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एवरेस्ट स्कूली शिक्षा की समस्याओं का

स्कूल इंस्पेक्टर जानते थे कि गांवों के इस समूह में एक ही लड़की है, जो दसवीं में प्रथम श्रेणी से पास हुई है। गरमी की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुला, वह उससे मिलने पहुंचे। पर वह नहीं मिली। ग्यारहवीं में...

एवरेस्ट स्कूली शिक्षा की समस्याओं का
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 17 Oct 2014 08:04 PM
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स्कूल इंस्पेक्टर जानते थे कि गांवों के इस समूह में एक ही लड़की है, जो दसवीं में प्रथम श्रेणी से पास हुई है। गरमी की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुला, वह उससे मिलने पहुंचे। पर वह नहीं मिली। ग्यारहवीं में उसने दाखिला नहीं लिया और पहाड़ पर धान की रोपाई कर रही थी। उसके घर तक बात पहुंची, तब वह मिली। उन्होंने उसे स्कूल जाने को कहा। यह 30 साल पहले की बात है। आज वह हमारे साथ गांव बॉन में स्कूल की तरफ जा रही थी। हर्षा उत्तराखंड में उत्तरकाशी जिले के डुंडा की उप-प्रखंड शिक्षा अधिकारी हैं। तंग रास्तों की भूलभुलैया हमें गढ़वाल में सीधी चढ़ाई के जरिये गांव तक ले गई। रास्ते में बाजरे की गठरी ले जाती एक लड़की मिली। हर्षा ने उससे बात की, यह जाना कि वह स्कूल क्यों नहीं गई? हर्षा ने कहा कि कल वही सब पढ़ना, जो आज छूट गया। रास्ते में जो भी मिलता, उससे वह बात करतीं। सबको वह जानती थीं, पर कैसे? उनके क्षेत्र में 140 गांवों के 192 स्कूल आते हैं। हर गांव के लिए खड़ी चढ़ाई है। 1,200 वर्ग किलोमीटर के दायरे में सारे स्कूल थे।

बॉन में स्कूल अच्छा था और बच्चे हर्षा को जानते थे। वहां हम दो घंटे रुके, 45 मिनट शिक्षकों से बात हुई। ज्यादातर समय वह शैक्षणिक मुद्दों और स्कूली जरूरतों के बारे में लिखती रहीं। इससे पहले वह तीन मई को यहां आई थीं। तब की समस्याओं पर क्या फैसले हुए, इसकी जानकारी उनके पास थी। कई मामलों में वह फौरन हल बता रही थीं। लौटते समय चाय की दुकान पर पांच लोग बैठे मिले, जिन्होंने कहा कि पास के स्कूल को जिला प्रशासन ने कोई पुरस्कार नहीं दिया, जबकि वह बेहतरीन है। हर्षा का जवाब था: एक स्कूल के लिए इससे बड़ा अवॉर्ड क्या होगा कि चाय की दुकान पर बैठे लोग उसके लिए पुरस्कार की मांग करें? हम घाटी के दूसरे स्कूल में गए। यहां काफी अभाव था। संक्षिप्त दौरे में हम इसके कारण नहीं समझ सकते, पर हर्षा की समझ साफ थी। वहां के पांचों शिक्षकों के बीच गहरे विवाद थे। वह एक-एक करके सबकी सुनती गईं। जहां जरूरत पड़ी, उन्होंने डांटा।

पढ़ाई के बाद वह उत्तरकाशी पहुंचीं और शिक्षक बन गईं। उनकी बड़ी बहन तथा एक दोस्त ने उन्हें नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ मॉउंटेनयरिंग में दाखिला लेने की सलाह दी। वह एवरेस्ट पर्वतारोहण टीम से जुड़ना चाहती थीं। पहले 23,000 फुट की ऊंचाई को लांघा, फिर 24,000 फुट और अंत में 25,000 फुट। इतना काफी था 1993 में सरकार प्रायोजित टीम से जुड़ने के लिए। खराब मौसम के कारण एवरेस्ट की 27,000 फुट की चढ़ाई का फैसला छोड़ना पड़ा। वह कहती हैं- आप काम करना चाहते हैं, तो कोई रोक नहीं सकता। हम एवरेस्ट पर क्यों चढ़ना चाहते हैं? क्योंकि हमारे पास यह पर्वत है। ऐसा ही है हमारी शिक्षा की समस्याओं का पहाड़। जिस दिन हम इसे समझ लेंगे, हम इसे जीत भी लेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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