फोटो गैलरी

Hindi Newsपड़ोसी से पुरानी प्रीत के वास्ते

पड़ोसी से पुरानी प्रीत के वास्ते

मैं काठमांडू से सटे ललितपुर के ढोकायमा रेस्टोरेंट में एक मित्र का इंतजार कर रहा था। मौसम और कैलेंडर के अनुसार मानसून को उस समय चरम पर होना चाहिए था, पर उत्तर भारतीय मैदानों की मानिंद नेपाल की वह घाटी...

पड़ोसी से पुरानी प्रीत के वास्ते
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 02 Aug 2014 09:58 PM
ऐप पर पढ़ें

मैं काठमांडू से सटे ललितपुर के ढोकायमा रेस्टोरेंट में एक मित्र का इंतजार कर रहा था। मौसम और कैलेंडर के अनुसार मानसून को उस समय चरम पर होना चाहिए था, पर उत्तर भारतीय मैदानों की मानिंद नेपाल की वह घाटी सूखी पड़ी थी। हवा में कुछ नरमी-गरमी महसूस हुई, पर माहौल ऐसा कि दालान में मौजूद पेड़ के नीचे बिछी कुरसी-टेबिल पर कब्जा जमाया जा सकता था। संयोग से मित्र ने उसे पहले से बुक करा रखा था। प्रतीक्षा के दौरान दिमाग में आया कि इस सायंकालीन चर्चा का मुद्दा भारत-नेपाल रिश्तों को ही रखते हैं। वे भी तो इस फिजां की तरह नरम-गरम चलते रहते हैं।

कौन हैं मेरे दोस्त? वह हैं नेपाल के प्रमुख पत्रकार कनक मणि दीक्षित। भारत और अमेरिका में पढ़े कनक समसामयिक विषयों की गहरी जानकारी रखते हैं। कभी हम इस्तांबुल में मिले थे। तभी तय हुआ था कि मैं जब नेपाल जाऊंगा, तो उनसे मिलूंगा और यदि वह भारत आए, तो मुझे फोन अवश्य करेंगे। गुजरे छह-सात साल में क्या वह भारत नहीं आए? मालूम नहीं, पर इस दौरान यह मेरी पहली नेपाल यात्रा थी। वायदे के अनुसार मैं उनका इंतजार कर रहा था। उन्हें वहां पहुंचने में थोड़ी देर लग रही थी। मन में सवाल उभरा कि क्या नेपाल में भी ‘इंडियन टाइम’ यानी अपने हिसाब से पहुंचने का रिवाज है? शुक्र है, मेरे धैर्य को लंबी परीक्षा नहीं देनी पड़ी।

हम गर्मजोशी से मिले और अगले कुछ घंटे बौद्धिक चर्चा के थे। कनक खुद को कान्यकुब्ज ब्राह्मण बताते हैं। उनके पूर्वज वाराणसी स्थित रामकटोरा में कुंड के किनारे यज्ञशाला चलाते थे। इसी दौरान वह नेपाल के सत्ता प्रतिष्ठान के नजदीक आए और ललितपुर आ बसे। उस लंबी बातचीत में एक बार फिर महसूस हुआ कि करोड़ों हिन्दुस्तानी और नेपालियों की भांति हमारे अतीत, विचार, संस्कार और सोच में काफी समानताएं हैं। पिछले कुछ दशकों में इन सनातन रिश्तों पर कूटनीति और सत्तानायकों की निजी महत्वाकांक्षाओं की बर्फ जम गई है। इसे दूर किया जाना चाहिए।

इस मुलाकात से पहले और बाद में कई राजनेताओं और उन भारतीयों से मिला, जो वहां तिजारत करते हैं। सबका मानना था कि नेपाल के विकास में नई दिल्ली महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। पिछले तीन-चार दशकों में दोनों देशों में कुछ दूरियां पनपनी शुरू हुईं, जो बढ़ती गईं। प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने खुद वहां जाकर इन चौड़ी होती दरारों को पाटने की कोशिश की, पर उनकी सरकार अपाहिज थी। वह जैसे बेदखल होने के लिए ही सत्ता में आए थे।

बाद में अटल बिहारी वाजपेयी भी सार्क सम्मेलन में शामिल होने के लिए वहां गए थे। आज से शुरू होने वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दो दिवसीय काठमांडू यात्रा कई मायनों में महत्वपूर्ण है। नेपाल में इसे कैसे लिया जा रहा है, इसका अंदाज सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री सुशील कोइराला प्रोटोकॉल के तमाम जंजाल तोड़कर हवाई अड्डे पर खुद उनकी अगवानी करेंगे।

