तहत अभियोग चल रहा था। छठी, साइबर स्टॉकिंग, साइबर उपद्रव, साइबर शोषण, साइबर अवमानना और स्पैम जैसे आपराधिक मामलों से निपटने में कानून का पालन कराने वाली एजेंसियों की परेशानियां बढ़ जाएंगी। सातवीं, डिजिटल व्यवस्था में अनीतिपूर्ण हमलों से निशाना बनाते लोगों के खिलाफ मामला बनाने की गुंजाइश बेहद कम हो जाएगी। आठवीं, यह फैसला सरकार के लिए चेतावनी है कि वह ऐसा कोई कानून न बनाए, जो हमारे संविधान के स्थापित सिद्धांतों के मूल ढांचे के खिलाफ है। नौवीं, साइबर कानून के तहत इंटरमीडियरी लाइबिलिटी के सिद्धांत को रखा गया है। इसलिए भारत में सभी मध्यस्थों के वैधानिक दायित्व को जगाने व वैधानिक सम्मति को सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। और दसवीं सीख यह है कि तकनीकी तरक्की को देखते हुए अब निगाहें सरकार पर जा टिकी हैं कि वह साइबर कानून में संशोधन लाए, ताकि यह समय की जरूरत के हिसाब से अधिक व्यावहारिक और प्रासंगिक बने।

साफ है, सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला सरकार को आवश्यक प्रोत्साहन प्रदान करेगा, ताकि वह उस साइबर कानून की तरफ फिर से गौर करे, जो 15 साल पहले बना था और साल 2008 में उसमें संशोधन हुआ था। यह भी सच है कि साल 2015 की जमीनी सच्चाई 2008 से पूरी तरह अलग है, जब आईटी ऐक्ट 2000 में संशोधन पास हुआ था।

इन सबे बीच यह भी हमें ध्यान में रखना होगा कि कोई भी साइबर कानून पूर्ण नहीं हो सकता। प्रत्येक प्रौद्योगिकी कानून को निरंतर परिशोधन से गुजरना चाहिए, ताकि वह तकनीक इस्तेमाल करने वालों और समाज की बदलती इच्छाओं के साथ तालमेल बना और बैठा सके। इसलिए वे सभी प्रयास किए जाने चाहिए, जो भारतीय साइबर  कानून को मजबूत बनाए, ताकि अपने देश में ई-कॉमर्स और मोबाइल कॉमर्स के विकास की ठोस बुनियाद रखी जा सके। हम वाकई एक तेजी से बदलते दिलचस्प दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे में, भारतीय साइबर कानून के क्षेत्र में भविष्य के सुधारों पर सबकी गहरी नजर रहेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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