अपने अपने निष्काम कर्म
सनातनी घरों में रामचरितमानस का सम्मानित स्थान होता है, महाभारत का नहीं। बचपन से हम निष्काम कर्म से अनजान हैं। इक्कीसवीं सदी में तो और दुर्दशा है। यह दर्शन-प्रदर्शन का युग है। दर्शन के लिए बुद्धू...
सनातनी घरों में रामचरितमानस का सम्मानित स्थान होता है, महाभारत का नहीं। बचपन से हम निष्काम कर्म से अनजान हैं। इक्कीसवीं सदी में तो और दुर्दशा है। यह दर्शन-प्रदर्शन का युग है। दर्शन के लिए बुद्धू बक्सा है और प्रदर्शन के लिए फेसबुक। पर्यावरण के प्रति हमारा ऐसा समर्पण है कि हमने पेड़ों की सुरक्षा की खातिर कागज-किताब को तिलांजलि दे दी है। ज्ञानवर्धन का पावन कर्म कंपू या स्मार्ट फोन से संपन्न होता है। आजकल कागज-कलम का प्रयोग वैसा है, जैसे रेलगाड़ी के रहते बैलगाड़ी का इस्तेमाल!
छोटा या बड़ा बुद्धू बक्सा हर घर की शोभा है। इसके कार्यक्रमों का दायरा सास-बहू व विवाहेतर प्रेम से लेकर रामायण-महाभारत तक फैला है। धारावाहिकों के चरित्र कई के आदर्श हैं। राम और कृष्ण का अनुकरण कठिन है, रावण व कंस का आसान। निष्काम कर्म जैसा शब्द हमारे पड़ोस के पप्पू ने कभी महाभारत के संवाद में सुना होगा। तब से वह इस पर ऐसे रीझे हैं कि मोहल्ले के पार्क में स्थापित यही करते हैं। हर आती-जाती कन्या का सीटी से स्वागत उनकी नियमित दिनचर्या है।
उनकी सीटी में वही विविधता है, जो भारतीय जीवनशैली में। कभी उसमें दक्षिणी इडली-डोसे के साथ प्रयुक्त गन-पाउडर की चटनी-सा तीखापन है, तो कभी मथुरा की खुरचन-सी मधुरता। एक समानता भी है। सिर्फ लड़कियों पर सीटी गूंजती है, किसी अन्य पर नहीं। मोहल्ले के बुजुर्गों की सामूहिक शिकायत पर उनके पिता ने पप्पू से स्वर-शर संधान का स्पष्टीकरण मांगा। उसने बताया, ‘पापा! मैं गीता के निष्काम कर्म की प्रेरणा से सीटी बजाता हूं। लाउडस्पीकर पर किसी को ऐतराज नहीं, तो मेरी सीटी पर क्यों?’
हर पप्पू अपने मां-बाप की आंखों का तारा है, न वह गालियों का विशेषज्ञ है, न अश्लील हाव-भाव का। सीटी उसका वैसा ही शौक है, जैसे सीमा पर से बम फोड़ना या अवांछित तत्वों से सांठगांठ हमारे पड़ोसी देश का। दोनों जानते हैं कि इससे हासिल कुछ नहीं होना है। अपनी खुराफात को निष्काम कर्म निरूपित कर गौरवान्वित करना उनकी मजबूरी है और उन्हें बर्दाश्त करना हमारी भौगोलिक विवशता।