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आस्था के डेरे, समाज की उलझन

सतलोक आश्रम के बाबा रामपाल ने कानून-व्यवस्था से बैर मोल लेकर अपने आप को तो डुबोया ही, पंजाब-हरियाणा के अन्य डेरों को भी संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया है। यही वजह है कि पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट को...

आस्था के डेरे,  समाज की उलझन
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 24 Nov 2014 08:06 PM
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सतलोक आश्रम के बाबा रामपाल ने कानून-व्यवस्था से बैर मोल लेकर अपने आप को तो डुबोया ही, पंजाब-हरियाणा के अन्य डेरों को भी संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया है। यही वजह है कि पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट को दोनों राज्यों की सरकारों को यह आदेश देना पड़ा कि वे अपने यहां के डेरों का जायजा लेकर एक मुकम्मल रिपोर्ट प्रस्तुत करें। अदालत भी यह देख रही है कि किस तरह से ये डेरे इन राज्यों के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर रहे हैं और अपने आप को राज्यसत्ता से ऊपर साबित करने की एक नई किस्म की होड़ को जन्म दे रहे हैं। इससे पहले डेरा सच्चा सौदा के बाबा राम रहीम सिंह को अंबाला की अदालत में पेश करने में जिस तरह से पुलिस-प्रशासन को नाकों चने चबाने पड़े थे और उससे भी पहले ऑस्ट्रिया के वियना में डेरा सचखंड के दो बाबाओं पर हमले और एक की हत्या के बाद पंजाब में जिस तरह से हिंसक घटनाएं हुई थीं,  उनसे ये संकेत मिल रहे थे कि इस क्षेत्र में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। इसलिए देश के इस उत्तर-पश्चिमी हिस्से की सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि पर एक नजर डालनी चाहिए।

दरअसल,  डेरे आज न सिर्फ पंजाब-हरियाणा,  बल्कि समूचे उत्तर भारत की एक सच्चाई हैं। लगभग पूरे हिंदी-पंजाबीभाषी समाज पर उनका गहरा असर है। यह ठीक है कि रामपाल या आसाराम बापू जैसे बाबाओं के कारण आज सारे ही डेरे-आश्रम या संत-बाबा कठघरे में आ गए हैं,  लेकिन अपने शुरुआती चरण में उन्होंने समाज-जीवन को काफी हद तक प्रभावित भी किया है। वे तरह-तरह के सामाजिक काम करने के साथ ही दलितों,  वंचितों और भटके हुओं के जीवन में आशा का संचार भी करते रहे हैं। इसीलिए उनके अनुयायी भी तेजी से बढ़ते हैं। वह बात अलग है कि प्रतिष्ठा के चरम पर पहुंचने के बाद अक्सर उनका पतन शुरू हो जाता है और उनका हश्र रामपाल सरीखा होता है। उत्तर भारत में आज सतलोक आश्रम के अतिरिक्त संत निरंकारी मंडल,  डेरा सच्चा सौदा,  राधा स्वामी सत्संग (ब्यास), डेरा सचखंड बल्लां,  डेरा बाबा बुड्ढा दल,  डेरा भानियारवाला,  दिव्य ज्योति जागृति संस्थान जैसे बड़े डेरे हैं,  जिनके अनुयायियों की संख्या लाखों-करोड़ों में है। इसके अलावा,  गांवों-कस्बों में छोटे-छोटे डेरे भी हैं,  जिनकी अनुयायी-संख्या दस हजार से एक लाख के बीच है।

पंजाब-हरियाणा में दस हजार के आसपास डेरे अस्तित्व में आ चुके हैं। ये डेरे अब उत्तर प्रदेश,  हिमाचल,  उत्तराखंड, बिहार,  राजस्थान,  मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक पहुंच रहे हैं। उत्तर भारत में डेरों का इतिहास 500 साल से भी पुराना है। डेरे का मतलब है एक तरह का आध्यात्मिक शिविर या ठिकाना। भारत में इस्लाम के आगमन के साथ डेरों का भी आगमन हुआ। पीरों-फकीरों ने सबसे पहले अपने डेरे बनाए। पश्चिमी पाकिस्तान में तो ये डेरे आज बड़े शहरों का आकार ले चुके हैं। देहरादून शहर कभी गुरु का डेरा ही था। सिख पंथ का उद्भव भी एक डेरे के रूप में ही हुआ। सिख पंथ के साथ कुछ और डेरे भी जन्मे। उदासी डेरा,  डेरा बाबा राम थमन,  नामधारी और नानकसर। ये डेरे सच्चाई का पाठ पढ़ाते थे। उनका मकसद समतावादी समाज की रचना करना होता था। वे भटके हुए इंसान को बुराई से भलाई के मार्ग पर लाने की कोशिश करते थे। इनके संसर्ग में आने से बहुत लोगों के घर रोशन हुए। बहुत सारे लोगों ने नशाखोरी छोड़ी,  बुराई का रास्ता छोड़ अच्छाई का रास्ता अपनाया। वे सरकार, राजनीति और धार्मिक-सांस्कृतिक नेतृत्व की कमियों को पूरा करते हैं। वे गरीब जनता के हितों का बखूबी ध्यान रखते हैं।

