फोटो गैलरी

Hindi Newsसहयोग और भरोसे की मुलाकात

सहयोग और भरोसे की मुलाकात

हमारे गणतंत्र दिवस पर मेहमान बनकर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत-अमेरिका संबंधों को एक नई ऊंचाई प्रदान की है। एक महान राष्ट्रीय जलसे की साक्षी दो बड़ी लोकतांत्रिक शक्तियां बनीं। ऐसे में, ...

सहयोग और भरोसे की मुलाकात
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 26 Jan 2015 08:43 PM
ऐप पर पढ़ें

हमारे गणतंत्र दिवस पर मेहमान बनकर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत-अमेरिका संबंधों को एक नई ऊंचाई प्रदान की है। एक महान राष्ट्रीय जलसे की साक्षी दो बड़ी लोकतांत्रिक शक्तियां बनीं। ऐसे में,  बराक ओबामा के भारतीय दौरे की सबसे बुनियादी और महत्वपूर्ण बात यह रही कि दोनों देशों के बीच कूटनीतिक साझेदारी को बल मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बराक ओबामा की बीते चार महीने में यह दूसरी द्विपक्षीय बैठक रही,  जिसके परिणाम के तौर पर नागरिक परमाणु संधि और सैन्य करार पर मुहर लगी। लेकिन इससे पहले यह जानने-समझने की आवश्यकता है कि मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में नाटो देशों से इतर अमेरिका का बड़ा रणनीतिक साझेदार कोई देश है,  तो वह भारत है। बेशक,  हम ऑस्ट्रेलिया या ब्रिटेन जैसी हैसियत अमेरिका के लिए न रखते हों,  मगर आज की तारीख में हम अमेरिका के ‘प्रिंसिपल नॉन-अलायंड पार्टनर’ हैं।

बीते साल सितंबर में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका दौरे पर गए थे। उनकी वह यात्रा कई अर्थों में ऐतिहासिक और विश्व पटल पर भारत को एक महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने वाली थी। वहां उन्होंने अमेरिका के साथ कुछ विशेष संबंधों को बढ़ाने की बात कही थी। इसमें परमाणु समझौता और कारोबारी संबंधों को विशेष तरजीह दी गई थी। इस लिहाज से बराक ओबामा की यह यात्रा प्रधानमंत्री के अमेरिकी दौरे की अगली कड़ी है। और जो बातचीत वहां बीच में रह गई थी,  उसे यहां फिर से गति प्रदान की गई। कुछ पर रास्ता निकला और कुछ पर आपसी सहयोग की प्रतिबद्धता जताई गई है। रविवार को हुई बैठक में परमाणु करार को लेकर कई वर्षों से चला आ रहा गतिरोध खत्म हो गया। दो मुद्दों पर गतिरोध था- पहला,  अमेरिका द्वारा परमाणु संयंत्रों के उपकरणों की निगरानी का अधिकार और दूसरा, दुर्घटना की स्थिति में संबंधित कंपनियों की जवाबदेही का सवाल। आपसी सहमति के बाद साझा बयान में कहा गया कि ‘इस द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर करने के छह साल बाद इसके अमल की दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं।’ इसके अलावा, दोनों देशों के बीच परिष्कृत रक्षा ढांचागत समझौते पर भी अगले दस वर्षों के लिए फिर से हस्ताक्षर हो गए हैं और इस क्षेत्र में साझा विकास व उत्पादन के लिए भविष्य की राह तय करने वाली परियोजनाओं की पहचान की गई है।

दोनों देशों ने जेट इंजन टेक्नोलॉजी के निर्माण और डिजाइन में सहयोग के अतिरिक्त एयरक्राफ्ट कैरियर टेक्नोलॉजी की संभावनाओं पर भी जोर दिया है। भारत-अमेरिका सीईओ फोरम और भारत-अमेरिका बिजनेस समिट में हुई वार्ता भी कारोबारी कारणों से बेहद महत्वपूर्ण हैं। हालांकि,  अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अभी दो धारणाएं हैं। पहली तो यही कि अमेरिका एक घटती हुई विश्व-शक्ति है। दरअसल,  हाल के वर्षों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था को उतना अधिक फायदा नहीं मिला,  जिसकी उम्मीद की जा रही थी और कहा जा रहा था कि आर्थिक मंदी के बाद अमेरिका अपनी पुरानी स्थिति को फिर से पा लेगा। इसके अलावा, रूस ने जिस तरह से अमेरिका-विरोध की नीति अपनाई है, उससे भी अमेरिका की साख को धक्का पहुंचा है। इसके अलावा, इराक व अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका अपना हाथ जलाए हुए है और इधर, इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक ऐंड सीरिया के दहशतगर्द उसे चुनौती देने लगे हैं।

दूसरी तरफ,  यह भी सच है कि आर्थिक और सैन्य मोर्चे पर चीन का कद तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में, अमेरिका के कमजोर होने की धारणा बनने लगी है। दूसरी धारणा यह है कि अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति बराक ओबामा की शक्तियां भी क्षीण हो रही हैं,  क्योंकि वह एक जाते हुए राष्ट्रपति हैं। उनका यह दूसरा कार्यकाल है और अभी इसके पूरे होने में दो साल बाकी हैं। अमेरिका में बराक ओबामा और उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी की लोकप्रियता घटी है। ऐसा बताया जा रहा है और हाल के सर्वेक्षण भी यह पुष्ट करते हैं कि अगले चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी की हार होने जा रही है। उधर,  रिपब्लिकन पार्टी का अमेरिकी कांग्रेस में बहुमत है ही।

इन दो धारणाओं के पीछे जो भी तथ्य हों,  पर फरीद जकरिया की मानें, तो अमेरिका अब भी ताकतवर देश है और बराक ओबामा उस विश्व शक्ति के मौजूदा राष्ट्रपति हैं। जकरिया का कहना है कि अमेरिका एक घटती हुई शक्ति नहीं है, बल्कि दूसरे बड़े देश अपेक्षाकृत तेजी से मजबूत हो रहे हैं। ये देश हैं चीन और भारत। और यह तस्वीर इसी तरह बनी रही,  तब भी चीन और भारत को 50 साल लग जाएंगे अमेरिका तक पहुंचने में। इसी तरह, अमेरिकी संविधान बराक ओबामा को यह इजाजत देता है कि वह जिस आखिरी समय तक व्हाइट हाउस में होंगे,  उस समय तक एक राष्ट्रपति की पूरी शक्तियों से लैस रहेंगे। अमेरिका में कुछ अधिकार कांग्रेस को हासिल नहीं हैं,  बल्कि उन पर सीधा राष्ट्रपति का नियंत्रण होता है। इनमें विदेश नीति भी शामिल है। अमेरिकी इतिहास में यह परिपाटी दिखी है कि ज्यादातर अमेरिकी राष्ट्रपति अपने दूसरे कार्यकाल में मजबूत फैसले लेते हैं, मतलब उनके संविधान ने उन्हें जो अधिकार प्रदान किए हैं, उनका वे दूसरे कार्यकाल में अधिक से अधिक इस्तेमाल करते हैं।

इस मामले में यह सोचना की अमेरिकी राष्ट्रपति की यह भारत यात्रा प्रभावहीन है,  अपने आप गलत साबित हो जाती है। यह भी देखने की जरूरत है कि जहां पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की नीति अफगानिस्तान और इराक युद्ध से धूमिल हुई,  वहीं विदेश नीति के मामले में बराक ओबामा के पास ढेरों उपलब्धियां हैं और उनमें भारत के साथ कूटनीतिक सहयोग की महान सफल गाथा भी है। इस दौरे को कम अहमियत देने वाले शायद यह भूल रहे हैं कि भारत ने अमेरिका से जो समझौते किए हैं,  वे किसी ऐसे राष्ट्रपति के साथ ही समाप्त नहीं हो जाते,  जिनके कार्यकाल दो साल में खत्म हो जाएंगे,  बल्कि ये समझौते अमेरिका के सांविधानिक संस्थानों से हुए हैं।

भारत के विकास के लिए दो चीजें महत्वपूर्ण हैं। पहली, निवेश-संसाधन, यानी कि कोई हमारे यहां निवेश करे, पूंजी लगाए। दूसरी चीज है- उच्च तकनीक, जो हमें चाहिए। दुनिया में अमेरिका ही एक ऐसा देश है, जिसके पास पूंजी और तकनीक, दोनों की अधिकता है और वह हमारे साथ ये दोनों चीजें बांटने में अब विश्वास रखता है। बराक ओबामा का यह भारत दौरा उसके इस विश्वास को पुष्ट करता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें