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पूरब से पश्चिम का यह मिलन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका दौरे पर हैं। इसके सभी प्रमाण हैं कि मोदी उस तरीके से कूटनीति को पुर्नपरिभाषित कर रहे हैं, जो हाल के समय में विरले ही देखने को मिला है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में...

पूरब से पश्चिम का यह मिलन
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 29 Sep 2014 07:48 PM
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका दौरे पर हैं। इसके सभी प्रमाण हैं कि मोदी उस तरीके से कूटनीति को पुर्नपरिभाषित कर रहे हैं, जो हाल के समय में विरले ही देखने को मिला है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में उनका भाषण न सिर्फ भारत की वैश्विक चिंताओं को व्यक्त करता है, बल्कि इस इच्छा को भी स्पष्ट करता है कि अपने कद के अनुरूप भारत को नेतृत्व का अवसर मिले। चाहे सेंट्रल पार्क में युवाओं को संबोधित करना हो या न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वॉयर में आप्रवासी भारतीयों के बीच दिया गया भाषण, मोदी के आसपास के जोश-ओ-जुनून ने कई अमेरिकियों को हैरत में डाल दिया। लाल ग्रह (मंगल) की कक्षा में मार्स ऑर्बिटर मिशन की सफलतापूर्वक स्थापना का गौरव प्राप्त करने वाला भारत एशिया का पहला देश बना व संयोगवश, उसके बाद मोदी अमेरिका के लिए रवाना हुए। यात्रा से पहले मोदी ने उद्योगपतियों का आह्वान किया कि वे भारत को मैन्युफैक्चरिंग होम बनाएं और रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स (एसऐंडपी) ने भारत के कारोबारी परिदृश्य की समीक्षा कर उसको ‘नकारात्मक’ से ‘स्थिर’ का दर्जा दिया। जब प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका पहुंचे, तब समय उनके अनुकूल था। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि क्या वह रिश्तों में गरमी ला पाएंगे, जो सर्द पड़ चुके हैं? या क्या यह यात्रा नेकनीयती से की गई, किंतु कई अर्थहीन प्रस्तावों से भरी साबित होगी, यानी मनमोहन सिंह के कई अमेरिकी दौरे जैसे ही इसके नतीजे होंगे? आर्थिक कूटनीति के मोर्चे पर मोदी व्यावहारिक हैं।

उन्होंने अपनी कूटनीति को नए ‘पूरब-पश्चिम समझौते’ के इर्द-गिर्द ढाला है। यह विचार उनका ही है, ताकि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान की सफलता सुनिश्चित की जा सके। उनका अर्थशास्त्र आसान, बल्कि सीधा है- रोजगार पैदा करो, क्रय-शक्ति बढ़ाओ और विकास की प्रक्रिया में सबको फायदा मिलना चाहिए। अंग्रेज कवि रुडयार्ड किपलिंग ने अपनी मशहूर रचना द बैलेड ऑफ ईस्ट ऐंड वेस्ट  में कहा है कि ‘पूरब, पूरब है और पश्चिम, पश्चिम है और ये दोनों कभी नहीं मिलेंगे।’ लगभग एक सदी के बाद नरेंद्र मोदी इस सोच को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। नया पूरब-पश्चिम समझौता पासा पलटने वाला साबित हो सकता है। भारत-अमेरिका के बीच मधुर संबंधों को देखने की अपनी तलाश में हममें से कई को कुछ साफ असमानताएं नजरअंदाज करनी होंगी।

आजादी के बाद का भारत उन राजनेताओं का था, जो पारंपरिक फेबियन समाजवाद में यकीन करते थे। वक्त के तकाजे ने हमें उकसाया कि विकास के नियोजित मॉडल को अपनाएं। उस मॉडल को दोबारा बनाने में हम नाकाम रहे, जबकि हमारी चुनौतियां और हमारे अवसर नाटकीय रूप से बदल गए। 1961 में गठित निगरुट आंदोलन के संस्थापक सदस्यों व पथ-प्रदर्शकों में एक होने के बावजूद भारत ने शीतयुद्ध के दौरान सोवियत संघ से अपने करीबी संबंध बनाए। भारत के मॉस्को से करीबी कूटनीतिक व सैन्य संबंध और मुखर समाजवादी नजरिये का प्रतिकूल प्रभाव पश्चिम से हमारे रिश्तों पर पड़ा और विशेष रूप से इसका असर अमेरिका के साथ दिखा। पब्लिक लॉ-480 के बाद भी, 1954 में बना यह कानून अतिरिक्त अमेरिकी गेहूं को भारत में बेचने की अनुमति देता है, भारत-अमेरिका संबंध यहां के राजनीतिक माहौल में बड़ी ताकत नहीं बन पाए। तमाम राजनीतिक पार्टियों के सांसद और विधायक अमेरिका के साथ हमारे रिश्ते को शक व चिंता की निगाह से देखते रहे।

भारतीय राजनीतिक वर्ग की शंका अमेरिकी मिजाज में प्रतिबिंबित होने लगी। अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ अपने रिश्ते बढ़ाए और बाद में चीन के साथ भी परस्पर आर्थिक निर्भरता बढ़ाई। 1991 में मंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अपनी समीक्षा के लिए बाध्य किया और विदेश नीति से इसके जुड़ाव पर भी गौर किया गया। हालांकि, नरसिंह राव के पांच साल के कार्यकाल में आर्थिक मुद्दे छाए रहे, किंतु बदलाव राजग सरकार के दौरान हुए। अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका के साथ कूटनीतिक रिश्ते सुधारने में अपना सारा जोर लगाया। जसवंत सिंह-स्ट्रोब टालबॉट वार्ता ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मार्च 2000 में भारत यात्रा के मार्ग प्रशस्त किए और तब भारत-अमेरिका के बीच कूटनीतिक साझेदारी का ढांचा तैयार हुआ। कांग्रेस के विपरीत भाजपा प्रतिस्पर्धा और आर्थिक उदारीकरण में यकीन करती है, जो अमेरिका के साथ बेहतर संबंधों की हिमायती है। दस साल तक मनमोहन सरकार कूटनीतिक साङोदारी के अगले चरण की ओर कोशिश करती रही, पर परमाणु सहयोग के उच्च स्तर पर पहुंचने के बाद भी वह कम ही हित साध पाई। मोदी खोई हुई केमिस्ट्री को फिर से पाना चाहते हैं, जो हिचकोले खाते आर्थिक विकास, निवेशकों में बढ़ती निराशा, वाशिंगटन के कार्यालयों में भारत-विरोधी लॉबी के मजबूत होने और ओबामा प्रशासन की बदलती प्राथमिकताओं के कारण बढ़ रही है।

ऐसे में, नई केमिस्ट्री में क्या कुछ शामिल होगा? पहला, इंसानी केमिस्ट्री हमेशा भरोसे से जुड़ी होती है। निजी रिश्तों को मजबूती देने के मामले में मोदी को जबर्दस्त शोहरत हासिल है। उन्होंने शिंजो अबे और शी जिनपिंग के साथ हाल ही में ऐसा किया। माना जा रहा है कि यही जादू ओबामा के साथ भी दिखेगा, जो अपनी प्रेसीडेंसी के आखिरी वर्षो में हैं। क्लिंटन परिवार से उनकी मुलाकात कूटनीतिक है और भविष्य में एक संभावित निवेश है। दूसरा, 21वीं सदी एशियाई सदी के तौर पर गिनाई जाएगी। इसकी विकास दर, युवा आबादी, कौशल व इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश और तकनीक तथा कनेक्टिविटी के कई तरह के प्रभावों को देखते हुए यह कहा जा सकता है। भारत की तीन ‘डी’- डेमोग्रॉफी (जनसंख्या), डिमांड (मांग) और डेमोक्रेसी (लोकतंत्र)- से जुड़ा नरेंद्र मोदी का संदेश वर्तमान और भविष्य के लिए एक आकर्षक निवेश है। उभरते हुए एशिया और फिर से आगे बढ़ते अमेरिका के बीच की पारस्परिक निर्भरता पूरब-पश्चिम समझौते की नुमाइंदगी करती है।

तीसरा, अमेरिका सरकारी नहीं, बल्कि निजी निवेश का स्रोत बना हुआ है। शिक्षा, कौशल व तकनीक में बढ़ता सहयोग हमारी जनसंख्या को लाभान्वित करता है। दोनों देशों के बीच कौशल विकास व फैकल्टी में सहयोग और विश्वविद्यालयों और संस्थानों के बीच छात्रों के आदान-प्रदान से भी मदद मिलती है। ऐसे में, उचित वीजा-व्यवस्था का प्रबंध सही तर्क है। चौथा, बदलते सुरक्षा परिदृश्य में भारत और अमेरिका के बीच रक्षा सहयोग को बढ़ावा मिलना चाहिए। सरकार ने हाल ही में रक्षा क्षेत्र में एफडीआई सीमा 49 प्रतिशत कर दी है, ताकि देश में डिफेंस मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिले। अमेरिकी रक्षा क्षेत्र ने इस फैसले का स्वागत किया है, जो उसे भारत की सालाना 16 बिलियन डॉलर की रक्षा खरीद पर पकड़ बनाने की अनुमति देती है। उम्मीद है कि 2025 तक यह आंकड़ा 80 बिलियन डॉलर हो जाएगा। भारत के लिए इसका मतलब हुआ करोड़ों नई नौकरियां।

और आखिर में, अमेरिका मोदी और उनकी बेमिसाल नेतृत्व की खूबियों की तरफ देख रहा है, ताकि सभी मसले तेजी से हल हों। मोदी समयबद्ध काम के लिए जाने जाते हैं। उनके लिए महत्वपूर्ण यह है कि भारत में राजनीतिक सहमति बनाएं, ताकि एक-दूसरे की सफलता में दोनों देशों की हिस्सेदारी हो। राजनीति अनुकूल आर्थिक मौकों पर सवारी करती है। मेक इन इंडिया अभियान आपसी कारोबारों को सरल बनाकर व भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धा के जरिये इन अवसरों को बढ़ाना चाहता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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