आपदा के समय उनके स्वयंसेवक मदद के लिए पहुंचते हैं। पंजाब-हरियाणा में ही नहीं,  देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय हिंदू या अन्य धर्मों की संस्थाएं भी यह काम कर रही हैं। इसलिए हर डेरे को शक की निगाह से नहीं देखा जा सकता। लेकिन पंजाब-हरियाणा में डेरों की समस्या कुछ अलग है। पंजाब में कुल 12,000 गांव हैं,  जबकि 9,000 डेरे हैं। ये डेरे आमतौर पर सिख पंथ के समांतर खड़े हुए हैं। इनमें से ज्यादातर डेरे दलितों और पिछड़े वर्गों के हैं। हालांकि सिख पंथ की स्थापना ही जातिविहीन और समतावादी समाज बनाने के लिए हुई थी,  लेकिन कालांतर में यह जातिवाद वहां भी उठ खड़ा हुआ। दलित और पिछड़ी जातियों को सिख पंथ में वह जगह नहीं मिल पाई,  जिसकी उन्हें अपेक्षा थी,  इसलिए उन्होंने डेरे बनाने शुरू कर दिए,  जहां उनकी अध्यात्मिक भूख शांत होती है। ये लोकप्रिय भी होने लगे। हाशिये पर पड़ी जमातों ने इन्हें सिर-आंखों पर बिठाना शुरू कर दिया। अब चूंकि सिख पंथ में गुरु ग्रंथ साहिब के अतिरिक्त कोई और गुरु नहीं बन सकता,  इसलिए जब दलित और पिछड़ी जातियों के संत या बाबा गुरु की तरह उपदेश देने लगते हैं, तो तनाव पैदा होता है।

ये जमातें भी अब आर्थिक तौर पर काफी तरक्की कर रही हैं,  इसलिए उन्हें दबाया नहीं जा सकता। वे उद्योग-व्यापार में हैं,  सरकारी नौकरियों में हैं। साथ ही शिक्षा प्राप्त कर जागरूक भी हो रही हैं। यहां भी बड़े पैमाने पर विदेश से धन आ रहा है। तनाव की असली वजह यही है। लेकिन असली समस्या तब पैदा होती है,  जब डेरा-प्रमुख अपने को कानून-व्यवस्था से ऊपर समझने लगता है। इनके पास अनुयायियों की बड़ी संख्या होती है,  इसलिए राजनीतिक दलों को उनमें अपना वोट बैंक दिखाई पड़ता है। हर राजनीतिक दल के लोग,  यहां तक कि अकाली दल भी,  उनके दरवाजे पर हाजिरी बजाते हैं। डेरे के संचालक भी चूंकि अल्पसंख्यकवाद और एक तरह के भय से ग्रस्त रहते हैं,  इसलिए बड़े नेताओं के आगमन को वे भी अपने अस्तित्व के लिए शुभ मानते हैं। आम तौर पर डेरा-प्रमुख कोई बहुत आध्यात्मिक पुरुष नहीं होते,  इसलिए वे आसानी से नेताओं के प्रलोभन में आ जाते हैं,  उनकी महत्वाकांक्षाएं जागने लगती हैं।

राजनीतिक संरक्षण मिलते ही डेरे अपने रास्ते से भटकने लगते हैं। वे स्वयं को नियम-कानून से ऊपर मान बैठते हैं और वे तमाम काम करने लगते हैं,  जिनकी उनसे अपेक्षा नहीं की जाती। यों देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय संस्थाएं भी इसी तरह काम करती हैं,  लेकिन पंजाब-हरियाणा में चूंकि आबादी की संरचना कुछ अलग है, इसलिए वहां तनाव की स्थिति बनी रहती है। डेरों का यह मसला काफी पेचीदा और नाजुक है। डेरे जरूर हों,  क्योंकि उनका होना कहीं-न-कहीं समाज के लिए हितकारी भी है,  वे सरकार का हाथ बंटाते हैं,  लेकिन उन्हें वोट बैंक के रूप में न देखा जाए। उनकी गतिविधियों पर सरकारों को सख्त निगरानी रखनी चाहिए, ताकि वे पथभ्रष्ट न हों।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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