हम असभ्य और असहिष्णु नहीं
‘अंकल जी राम-राम’- अलस्सुबह जिंदगी की जद्दोजहद से जूझने की तैयारी में दौड़ लगाते वक्त एक अनजान नौजवान ने मुझसे कहा। मैं अवाक। कंकरीट के इस महाजंगल में अपने तक तो मुस्कराते नहीं, फिर एक...
‘अंकल जी राम-राम’- अलस्सुबह जिंदगी की जद्दोजहद से जूझने की तैयारी में दौड़ लगाते वक्त एक अनजान नौजवान ने मुझसे कहा। मैं अवाक। कंकरीट के इस महाजंगल में अपने तक तो मुस्कराते नहीं, फिर एक अजनबी भला क्यों मुझे ‘राम-राम’ कह रहा है! लगा, गांव में लौट गया हूं। वहां आज भी राह चलते लोग एक-दूसरे के अभिवादन में संकोच नहीं करते। महानगरों में इसका उलटा है। वे लंबाई-चौड़ाई में कितने भी बड़े क्यों न हो जाएं, पर आचार-व्यवहार में हर रोज संकुचित होते जा रहे हैं। उस नवयुवक की आंखों की चमक, चेहरे की मुस्कान और राम-राम दिन भर मन को मिठास से मथते रहे, मगर ऐसे एहसासों के पर नहीं होते।
उसी शाम सारी खुशी काफूर हो गई। ‘प्राइम टाइम’ में लगभग हर खबरिया हिंदी चैनल ने ‘वॉट्सअप’ पर वायरल एक वीडियो दिखाना शुरू कर दिया। इसमें उत्तर प्रदेश में हाथरस के पास राष्ट्रीय राजमार्ग-93 पर कुछ लड़के एक जोड़े को पीट रहे थे। पिटने वाले जोर-जोर से गुहार लगा रहे थे- ‘छोड़ दो, अब ऐसा नहीं करेंगे।’ पर पीटने वाले जुटे पड़े थे। अपने खबरिया चैनलों को तो आप जानते ही हैं! किसी ने उन्हें ‘तालिबान’ कहा, तो किसी ने ‘एनएच-93 के गुंडे।’ उन्होंने यह पता करने की कोशिश नहीं की कि विवाद क्या था?
कुछ लोग कह सकते हैं कि विवाद कैसा भी हो, पर ऐसी हिंसा अनुचित है। बिल्कुल सही। सभ्य समाज में हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं, परंतु मारपीट करने वालों को ‘तालिबान’ अथवा ‘गुंडे’ की उपाधि दे देना और समूचे इलाके को अराजक बता देना भी कहां तक उचित है? संयोग से मेरी मां इसी क्षेत्र की हैं। मेरा लालन-पालन भले ही पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुआ हो, पर बचपन से युवावस्था तक अक्सर अलीगढ़ जाना होता रहा। उन दिनों हाथरस जिला नहीं बना था और यह क्षेत्र अलीगढ़ में ही आता था। मैं जब भी वहां के ग्रामीण अंचल को देखता, तो अंतर महसूस करता। पूर्वी उत्तर प्रदेश में सवर्ण हल नहीं चलाते थे और न ही उनके घरों की महिलाएं खेतों में काम करतीं। इसके उलट पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हमारे रिश्तेदार खेतों में हल चलाते, फसलों को पानी देते और उन्हें बच्चों की भांति पोसते।
घरों की लड़कियां नि:संकोच उनका हाथ बंटातीं और महिलाएं उन्हें कलेवा पहुंचाकर आह्लाद महसूस करतीं। अपने कर्म के प्रति संपूर्ण समर्पण और उससे उत्पन्न होने वाला आह्लाद मेरे बालमन ने वहीं महसूस किया था। ऐसा नहीं है कि तब बलात्कार नहीं होते थे, पर हमारे पूर्वज कभी खुद को बलात्कारियों के देश में जन्मा हुआ नहीं मानते। वे हादसों को हादसे की तरह लेते और उनके दोहराव को रोकने की कवायद में जुट जाते। ऐसी घटनाओं के मुखौटे बनाकर आज भारत की छवि बिगाड़ने की कोशिश हो रही है। यह सच है कि शर्मनाक घटनाएं लगातार घट रही हैं, पर क्या यह भारत का अकेला सत्य है?
अफसोस! परंपरागत और सोशल मीडिया इसे सनसनीखेज बनाकर इन छिटपुट चिनगारियों को दावानल बनाने में मदद कर रहा है। गुजरे हफ्ते की एक और घटना इस तर्क को पुख्ता करती है। पश्चिम बंगाल के नादिया जिले में चर्च की एक नन के साथ बलात्कार हुआ। कहते हैं कि आततायियों ने इस उपासना स्थल में दाखिल होकर सबसे पहले सारी ननों को इकट्ठा किया और फिर उनसे पूछा कि तुम में से सर्वाधिक उम्रदराज कौन है? जब उन्हें पता चला कि सबसे ज्यादा आयु की नन 71 वर्ष की हैं, तो उन्होंने अपने अमर्यादित आचरण के लिए उसी का चुनाव किया। इस घिनौनी हरकत ने समूची दुनिया में हलचल मचा दी। भारत विरोधियों को कहने का मौका मिल गया कि भारत बलात्कारियों का देश है और अल्पसंख्यकों को जान-बूझकर निशाना बनाया जा रहा है। सवाल उठता है, मानसिक रूप से विकृत कुछ लोगों की करनी का दंड देश के 121 करोड़ लोगों को क्यों भोगने को मिले?
कभी नाजीवाद के गढ़ रहे जर्मनी से पिछले दिनों स्तब्ध कर देने वाली खबर आई। यह घटना साबित करती है कि इस दुष्प्रचार की वजह से भारतीय नौजवानों को विदेश में जीवन-यापन करने में दिक्कतें आने लगी हैं। हुआ यह कि एक भारतीय शोध-छात्र ने वहां की लिप्जिग यूनिवर्सिटी में इंटर्नशिप करने का आवेदन किया, पर संबंधित प्रोफेसर ने उसकी अर्जी खारिज कर दी। वजह? उन्हें लगता था कि भारतीय ‘बलात्कारी’ होते हैं। बाद में, जब जर्मनी पर भेदभाव के आरोप लगने लगे, तो प्रोफेसर साहिबा ने अपना आरोप वापस ले लिया। ऐसे और कई वाकये हैं। लोग वाकई भारतीयों को ‘बेहूदा’ मानने लगे हैं।
एक और उदाहरण देता हूं। बहुत दिन नहीं हुए, अमेरिका का एक सीसीटीवी फुटेज वायरल हुआ था। वृद्ध गुजराती सज्जन अपने पुत्र के घर के पास चहलकदमी कर रहे थे। उनके पास दो पुलिस वाले आए और उन्होंने कुछ पूछताछ की। बुजुर्गवार अंग्रेजी नहीं जानते थे। उन्होंने मासूमियत से अपने बेटे के आवास की ओर इशारा कर बताने की कोशिश की कि हम वहां रहते हैं। यदि कोई पूछताछ करनी है, तो आप मेरे साथ चल सकते हैं, पर सशंकित पुलिस वालों ने उन्हें जमीन पर दे पटका। इस शारीरिक और मानसिक आघात से उन्हें लकवा मार गया। मतलब साफ है। भारतीय अपने प्रति सम्मान का भाव खोते जा रहे हैं। क्या हम वाकई ‘बलात्कारी’, ‘बिगड़ैल’ और ‘असहिष्णु’ हैं? यकीनन नहीं।
बता दूं। खुद को सर्वाधिक सभ्य बताने वाले अमेरिका में बलात्कार की सबसे ज्यादा घटनाएं घटती हैं। 121 करोड़ की आबादी वाले हिन्दुस्तान में वर्ष 2011 के दौरान 24,206 बलात्कार की घटनाएं दर्ज की गई थीं, जबकि उसी साल महज 30 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका में बलात्कार की 83,424 रिपोर्ट दर्ज कराई गईं। अमेरिका में हर सातवें मिनट में एक स्त्री व्यभिचार का शिकार बनती है, जबकि भारत में यह आंकड़ा ‘20 मिनट में एक’ बताया जाता है। अब आप ही बताइए, कौन ज्यादा असभ्य और असहिष्णु है? मैं यहां हरविंदर सिंह की प्रशंसा करना चाहूंगा। उन्होंने पश्चिम की अहं बोध वाली मानसिकता को करारा जवाब दिया है। आपको याद होगा, बीबीसी की लेस्ली उडविन ने ‘इंडियाज डॉटर्स’ फिल्म बनाई थी। इससे हमारी खासी किरकिरी हुई थी। जवाब में दिल्ली के इस व्यापारी ने 28 मिनट की फिल्म बनाई- ‘युनाइटेड किंगडम्स डॉटर्स।’ हरविंदर सिंह का दावा है कि कारोबारी होने के नाते वह दुनिया भर में घूमते रहे हैं और उन्हें ब्रिटेन की बलात्कार से जुड़ी समस्या के बारे में काफी कुछ मालूमात है।
नौ मार्च को अपलोड की गई हरविंदर की फिल्म को 13 मार्च की शाम तक करीब 90 हजार लोगों ने देख लिया था। यह फिल्म बताती है कि बीबीसी दूसरे देशों पर फिल्म बना रही है, जबकि बलात्कार की सर्वाधिक घटनाओं वाले मुल्कों की सूची में ब्रिटेन खुद पांचवें नंबर पर है। मैं नस्लवादी नहीं, पर क्या यह पश्चिमी देशों का नस्लवाद नहीं कि वे अपनी करनी पर परदा डालने के लिए हमारी पारंपरिक मर्यादा की किरकिरी कर रहे हैं? भारतीयों में कई कमियां हैं, पर हम बलात्कारी और असहिष्णु हैं, यह सरासर गलत है। हमें इस अभियान का विरोध करना चाहिए।