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उम्र का स्वर्णकाल

पंडित बिरजू महाराज, गिरिजा देवी, पंडित जसराज, अमिताभ बच्चन, स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर जैसे कई कलाकार हैं, जो अपने जीवन के साठ से ज्यादा वसंत देख चुके हैं। लेकिन न उनके खुद के रंग फीके पड़े हैं और न...

उम्र का स्वर्णकाल
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 28 Jul 2014 08:32 PM
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पंडित बिरजू महाराज, गिरिजा देवी, पंडित जसराज, अमिताभ बच्चन, स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर जैसे कई कलाकार हैं, जो अपने जीवन के साठ से ज्यादा वसंत देख चुके हैं। लेकिन न उनके खुद के रंग फीके पड़े हैं और न उनकी कला के, बल्कि अनुभव ने उनकी कला को नया निखार दिया है। उनका अतीत ही नहीं, वर्तमान भी सबको प्रेरणा दे सकता है। सिर्फ कलाकार को ही नहीं, उन सबको भी, जो जीवन की संध्या में या तो पहुंच चुके हैं या उसके द्वार पर है। बुढ़ापा एक जैविक परिवर्तन है, जिसे रोका नहीं जा सकता। हर उम्र की तरह ही यह भी अपनी खूबियों और खामियों के साथ आता है। लेकिन बचपन और जवानी के मुकाबले उम्र का यह अकेला पड़ाव है, जो जीवन भर साथ निभाता है।

जरूरत दरअसल उस सोच से मुक्ति पाने की है, जो बुढ़ापे को जीवन का सूर्यास्त मान लेती है, जबकि भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में ही शास्त्रीय कला जगत में कलाकारों को 50 के बाद ही प्रसिद्धि मिलती है। यह भी माना जाता है कि अर्थपूर्ण जीवन तो 50 वर्ष की उम्र के बाद ही शुरू होता है। इससे पहले तो इंसान खुद और अपने परिवार को बनाने में लगा रहता है। इन जिम्मेदारियों से मुक्ति पाकर इस उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अपनी सारी क्षमताओं का इस्तेमाल करने के लिए वे स्वतंत्र हो जाते हैं। इतिहास उठाकर देखें, तो महापुरुषों के जीवन में 50 की आयु पार करने के बाद ही क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। गुजराती में बुढ़ापे को ‘घड़पण’ कहा जाता है, जिसमें घ-घड़ा-निर्मित, ड़- समझदार, प-पवित्र, ण-तीनों गुणों से युक्त व्यक्तित्व। यानी एक ऐसी उम्र, जिसके पास हमें और हमारी नई पीढ़ियों को देने के लिए सभी तरह के जरूरी मूल्य पूरी समझदारी और पवित्रता के साथ होते हैं। इसलिए बुढ़ापा कोई समस्या नहीं, वरदान है।

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