हिमालय को योजनाएं नहीं नीति चाहिए
भूमि अधिग्रहण कानून पर संसद के भीतर बहस जारी है और उसके बाहर आंदोलन। किसानों और उनकी जमीन की यह चिंता वाजिब हो सकती है। हिमालय के पर्वतीय भू-भाग की ऐसी चिंताएं देश की मुख्यधारा की बहस में कभी नहीं...
भूमि अधिग्रहण कानून पर संसद के भीतर बहस जारी है और उसके बाहर आंदोलन। किसानों और उनकी जमीन की यह चिंता वाजिब हो सकती है। हिमालय के पर्वतीय भू-भाग की ऐसी चिंताएं देश की मुख्यधारा की बहस में कभी नहीं आतीं, जबकि हिमालय की समस्याएं भी सीधे देश के ज्यादातर किसानों से जुड़ी हैं। भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 प्रतिशत क्षेत्र में फैले हिमालयी क्षेत्र को समृद्ध जल टैंक के रूप में माना जाता है। इसमें 45.2 प्रतिशत भू-भाग में घने जंगल हैं। हिमालय के भारतीय हिस्से में 11 छोटे राज्य हैं, जहां से सांसदों की कुल संख्या 36 है। अगर इसमें उन राज्यों को भी जोड़ लें, जो हिमालय के पर्यावरण से सीधे प्रभावित होते हैं, तो यह संख्या काफी बड़ी हो जाती है। इसके बावजूद, हिमालय के सवाल संसद में बहुत ज्यादा नहीं गूंजते। हालांकि, हिमालय को सिर्फभारत के नहीं, पूरी दुनिया के संदर्भ में देखने की जरूरत है।
सरकार को पांचवीं पंचवर्षीय योजना में हिमालयी क्षेत्रों के विकास की याद आई थी। तब हिल एरिया डेवलपमेंट के नाम से योजना चलाई गई थी, पर दिक्कत यह थी कि उसमें विकास के मानक मैदानी थे। यह समस्या अब भी बनी हुई है। इस बीच, प्राकृतिक संसाधन लोगों के हाथ से खिसक रहे हैं। नदियों की जलराशि पिछले 50 वर्षों में आधी हो गई है। हिमालयी ग्लेशियर प्रति वर्ष 18-20 मीटर पीछे हट रहे हैं। दूसरी ओर, हिमालय आपदाओं का घर बनता जा रहा है। जल विद्युत परियोजनाओं से लेकर सड़कों को चौड़ा बनाने व तेजी से बढ़ता पर्यटकों का आवागमन। बाढ़-भूस्खलन जैसी आपदाएं तो आ ही रही हैं, साथ ही भूकंप के खतरे भी बढ़ रहे हैं।
पिछले दिनों एक अच्छी चीज यह हुई कि केंद्र सरकार गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए काफी उत्साहित दिखी है। लेकिन मैदानी क्षेत्रों को मिट्टी, पानी, हवा प्रदान करने वाले हिमालय के बिना गंगा का अस्तित्व संभव नहीं है। ग्लेशियरों, पर्वतों, नदियों, जैविक विविधताओं की दृष्टि से संपन्न हिमालय पर इनके लिए जो ध्यान दिया जाना चाहिए, वह नहीं दिखाई दिया। गंगा बचाओ का नारा हिमालय बचाओ के बिना अधूरा है, पर इन दोनों को जोड़ने की कोशिश नहीं हो रही। यह सोच कहीं नहीं सामने आ रही कि यदि हिमालय पर गंगा की कई समस्याएं सुलझा ली जाएं, तो मैदानी क्षेत्र में इसकी आधी समस्याएं अपने आप खत्म हो जाएंगी।
इस बीच देश ने योजनाएं बनाने वाले योजना आयोग को खत्म करके नीति आयोग बना दिया है। यही जरूरत एक तरह से हिमालय की भी है। उसे योजनाएं नहीं, एक समग्र नीति चाहिए। हमारी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि कोई समग्र हिमालय नीति नहीं है। ऐसी नीति, जो हिमालय व उससे जुड़े देश के पर्यावरण के बारे में तो सोचे, साथ ही हिमालय क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समृद्धि का रास्ता भी इसी पर्यावरण से जोड़कर निकाले।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)