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अब रुकेंगी नहीं औरतें

होली के रंगीन मौके पर भारतीय मीडिया रंगों से नहीं,  बल्कि कालिख से सना हुआ था। ‘निर्भया’ का जिन्न एक बार फिर बोतल से निकलकर हम हिन्दुस्तानियों को बौनेपन का एहसास करा रहा था। ऐसा...

अब रुकेंगी नहीं औरतें
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 07 Mar 2015 09:10 PM
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होली के रंगीन मौके पर भारतीय मीडिया रंगों से नहीं,  बल्कि कालिख से सना हुआ था। ‘निर्भया’ का जिन्न एक बार फिर बोतल से निकलकर हम हिन्दुस्तानियों को बौनेपन का एहसास करा रहा था।
ऐसा नहीं होना चाहिए था,  पर हुआ। क्यों?
इस किस्से से आप सभी वाकिफ हैं,  इसलिए बस इतना कहना चाहूंगा कि ‘निर्भया’ पर जुल्म ढाने वालों को फिल्म में दिखाकर बीबीसी ने कुछ लोगों की नजर में गुनाह कर दिया था। वे ऐसे उबल पड़े,  जैसे देश की संस्कृति पर सांघातिक आघात पहुंचाया गया है। बीबीसी की इस कोशिश को बलात्कारियों को प्रोत्साहन के तौर पर आरोपित किया गया और कइयों को इसमें कानून की अवहेलना होती मालूम पड़ी। इसके बरखिलाफ तमाम ऐसे भी थे, जिन्होंने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर घिसे-पिटे आर्तनाद को दोहराने की कोशिश की। यह एक अर्धसत्य को मनचाही आकृतियां ओढ़ाने की अप्रिय कोशिश है। कैसे? अक्सर सभाओं और सेमिनारों में यह सुनने को मिलता है कि मीडिया नकारात्मक खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता है। कुछ सुझावशास्त्री कहते हैं कि अगर अपराध की जगह सकारात्मक खबरें छापी जाएं, तो समाज कहां से कहां पहुंच जाएगा? मैं उन्हें विनम्रतापूर्वक याद दिलाता हूं कि अपराध का अखबारों से कोई रिश्ता नहीं है। जब द्रौपदी का चीरहरण किया जा रहा था, तब मीडिया का अस्तित्व लोगों के अनुमान से परे था। ऐसे उदाहरण हमारे भरे-पूरे इतिहास में वक्त-दर-वक्त बिखरे पड़े हैं।

भूलें नहीं। इस देश में गीता और रामायण शताब्दियों पहले रचे गए। महावीर और गौतम बुद्ध की वाणी ईसा के जन्मने से पहले से यहां प्रचलित रही है। कुरान और बाइबिल बाद में आए, पर इन्हें भी सह-अस्तित्ववादी हिन्दुस्तानियों ने पूरे मन से अपनाया। इन महान ग्रंथों की व्यापक स्वीकार्यता के बावजूद हजारों लोग ऐसे हैं, जो उपासना स्थलों में मत्था टेकते हैं और साथ ही गुनाहों में भी लिप्त रहते हैं। मामला मीडिया का नहीं, बल्कि इंसानी मन की अंधी सुरंगों में छिपे देव और दानवों का है। अब आते हैं आततायी के इंटरव्यू पर। पहली बात तो यह कि इस फिल्म में उन्हें महिमा-मंडित नहीं किया गया है। यह बलात्कार पर बनी फिल्म है,  जिसमें उनका इस्तेमाल किया गया है। उनके घटिया विचार, उनकी जहरीली मानसिकता को दर्शाते हैं। ये मौजूदा युग के खलनायक हैं। इनकी करनी का मर्म जानने के लिए इनके विचारों को जानना भी जरूरी है। खुद मैंने जब इस खबर को पढ़ा, तो मुझे लगा कि इन वहशियों को जिंदा रहने का हक नहीं है। साथ ही ख्याल आया कि क्यों नहीं हम अपनी न्याय-प्रक्रिया को ऐसा बनाते कि इन जैसे लोगों को इंसाफ की दहलीज पर बिना किसी देर के लाया जा सके? विलंब से मिला न्याय, न्याय नहीं रह जाता।

