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संकीर्ण राजनीति और उदार नागरिक

कुछ सप्ताह पहले जनता दल-यू के नेता शरद यादव इंश्योरेंस बिल पर बोलने के लिए राज्यसभा में खड़े हुए थे। उन्होंने अपने भाषण का समापन दक्षिण भारतीय महिलाओं के रंग और शरीर की बनावट पर टिप्पणी के साथ किया।...

संकीर्ण राजनीति और उदार नागरिक
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 05 Apr 2015 07:52 PM
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कुछ सप्ताह पहले जनता दल-यू के नेता शरद यादव इंश्योरेंस बिल पर बोलने के लिए राज्यसभा में खड़े हुए थे। उन्होंने अपने भाषण का समापन दक्षिण भारतीय महिलाओं के रंग और शरीर की बनावट पर टिप्पणी के साथ किया। उन्होंने कहा कि सांवले रंग के बावजूद  ‘दक्षिण की महिलाएं इतनी ज्यादा खूबसूरत होती हैं.. जितनी हमारे यहां की नहीं होतीं। वे नृत्य जानती हैं।’  यह विवाद अभी शांत भी नहीं हुआ था कि भाजपा सांसद गिरिराज सिंह की कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के संदर्भ में रंगभेदी टिप्पणी पर विवाद खड़ा हो गया। लेकिन इन विवादों से दूर कुछ अच्छी चीजें भी हो रही हैं,  जिन पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया।

पिछले हफ्ते चेन्नई से 670 किलोमीटर दूर तिरुनेल्वेली जिले के एक शहर पोट्टल पुडूर में एक असामान्य घटना घटी। एक ईसाई स्कूल में हिंदू संगठन ने छोटा-सा समारोह आयोजित किया। उस समारोह का सभापतित्व एक ईसाई ने किया और उस कार्यक्रम के अतिथियों में अनेक मुसलमान भी थे। इसमें खास बात क्या थी? यह कार्यक्रम पाकिस्तान के बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय के उन लोगों की सराहना के लिए आयोजित था,  जिन्होंने अपने मुल्क में अल्पसंख्यक हिंदुओं को होली मनाने के लिए सुरक्षा घेरा मुहैया कराया। आखिर तिरुनेल्वेली जिले के नागरिक उन हिंदुओं के लिए क्यों चिंतित थे, जो मूलत: पाकिस्तान के बाशिंदे हैं?  उनका तो दिल्ली, पंजाब, कश्मीर और राजस्थान के कुछ लोगों की तरह शायद ही पाकिस्तान के लोगों के साथ कोई रिश्तेदारी या पुरखों का नाता हो। दिल्ली, पंजाब, कश्मीर या राजस्थान के कई परिवारों के नातेदार सरहद के उस पार भी रहते हैं।

उत्तर के मुकाबले दक्षिण भारतीयों का पाकिस्तानियों से भावनात्मक रिश्तों की संभावनाएं भी नहीं दिखतीं। मिसाल के लिए, पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह जनरल मुशर्रफ का जन्मस्थान दिल्ली में है, जबकि भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी सिंध में पैदा हुए, जो अब पाकिस्तान में है। सुदूर दक्षिण में पाकिस्तान विरोधी भावना दिल्ली व सरहदी सूबों के मुकाबले काफी क्षीण है और इसकी ऐतिहासिक वजहें हैं। एक तो दक्षिण के राज्य उत्तर की अपेक्षा अधिक शांत रहे और फिर उन्हें घुसपैठ की समस्या से भी उत्तरी राज्यों की तरह दो-चार नहीं होना पड़ा। तिरुनेल्वेली के कार्यक्रम के संयोजक पी रामनाथन को लगा कि उन आम पाकिस्तानियों के साथ खड़े होने का यह सबसे नायाब मौका है, जिन्होंने कट्टरपंथियों के तमाम भड़काऊ गतिविधियों व आंतकी खतरों के बावजूद अपने मुल्क के अल्पसंख्यक हिंदुओं को संरक्षण प्रदान किया।

वह इस बात को लेकर बेहद चिंतित हैं कि पाकिस्तान में हिंदू, ईसाई और यहां तक कि मुसलमान भी हमलों का शिकार बन रहे हैं। रामनाथन मानते हैं कि कट्टरपंथियों के मुकाबले पाकिस्तान या किसी भी देश में सुलझे हुए लोग अधिक होते हैं। और इस धरती पर अमन कायम करने की उनकी कोशिशों की हर मुमकिन हिमायत की जानी चाहिए।
एक अन्य घटना के तहत चेन्नई से 300 किलोमीटर दूर उल्लिकोट्टई गांव में 29 मार्च को लोगों ने ली कुआन यू की याद में एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया। उस दिन ली कुआन को उनका देश राजकीय विदाई दे रहा था। कई हिस्सों से वहां पोस्टर पहुंचा था। वहां मौजूद लोगों में से एक ने कहा, ‘जिन लोगों ने सिंगापुर में काम किया है और जो आज भी वहां नौकरियां या दूसरे काम कर रहे हैं, उन सबकी तरफ से हमारे परिवार उस शख्स को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं, जिसने हमारी आजीविका को आधार दिया।’ एक पोस्टर पर लिखा था, ‘हम उस इंसान को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं, जिसने तमिल को सिंगापुर की दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया।’

इसके पहले सिंगापुर के चैनल ‘न्यूज एशिया’ ने अपनी एक रिपोर्ट में दिखाया था कि किस तरह प्रवासी भारतीय कामगारों ने वहां धन कमाया और अपने घर भेजा, जिससे देश के एक बेहद पिछड़े इलाके को बिजली हासिल करने में मदद मिली थी। पूरी चेन्नई में ली कुआन की बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स लगीं और विभिन्न राष्ट्रीयताओं वाले लोग, जिनमें तमिल, मलयेशियाई और चीनी शामिल थे, ली को श्रद्धांजलि देने के लिए एक साथ आ खड़े हुए। आम नागरिकों में ली कुआन की अधिनायकवादी कार्यशैली को लेकर कोई चिंता नहीं दिख रही थी। वे बस यही सोचते लग रहे थे कि इस शख्स ने उन्हें नौकरियां मुहैया कराके उनकी जिंदगी को संवारा। ऐसा लगता है कि चेन्नई के लोग इस शहरीकृत राष्ट्र के विकास, उसकी चमचमाती सड़कों और सार्वजनिक स्थलों से खासा प्रभावित हैं। सिंगापुर भ्रष्टाचार मुक्त व कुशल नौकरशाही के लिए भी जाना जाता है।

एक अलग घटनाक्रम में तमिलनाडु के विभिन्न जिलों में चर्चों के आगे पोस्टरों की कतारें देखने को मिलीं। उन पोस्टरों में केंद्र सरकार से यह मांग की गई थी कि ईसाइयों पर बढ़ते हमलों को रोकने के लिए वह कारगर कदम उठाए। इन पोस्टरों में ननों के साथ कथित बलात्कार पर चिंता जताई गई थी और यह भी कहा गया था कि ऐसे हर कदम को तत्काल रोकने के उपाय किए जाएं,  जिनसे हिन्दुस्तान के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को चोट पहुंचती है। इन तमाम घटनाओं ने निकलने वाला संदेश साफ और प्रबल है। लोग सरकारों का चुनाव इसलिए करते हैं कि वे विकास करें। लोग उनसे अपेक्षा करते हैं कि वे उन्हें सुरक्षित, पुरअमन जिंदगी जीने लायक माहौल देंगी। तमिलनाडु के एक छोटे से गांव का बाशिंदा भी दहशतगर्दी व आतंक को लेकर उतना ही संजीदा है, जितना दिल्ली, कराची में बैठे लोग।

इसी तरह,  गांवों में बैठा आम आदमी सुदूर सिंगापुर के प्रशासनिक कौशल और उसके नेता का भी शुक्रगुजार होता है, जिसके कारण उसकी व उसके परिवार की जिंदगी खुशगवार हुई है। लेकिन जनता जो सोचती है, उसके बिल्कुल उलट नेताओं के रवैये से यह साफ होता है कि वे अपने ही मतदाताओं से कितने कटे हुए हैं? एक आम आदमी की दलील भले ही साधारण लगती हो और गहरी वैचारिक व्याख्याओं से वंचित हो,  मगर उसकी अपेक्षाएं बिल्कुल स्पष्ट हैं- तरक्की और शांति। ऐसे में, ‘घर वापसी’ और ‘हिंदुओं को अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए’ जैसे अभियानों-बयानों या कुछ खास धार्मिक समूहों के खिलाफ अपशब्दों के इस्तेमाल या किसी खास क्षेत्र की औरतों के रंग और शारीरिक बनावट पर टिप्पणी को हम कैसे देखें?
 (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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