अगर आप नेपाल जाते रहे हैं, तो तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों से आपका सामना हुआ होगा। राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह देव के समय के दो अनुभव आपसे साझा करना चाहता हूं। हम ‘दरबार’ के पास से गुजर रहे थे। मैंने अपने साथी से कहा कि अरे, इसका स्थापत्य तो हमारे पहाड़ी महलों से मिलता है। टैक्सी चालक ने हम लोगों की बातचीत पर ही कान लगा रखे थे। उसने तल्ख टिप्पणी की कि नकल मारने में तो आप हिन्दुस्तानी लोग उस्ताद हो। नेपाली किसी का अनुसरण नहीं करते। इस घटना के कुछ साल बाद बीरगंज में था। वहां के एक कपड़ा विक्रेता ने बेवजह तंज कसा कि हम नेपालियों में राष्ट्रीयता की भावना आप हिन्दुस्तानियों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। यही वह दौर था, जब नेपाल नरेश ने चीन को अपने देश में दखल का मौका दिया और रह-रहकर भारत को चिढ़ाया। उन दिनों हुकूमत की सोच से प्रेरित नेपाली मीडिया के तीखे बोल किस तरह सदियों से सांस्कृतिक सहोदर रहे हम पड़ोसियों के मन में कड़वाहट घोल रहे थे, इसके लिए ये दो उदाहरण काफी हैं।

पिछले कुछ साल में नेपाल राजनीतिक उथल-पुथल का शिकार रहा है। पहले नेपाल के राजघराने का सफाया हुआ और बाद में माओवादियों का सत्ता पर कब्जा हो गया। राजशाही खत्म कर दी गई और साथ ही संसार का अकेला हिंदू राष्ट्र भी इतिहास की विषय-वस्तु बन गया। लोकतंत्र अभी तक इस नए उभरे सेक्युलर देश में जड़ें नहीं जमा सका है। मैं जब काठमांडू, भक्तपुर और ललितपुर की सड़कें नाप रहा था, तब वहां बहस पुरगर्म थी कि संविधान किस तरह का होना चाहिए? हमारे उत्तराखंड की तरह वहां भी पहाड़ बनाम तराई जैसे मुद्दे हैं और कबीलों की टकराहट की अंतरध्वनियां भी। जाहिर है, बुरी तरह से पिछड़े इस मुल्क को एक स्थायी संविधान और शासन तंत्र की जरूरत है, जो इसे शून्य के समीप सहमी पड़ी विकास-दर से मुक्ति दिला सके। भारत इसमें बड़ी भूमिका अदा कर सकता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि वहां ज्यादातर लोग चीन की बजाय भारत को धार्मिक एवं सांस्कृतिक तौर पर खुद के करीब पाते हैं।

इस तथ्य से वाकिफ चीन रिश्तों की इस ऐतिहासिक प्रगाढ़ता पर लगातार प्रहार कर रहा है। हिन्दुस्तान अभी तक नेपाल में सबसे बड़ा विदेशी निवेशक है। वहां पांच सौ से अधिक भारतीय कंपनियां निवेश कर रही हैं। उनका प्रत्यक्ष निवेश 42.5 अरब का आंकड़ा पार कर चुका है, जो वहां के कुल विदेशी निवेश का 47.5 प्रतिशत है। अभी तक कुल निवेश के मामले में चीन हमसे पीछे है, पर उसकी 575 कंपनियां अब भारत की 566 कंपनियों से आगे निकलने की कोशिश कर रही हैं। यह तो थी आर्थिक मोर्चे की बात। कुछ सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि यदि नेपाल को हमने हाथ से जाने दिया, तो चीन कभी भी उसकी सड़कों का उपयोग हम पर आक्रमण के लिए कर सकता है।

नई दिल्ली की मौजूदा हुकूमत ने सत्ता संभालने से पहले ही सार्क देशों से रिश्ते सुधारने के प्रयास शुरू कर दिए थे। इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तीन दिन के दौरे पर काठमांडू गईं। उन्हें ‘उम्मीद से बेहतर’ आवभगत हासिल हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस आधिकारिक यात्रा से दोनों देशों के बीच सहमतियों के तमाम तंतु विकसित हो सकते हैं। ऐसा सिर्फ चीन से प्रतिद्वंद्विता के लिए नहीं, बल्कि उन करोड़ों लोगों की भावनाओं के लिए आवश्यक है, जो मानते हैं कि हम समान संस्कृति की संतानें हैं। वक्त का तकाजा भी यही है।

 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें