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अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी

अगर अकल पर न पड़ा हो,  तो इन दिनों कोहरा बुरा नहीं लगता। यह तो मौसम का वार्षिकोत्सव है। हवाई सेवा के रद्द होने और रेलगाड़ियों के घंटों लेट होने के दिन हैं। जिसे इन दिनों कुछ नहीं सूझता,  वह...

अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 12 Dec 2014 08:34 PM
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अगर अकल पर न पड़ा हो,  तो इन दिनों कोहरा बुरा नहीं लगता। यह तो मौसम का वार्षिकोत्सव है। हवाई सेवा के रद्द होने और रेलगाड़ियों के घंटों लेट होने के दिन हैं। जिसे इन दिनों कुछ नहीं सूझता,  वह मोदी जी से सलाह ले। उन्हें तो सूझने के सिवा कुछ नहीं सूझता। कांग्रेसियों को तो सुना कि इस बार अलाव तक नहीं सूझोंगे। नेताओं को इन दिनों फरवरी के बाद की दिल्ली सूझ रही है। मैंने पत्नी से पूछा- अजी,  कहां हो?  आवाज आई- यहीं तो हूं तुम्हारी बगल में। मैंने कहा- हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा। वह बोली- इस उमर में इसकी क्या जरूरत है?  कोहरा न भी होता, तो क्या कर लेते?  अचानक मुझे लगा,  मैं प्राइवेट हो रहा हूं। मुझे कुदरती होना चाहिए। मैंने सुदामा जी से पूछा- कहिए मान्यवर,  कैसी कट रही है?  वह बोले- कुछ सूझ नहीं रहा है। जब से कृष्ण मुझे द्वारिकाधीश बनाकर जंगल चले गए हैं,  तब से शंख बजाने से फुर्सत नहीं।

मैंने पूछा-  तो आजकल द्वारिकाधीश हैं आप?  बोले- कोई शक है तुम्हें। सोलह हजार रानियों से पूछ लो। कोहरे में सूझना या अंधेरे में सूझना एक ऐसी कूटनीति है कि पता नहीं चलता कि सूझ कौन रहा है?  क्यूं सूझ रहा है? क्या सूझ रहा है?  सूझ नैतिक है या अनैतिक?  मोदी जी की एक ही सूझ क्यूं है?  सूझ हर्राफा है या पतिव्रता? ये लोग सूझ रहे हैं या बूझ भी रहे हैं?  सूझ और बूझ क्या आपस में समधी हो गए हैं?  भारतीय सूझ-बूझ का प्रश्न इतना जटिल है कि संयुक्त राष्ट्र संघ तक इससे परहेज करता है। सूझ सिर्फ राजनीतिक होती है। सर्दी से कांपते आदमी को आग के अलावा कुछ नहीं सूझता। मुझ जैसे दीन-हीन कवि को कोहरे में निठल्लापन ही सूझता है। उदाहरण के लिए- बढ़ रहा जाड़ा इधर/ अब सर्द हैं पलछिन/ लौट आए कंबलों और स्वेटरों के दिन/ नए हीटर और ब्लोअर राजभवनों में लगे/ दांत किट-किट कर रहे लेकिन गरीबों के/ कोट,  मफलर,  शॉल,  टोपी, रजाई वाले/ यही सपने रह गए हम बदनसीबों के। कोहरे में आप भी या तो रद्द हो जाइए या घंटों लेट रहिए। कुछ न सूझे,  तो कांग्रेस हो जाइए।

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