मैं अकेला ऐसा नहीं सोच रहा। ‘निर्भया’ के माता-पिता भी इसी मत के हैं। उन्होंने जोरदार अपील की कि हर भारतवासी को इस फिल्म को देखना चाहिए, ताकि वे समझ सकें कि हमारे बीच कैसे दरिंदे पल रहे हैं! मैं यहां जावेद अख्तर की भी तारीफ करना चाहूंगा। उन्होंने राज्यसभा में कहा कि इस फिल्म पर प्रतिबंध लगाया जाना ठीक नहीं है। इसमें जो भाषा प्रयुक्त की गई है,  उससे कहीं अधिक स्तरहीन संवाद तो मैं सदन में सुन चुका हूं। और तो और, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून के प्रवक्ता तक ने कहा कि मून इस फिल्म को देखकर सिर्फ इतना ही कह सके- अकथनीय। वाकई बलात्कार की पीड़ा शब्दातीत है और हमें इससे लड़ने के लिए इस दुष्कृत्य के पीछे के राक्षसी विचार को समझना होगा। यह वैसे ही है, जैसे किसी रोग से जूझने के लिए उसके कारणों और लक्षणों को जानना जरूरी होता है। हाय-तौबा मचाने वाले भूल गए कि बलात्कार भी एक मनोरोग है।

आप सोच रहे होंगे कि मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात कर रहा हूं। नहीं,  मेरा आशय महिलाओं के सम्मान से है। आज महिला दिवस है और हम सबका दायित्व है कि इस मुद्दे पर विचार करें। मैं यहां भावुक दलीलें नहीं देना चाहता, पर यह सच है कि ‘निर्भया’ कांड के बाद से जिन लोगों ने भी विदेश यात्रा की है, उन्हें शर्म के साथ सुनना पड़ा है कि भारत में बलात्कार बहुत होते हैं। क्या हम बलात्कारियों का देश हैं? यकीनन नहीं। हमारे पुरखों ने ही कहा था- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफला: क्रिया: यानी जहां स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवताओं का वास होता है, जहां उनका सम्मान नहीं होता, वहां के कर्म निष्फल होते हैं।

संचार और संवाद के इस युग में हिन्दुस्तान ऐसे बदनुमा दाग के साथ तरक्की की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता। बदलते वक्त ने महिलाओं को अपने पर हो रही ज्यादतियों के खिलाफ आगे आने के लिए प्रेरित किया है। नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, पिछले तीन सालों में औरतों पर हुए अत्याचारों में 27 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। आप सोचेंगे कि अगर आवाज उठाई जा रही है, तो फिर ऐसी बढ़ोतरी क्यों? जवाब साफ है- पहले ऐसी आवाजें या तो खुद-ब-खुद दब जातीं या दबा दी जाती थीं। जागृत लोग ही अपराध के खिलाफ अपनी आपत्ति दर्ज कराते हैं। केरल इसका उदाहरण है। यह देश का सबसे पढ़ा-लिखा सूबा है। यहां महिलाओं पर ज्यादती के सबसे ज्यादा मामले दर्ज होते हैं।

एक और बात। दुनिया की आधी आबादी को लेकर हमारे देश के लोगों को अपना नजरिया ठीक करना पड़ेगा। दो-तीन दिन पहले खबर पढ़ी थी कि मातृत्व सुरक्षा के मामले में भारत का रिकॉर्ड अपने से कहीं ज्यादा गरीब अफ्रीकी मुल्कों के मुकाबले बेहद खराब है। अगर हम माताओं को सुरक्षा कवच नहीं ओढ़ा सकते, तो फिर अपनी सामाजिक संरक्षा को कैसे फुलप्रूफ बना सकते हैं?  हालांकि, तस्वीर का एक उजला पहलू भी है। जहां पहली लोकसभा में महज 24 महिलाएं चुनकर आई थीं, वहीं 16वीं लोकसभा में सबसे अधिक 66 महिलाएं परचम फहरा रही हैं। इस वक्त पश्चिम बंगाल, गुजरात और राजस्थान में मुख्यमंत्री पद पर महिलाएं ही विराजमान हैं। साल 2014 में फोर्ब्स  की दुनिया की सबसे ताकतवर 100 महिलाओं की सूची में चार भारत अथवा भारतीय मूल की औरतों के नाम हैं। वे हैं- इंदिरा नूयी, अरुंधति भट्टाचार्य, चंदा कोचर और किरण मजूमदार शॉ।

इस साल पहली बार किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष को ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ महिला विंग कमांडर के नेतृत्व में दिया गया। ध्यान रखें। खुद को संसार का मुखिया बताने वाले अमेरिका में अभी तक एक भी महिला राष्ट्रपति के ओहदे तक नहीं पहुंची है, जबकि भारत में प्रशासनिक और वैचारिक अगुवाई की कमान युगों से उनके हाथों में रही है। अपाला, लोपामुद्रा, रजिया सुल्तान, इंदिरा गांधी हों या प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, यह सूची बहुत लंबी है। अब यह हमारे ऊपर है कि हम ‘निर्भया’ जैसों यानी उत्पीड़ितों या फिर प्रतिभा देवी सिंह पाटिल यानी प्रेरकों में से किसे चुनना चाहेंगे? अगर हमारे दौर में पहली सूची की लंबाई बढ़ी, तो तय मानिए, अपराधियों की लिस्ट में हम सबके नाम दर्ज होंगे। काल अपनी ठंडी नजर से हमें आंक रहा है।

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