फोटो गैलरी

Hindi Newsकेंचुल परिवर्तन के दौर में कांग्रेस

केंचुल परिवर्तन के दौर में कांग्रेस

सियासत की अचरज भरी दुनिया में ‘पत्र-बमों’ की खास अहमियत है। राजनेता काल और परिस्थिति की गणना कर चतुराई से इसका इस्तेमाल करते हैं। आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने ही...

केंचुल परिवर्तन के दौर में कांग्रेस
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 31 Jan 2015 09:26 PM
ऐप पर पढ़ें

सियासत की अचरज भरी दुनिया में ‘पत्र-बमों’ की खास अहमियत है। राजनेता काल और परिस्थिति की गणना कर चतुराई से इसका इस्तेमाल करते हैं। आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने ही यह सिलसिला शुरू हो गया था। जयंती नटराजन इसकी ताजातरीन उदाहरण हैं। उन्होंने गुजरे शुक्रवार को ‘भरे हृदय’ से कांग्रेस को एक बार फिर अलविदा कहा। बकौल जयंती उनके वंश की पिछली तीन पीढ़ियां भी कांग्रेस के काम आ चुकी हैं। वह स्वयं सदैव ‘निष्ठावान’ कार्यकर्ता रही हैं। इस समय उन्होंने यह ‘निर्णय’ अपने वंश की ‘प्रतिष्ठा’ के बचाव में किया है। क्या वह सच बोल रही हैं?  हमारे पास उन्हें झूठा बताने के प्रमाण नहीं, पर कुछ सवाल जरूर हैं। जयंती ने जो दिन इस्तीफे के लिए चुना, उसी सवेरे दक्षिण के एक अखबार में वह खत प्रमुखता से छपा था,  जिसे उन्होंने नवंबर, 2014 में सोनिया गांधी को लिखा था। यह पत्र कैसे सार्वजनिक हुआ? क्या यह सब पूर्व निर्धारित था? इस ‘पत्र’ को ‘बम’ बनने में सवा साल का वक्त क्यों लगा?

यहां यह बता देना गैर-वाजिब नहीं होगा कि जयंती ने राजीव गांधी की हत्या के बाद जब पहली बार पार्टी छोड़ी थी, तब भी कांग्रेस की हालत डांवाडोल थी। क्या इस बार उनका फैसला अंतिम है?  इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने से पहले कांग्रेस के अंदरूनी खेमों में हो रही हलचल पर नजर डालते हैं। पिछले कुछ साल से देश की सबसे पुरानी पार्टी के सितारे ठीक नहीं चल रहे। पहले उसने एक-एक कर कई प्रदेश गंवाए और बाद में लोकसभा चुनावों ने उसे करारा आघात दिया। भारत के संसदीय इतिहास में कभी पार्टी की ऐसी गत नहीं बनी थी। 10 साल तक हुकूमत को हांकने वाली पार्टी खुद के लिए नेता विपक्ष की कुरसी तक नहीं जुटा सकी और आज लोकसभा में असाधारण तौर पर साधारण स्थिति में है।

लोकसभा के बाद चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को पुन: कठोर झटके झेलने पड़े। इस वक्त दिल्ली में चुनाव हो रहे हैं। लड़ाई भाजपा और आम आदमी पार्टी में है,  कांग्रेस को यहां भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जयंती नटराजन ने पार्टी की पतली हालत को अपनी पुरानी खुन्नस मिटाने के अवसर के तौर पर इस्तेमाल कर लिया?  जिस तमिलनाडु से वह आती हैं, वहां कुछ हफ्ते पहले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जी के वासन अपने साथियों के साथ पार्टी को ‘प्रणाम’ बोल चुके हैं। क्या जयंती पुराने सहयोगी वासन के रास्ते पर चलेंगी? राजनीति के पंडित एक और कयास लगा रहे हैं। उन्होंने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि अजय माकन ने मुझसे आग्रह किया था कि मैं दिल्ली आकर नरेंद्र मोदी पर लगाए जा रहे ‘फोन टैपिंग’ के आरोप के प्रकरण को गति प्रदान करूं।

क्या वह इसके जरिये प्रधानमंत्री की सहानुभूति अर्जित करना चाहती हैं? ध्यान रखें। नरेंद्र मोदी चुनावी सभाओं में ‘जयंती टैक्स’ का हवाला दे चुके हैं। हालांकि,  सुश्री नटराजन ने साफ कर दिया है कि वह फिलहाल कोई पार्टी ‘ज्वॉइन’ नहीं करेंगी, पर सियासत में ऐलान अक्सर तोड़ने के लिए किए जाते हैं। यह अभी नहीं कहा जा सकता कि जयंती नटराजन भारतीय जनता पार्टी में शामिल होंगी,  पर इतना जरूर है कि वह मौजूदा सरकार के करीब आना चाहती हैं। ऐसा करने के पीछे उनका यह भी मकसद हो सकता है कि यदि उनके मंत्री रहते हुए लिए गए फैसलों की जांच कराई जाए, तो सरकारी एजेंसियां उनसे रहम के साथ पेश आएं।

अगर ऐसा है,  तो हो सकता है कि कांग्रेस को आने वाले दिनों में कुछ और आश्चर्यों का सामना करना पड़े। इस अंदेश के पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले कुछ महीनों से तमाम राजनेता ऐसे बयान दे रहे हैं, जिसकी उनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। मसलन, मिलिंद देवड़ा ने यह कहकर सनसनी पैदा कर दी थी कि चुनावी पराजय की जिम्मेदार पूरी टीम है। माना गया था कि इस बयान के निशाने पर राहुल गांधी थे। मनमोहन सिंह सरकार में वित्त और गृह मंत्री जैसे जिम्मेदारी भरे ओहदे संभाल चुके पी चिदंबरम ने यह कहकर चौंका दिया था कि भविष्य में गांधी परिवार के बाहर का कोई व्यक्ति कांग्रेस की कमान संभाल सकता है। देवड़ा और चिदंबरम परिवार नेहरू-गांधी खानदान के करीबी रहे हैं। उनके बयानों के तमाम अर्थ निकाले गए।

इसी तरह दिल्ली चुनावों के दौरान कृष्णा तीरथ द्वारा पाला बदलना भी लोगों को सकते में डाल गया। कृष्णा लंबे समय से कांग्रेस में थीं और उन्हें मनमोहन सरकार में मंत्री पद से भी नवाजा गया था। क्या यह मान लें कि कांग्रेस के दुर्दिन शुरू हो गए हैं और नेतृत्व अपने बचाव में कामयाब होता नहीं दिख रहा है? ऐसा मान लेना जल्दबाजी होगी। कांग्रेस अतीत में भी ऐसे आघात झेल चुकी है। 1966 में लाल बहादुर शास्त्री की आकस्मिक मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री की कुरसी पर बैठीं। पहले दिन से ही वरिष्ठ नेता मोरारजी देसाई की अगुवाई में तमाम कद्दावर नेता उनके खिलाफ थे। तीन साल तक सियासी धींगामुश्ती चली।

12 नवंबर, 1969 को पार्टी का विभाजन हो गया। संगठन के सबसे घाघ नेता कामराज, निजलिंगप्पा, अतुल्य घोष, एस के पाटिल, सत्येंद्र नारायण सिंह, चंद्रभानु गुप्त, त्रिभुवन नारायण सिंह आदि मोरारजी भाई के साथ चले गए। आशंकाशास्त्रियों को तब भी लगता था कि इंदिरा गांधी इस आघात को नहीं झेल पाएंगी। हुआ क्या? ‘गूंगी गुड़िया’ मानी जाने वाली इंदिरा ‘लौह महिला’ साबित हुईं। 31 अक्तूबर, 1984 को जब उन्होंने आखिरी सांस ली, तो वह पार्टी की सर्वमान्य नेता थीं। उसी दिन राजीव गांधी सत्ता में आए। वह नौजवान थे और उनका काम करने का तरीका आधुनिक था।

पार्टी को एक बार फिर तमाम विभाजनों का सामना करना पड़ा। कभी मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, कभी वीपी सिंह, तो कभी मुफ्ती मोहम्मद सईद, आरिफ मोहम्मद खान, विद्याचरण शुक्ल, रामधन या सतपाल मलिक जैसे लोग आरोपों की बौछार के साथ किनारा करते रहे। प्रणब मुखर्जी और वी सी शुक्ल तो लौट आए, पर औरों का क्या हुआ? कांग्रेस छोड़ने के बाद वे कभी पहले जैसी बुलंदी पर नहीं पहुंचे। सिर्फ वीपी सिंह और मुफ्ती मोहम्मद सईद अपवाद साबित हुए। विश्वनाथ प्रताप प्रधानमंत्री बन बैठे और मुफ्ती मोहम्मद सईद उनके गृह मंत्री। सईद साहब बहुत जल्द भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से श्रीनगर में सरकार चलाते दिख सकते हैं।

क्या दुर्योग है!  मां की तरह राजीव गांधी की भी हत्या हुई। उनके बाद आए नरसिंह राव। पार्टी को फिर विभाजन से दो-चार होना पड़ा। इस बार बाहर जाने वालों में नारायण दत्त तिवारी,  अर्जुन सिंह और नटवर सिंह जैसे बड़े नाम थे। राव के बाद जब सोनिया गांधी ने पार्टी का कामकाज संभाला, तब ये लोग वापस चले आए। इसे कहते हैं राजनीति। यहां वफा-बेवफाई एक-दूसरे के चोले धारण करते रहते हैं।

इस समूचे वृत्तांत से साफ है कि जब-जब कांग्रेस में पीढ़ी परिवर्तन होता है या उसे पराजय का सामना करना पड़ता है, तब-तब उसे एक लड़ाई अपने घर के अंदर भी लड़नी पड़ती है। पार्टी इस समय पुन: उसी संक्रमण काल से गुजर रही है और अब बारी है, राहुल गांधी की। क्या वह अपनी यशस्वी दादी, आकर्षक पिता और स्थितप्रज्ञ मां द्वारा रचे गए वृत्तांत में नए अध्याय जोड़ पाएंगे? इसके लिए उन्हें कुछ समय देना होगा, क्योंकि उनका सफर अभी जारी है।

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें