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आसान नहीं इन नदियों को जोड़ना

नदियों को जोड़ने की चर्चा देश में रह-रहकर उठती रहती है। यह सिलसिला 1970 के दशक से लगातार चल रहा है। उन दिनों गंगा को कावेरी से जोड़ने की बात होती थी और अब लगभग 30 नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव है, जिस...

आसान नहीं इन नदियों को जोड़ना
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 14 Jul 2015 08:19 PM
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नदियों को जोड़ने की चर्चा देश में रह-रहकर उठती रहती है। यह सिलसिला 1970 के दशक से लगातार चल रहा है। उन दिनों गंगा को कावेरी से जोड़ने की बात होती थी और अब लगभग 30 नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव है, जिस पर 2002 में उच्चतम न्यायालय ने एक तरह से मुहर लगा दी थी और तभी से इस मुद्दे ने एक राजनीतिक रूप ले लिया। 1998 की पांच लाख, 60 हजार रुपये की इस महत्वाकांक्षी योजना के साथ देश में सिंचाई और बाढ़ की समस्या को हमेशा के लिए खत्म करने का दावा और संकल्प जुड़ा हुआ है। इस हिसाब से देखें, तो यह योजना ऐसी है, जिससे आप बहुत सारी उम्मीदें बांध सकते हैं, देश की खाद्य समस्या के हल हो जाने की आशा पाल सकते हैं। अब जब बिहार में कोसी और घाघरा के साथ महाराष्ट्र व गुजरात-महाराष्ट्र के बीच पारतपी आौर नर्मदा को जोड़ने की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार की जा रही है, तो यह उम्मीद की जानी चाहिए कि नदी जोड़ योजना की प्रगति की दिशा में सारी बाधाओं का समाधान खोज लिया गया है। यह भी बताया जा रहा है कि बिहार, असम और पश्चिम बंगाल की कई नदियों को जोड़ने की योजना भी तैयार हो रही है।

लगभग 5.6 लाख करोड़ रुपये की इस योजना के लिए संसाधन कहां से जुटाए जाएंगे, इस पर पिछले 13 साल से सवाल उठता रहा है और इस बीच लागत संभवत: 20 लाख करोड़ रुपये तो हो ही गई होगी। पहला सवाल तो यही है कि क्या इसके लिए धन का इंतजाम कर लिया गया है? साल 2016 तक इसे पूरा करने का लक्ष्य अब 2030 के पहले नहीं प्राप्त हो सकता। इस हिसाब से संसाधन जुटाने का काम भी कर ही लिया गया होगा। कहते हैं कि पंजाब और केरल ने इस नदी जोड़ योजना के विरोध में अपना मत दिया था और बिहार का यह कहना था कि वह पहले अपनी नदियों को जोड़कर उसके परिणाम देख लेगा, तभी राष्ट्रीय स्तर पर इस योजना का समर्थन करेगा और वह भी तब, अगर उसके पास अपनी जरूरतों के अतिरिक्त पानी बचेगा। कुछ इसी तरह की बात असम ने भी कही थी और वह इस योजना पर ज्यादा उत्साहित नहीं था। असम और बिहार ही दो ऐसे राज्य हैं, जिनके पास देश में अतिरिक्त पानी उपलब्ध होने की बात कही जाती है।

बिहार की समस्या थोड़ी अलग है। 2007 की बाढ़ इस राज्य में आई अब तक की आखिरी बाढ़ है। 2008 में कोसी नदी के पूर्वी तटबंध के नेपाल में टूटने से जो तबाही हुई थी, वह एक प्रशासनिक अक्षमता और तकनीकी गैर-जिम्मेदारी का उदाहरण थी। और इसकी जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से सरकार पिछले कई महीनों से कतरा रही है। कुसहा में कोसी के तटबंध टूटने की घटना नहीं घटी होती, तो उस साल राज्य में सूखा राहत बांटने की तैयारी पूरी कर ली गई थी। आजाद भारत में बिहार में पहला सूखा 1951-52 में पड़ा था। राज्य में सिंचाई सुविधा देने के लिए जो बातें आज से 60-65 साल पहले कही जाती थीं, वही अब भी कही जाती हैं, वही मांगें मांगी जाती हैं और उसी तरह के आश्वासन दिए जाते हैं। बिहार के सहरसा और खगडि़या जैसे जिलों में आज से कोई दस साल पहले तक बाढ़ ने अपना घर बना लिया था, अब वर्षा 1300 मिलीमीटर से घटकर 1000 मिलीमीटर तक आ गई है, इसकी किसी को कोई चिंता नहीं है।

पानी होगा ही नहीं, तो नदियां जोड़कर भी क्या होगा? राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1980) की रिपोर्ट में बाढ़ की सारी बहस और जानकारी उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के ईद-गिर्द घूमती थी, जिसमें महाराष्ट्र, गुजरात, कश्मीर, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्य किसी गिनती में ही नहीं थे। अब बाढ़ की कहानी इन्हीं प्रांतों से शुरू होती है और यहीं खत्म भी होती है। इसके अलावा, 1952 में देश का बाढ़ग्रस्त क्षेत्र 250 लाख हेक्टेयर था, जो केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, अब बढ़कर 500 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है। इससे इतना तो जरूर समझ में आता है कि बाढ़ नियंत्रण (या प्रबंधन) के क्षेत्र में अब तक जितना काम किया गया और जो पूंजी निवेश हुआ, उसने फायदे की जगह नुकसान पहुंचाया है।

इस गलत पूंजी निवेश के उत्तरदायी कौन लोग हैं, इसकी कभी चर्चा नहीं होती। चर्चा का विषय यह भी नहीं है कि अगर नुकसान हो रहा है, तो कम से कम अब से इस तरह के कामों को बंद कर दिया जाए। वही तंत्र, वही व्यवस्था और वही योजना बनाने वाले नदी जोड़ योजना से बाढ़ नियंत्रण (या प्रबंधन) का दम भरेंगे। आशा की जाती है कि बाढ़ पीडि़त जनता ने एक बार फिर विश्वास करने का मन बना लिया है। सिंचाई के क्षेत्र में देश में जितनी उपलब्धता है, वह एक सीमा पर आकर ठहर गई है। सरकार की खुद की रिपोर्टों के अनुसार, 1991 से 2006 के बीच बड़ी और मध्यम आकार की सिंचाई परियोजनाओं पर प्राय: दो लाख करोड़ रुपये खर्च हुए और सिंचाई का रबका इतने निवेश के बाद भी आगे खिसका ही नहीं। अब जो कुछ उम्मीद बची है, वह नदी जोड़ योजना पूरी करेगी। चिंता का विषय यह है कि इस योजना को देश की बाढ़ और सिंचाई समस्या का आखिरी समाधान बताया जाता है। लेकिन अब तक की बिना किसी उत्तरदायित्व के बनी योजनाओं का जो हश्र हुआ है, उसकी पृष्ठभूमि को देखते हुए यह डर लगता है कि अंतिम समाधान कहीं पुरानी बातों पर परदा डालने के काम आया, तो देश की कृषि व्यवस्था किस खाई में गिरेगी, इसकी कल्पना भयावह है।

कभी पुनर्वास और तटबंधों के रेखांकन को लेकर व्यापक जन-आक्रोश के कारण 1956 के अंत में कोसी नदी के निर्माणाधीन तटबंधों का काम रोक देना पड़ा था। तब यह प्रश्न बिहार विधानसभा में उठा था। सरकार ने सदन को बताया कि जन-विक्षोभ के कारण काम बंद कर दिया गया है और 1957 के आम चुनाव के बाद जब समुचित मात्रा में पुलिस बल उपलब्ध हो जाएगा, तब काम फिर शुरू कर दिया जाएगा। कोसी तटबंधों का निर्माण इसी पुलिस की छत्रछाया में पूरा किया गया था, जिसके लिए कई लोगों को जेलों में भी ठूंसना पड़ा था। यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नदी जोड़ योजना को लागू करने में नहीं होगी। वैसे 2009 में राहुल गांधी व जयराम रमेश नदी जोड़ योजना को पर्यावरण के लिहाज से घातक बता चुके हैं। कई वैज्ञानिकों, इंजीनियरों व समाजशास्त्रियों की सहमति इस योजना से नहीं है। उम्मीद है, योजना हाथ में लेने से पहले इनकी आशंकाओं को दूर कर लिया गया होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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