फोटो गैलरी

Hindi Newsकार्यपालिका का संयमित मार्गदर्शन

कार्यपालिका का संयमित मार्गदर्शन

बीते बुधवार को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसका मुख्य मुद्दा यह था कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को मंत्रिमंडल के सदस्य चुनने का पूर्ण अधिकार है, लेकिन इस अधिकार...

कार्यपालिका का संयमित मार्गदर्शन
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 28 Aug 2014 08:53 PM
ऐप पर पढ़ें

बीते बुधवार को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसका मुख्य मुद्दा यह था कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को मंत्रिमंडल के सदस्य चुनने का पूर्ण अधिकार है, लेकिन इस अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए उनको कुछ सांविधानिक मर्यादाओं का निर्वाह करना चाहिए। यह जनहित याचिका साल 2005 में ही दायर हुई थी, जिसमें मांग की गई थी कि लालू प्रसाद यादव, मोहम्मद तस्लीमुद्दीन, एमएए फातमी और जय प्रकाश यादव को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाया जाए, क्योंकि उनके विरुद्ध आपराधिक मामले चल रहे थे। साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट के खंडपीठ ने यह निर्णय किया कि चूंकि इसमें बहुत गहरे सांविधानिक बिंदु हैं, इसलिए यह मामला पांच जजों के संविधान पीठ को सुनना चाहिए। कल का फैसला इसी पीठ का था। कानूनी मुद्दा यह था कि क्या संविधान के अनुच्छेद 75 (1) में, जो प्रधानमंत्री को यह अधिकार देता है कि वह राष्ट्रपति को केंद्रीय मंत्रिमंडल में नियुक्तियां करने के लिए नामों की सलाह दें, कुछ सीमाएं होनी चाहिए या नहीं? सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों ने तीन अलग-अलग निर्णय लिए। मुख्य निर्णय न्यायाधीश दीपक मिश्र ने प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा, न्यायाधीश एसए बोबडे और अपने लिए लिखा; न्यायाधीश मदन बी लोकूर और कुरियन जोसेफ ने अपने अलग-अलग निर्णय लिए।

मुख्य निर्णय के निष्कर्ष के पैराग्राफ 86 में न्यायाधीश दीपक मिश्र ने लिखा कि ‘हालांकि, अनुच्छेद 75(1) में मंत्री बनने से जुड़ी कोई अयोग्यता नहीं जोड़ी जा सकती, लेकिन प्रधानमंत्री को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि जो शपथ वह लेते हैं, जो भरोसा प्रधानमंत्री में संविधान और संविधान के जरिये देश की जनता रखती है, उसको मद्देनजर रखते हुए वह ऐसे किसी व्यक्ति को मंत्रिमंडल में न लें, जिसके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हों या जिसके विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप हों।’ इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के शब्दों को यहां लिखना अनिवार्य है- ‘संविधान इस बात का संकेत देता है और प्रधानमंत्री से यही सांविधानिक अपेक्षा की जाती है। इसके आगे सब कुछ प्रधानमंत्री के विवेक पर छोड़ना पड़ेगा। हम इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सकते हैं और इससे कुछ कम कहना भी नहीं चाहते।’ इस मुख्य निर्णय से अपनी सहमति प्रकट करते हुए न्यायाधीश मदन बी लोकूर ने अपने स्वतंत्र फैसले के पैराग्राफ 40 में 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में भीमराव अंबेडकर के दिए हुए भाषण का उल्लेख किया है।

उस भाषण में अंबेडकर ने कहा था, ‘मैं समझता हूं कि एक संविधान चाहे कितना भी अच्छा हो, वह खराब निकलेगा, अगर उसको चलाने वाले ठीक नहीं होंगे। एक संविधान कितना भी खराब हो, अगर उसको चलाने वाले अच्छे निकलें, तो वह बहुत अच्छा साबित हो सकता है। संविधान कैसे काम करता है, यह केवल संविधान पर निर्भर नहीं है। संविधान प्रशासन का स्तंभ बन सकता है, जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, ये स्तंभ कैसे काम करते हैं, इनको चलाने वाले लोगों और राजनीतिक दलों पर निर्भर है।.. इसलिए भारत की जनता और उनके राजनीतिक दलों के बारे में कुछ जाने बगैर संविधान के भविष्य पर निर्णय करना निर्थक है।’ बाबा साहेब अंबेडकर के इन विचारों को न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने अपने स्वतंत्र निर्णय में भी लिखा है और बताया है कि यही बात न्यायाधीश दीपक मिश्र के मुख्य निर्णय के पैराग्राफ 70 में लिखी गई है।

आपराधिक मामलों में लिप्त व्यक्ति को मंत्रिमंडल में जगह दी जाए या नहीं, इस मुद्दे पर संविधान सभा में भी विस्तृत चर्चा हुई थी। संविधान सभा के सदस्य के टी शाह ने एक संशोधन प्रस्ताव रखा था, जिसमें कहा गया था कि यह संविधान में ही लिख देना चाहिए कि ऐसा कोई व्यक्ति मंत्रिमंडल में शामिल न किया जाए, जिसके विरुद्ध आपराधिक मामला चल रहा हो। उसके जवाब में भीमराव अंबेडकर ने 30 दिसंबर, 1948 को यह कहा कि ‘के टी शाह का अंतिम प्रस्ताव यह है कि उस किसी भी व्यक्ति को, जिसको सजा हो चुकी हो, मंत्री न बनाया जाए। मुझे इसमें कोई संशय नहीं कि यह बहुत अच्छा सुझाव है और इससे सभा के सभी सदस्य सहमत भी होंगे, क्योंकि उनके इरादे बड़े नेक हैं। लेकिन बड़ा मुद्दा यह है कि क्या ये सभी योग्यताएं और अयोग्यताएं संविधान में लिखना हमारे लिए जरूरी है? क्या ये काफी नहीं कि इसे देश के प्रधानमंत्री, देश की संसद और जनता पर, जो इन मंत्रियों के आचरण पर नजर रखेगी, छोड़ दें। मेरा यह ख्याल है कि हम यह मुद्दा प्रधानमंत्री और संसद की समझदारी और आम जनता की देखरेख पर छोड़ दें। इसलिए मैं समझता हूं कि इसे के टी शाह के प्रस्तावित संशोधनों की आवश्यकता नहीं है।’

यह तो थी संविधान सभा की चर्चा। जस्टिस मदन बी लोकूर ने अपने निर्णय में वर्तमान स्थिति का भी विवरण किया है। उन्होंने संसद की स्थायी समिति की 15 मार्च, 2007 की रिपोर्ट का एक हिस्सा अपने निर्णय में शामिल किया है- ‘समिति राजनीति के अपराधीकरण को लेकर बेहद चिंतित है और राजनीतिक प्रक्रिया से हमारा भरोसा उठता जा रहा है। यह निश्चित रूप से हमारे लोकतंत्र को कमजोर करेगा और लोकतांत्रिक संस्थानों को निष्क्रिय बनाएगा। इसलिए समिति यह महसूस करती है कि साबित आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों से राजनीति को साफ किया जाना चाहिए। इसका उद्देश्य यह है कि राजनीति के अपराधीकरण को रोका जाए और चुनावों में ईमानदारी बरती जाए। राजनीति का अपराधीकरण समाज पर धब्बा है और लोकतंत्र के प्रतिकूल है।’ देखा जाए, तो भीमराव अंबेडकर के विचार तीनों निर्णय में लिखे गए हैं। यह हमें बताता है कि सुप्रीम कोर्ट के संपूर्ण निर्णय का ये महत्वपूर्ण आधार हैं। संविधान सभा में कही गई बातों को वर्तमान स्थिति के साथ, जो कि संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में लिखी गई है, मिलाना होगा। न्यायपालिका ने संविधान को सबसे ऊपर मानते हुए कार्यपालिका का बहुत ही संयम से मार्गदर्शन किया है। आज, जबकि देश एक नए राजनीतिक दौर में प्रवेश कर चुका है, देश और समाज के हित में यही होगा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका कदम से कदम मिलाकर देश को उन्नति, समृद्धि और शांति के पथ पर अग्रसर करें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें