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कावेरी में फिर उठा सियासी ज्वार

जब उत्तर भारत,  खासकर दिल्ली सर्दियों की सिहरन से निपटने की तैयारी में जुटी है,  तब देश के दक्षिणी इलाके बारिश से भीग रहे हैं। इस साल इंद्रदेव ने दक्षिण भारत पर खास मेहरबानी दिखाई है।...

कावेरी में फिर उठा सियासी ज्वार
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 16 Nov 2014 07:45 PM
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जब उत्तर भारत,  खासकर दिल्ली सर्दियों की सिहरन से निपटने की तैयारी में जुटी है,  तब देश के दक्षिणी इलाके बारिश से भीग रहे हैं। इस साल इंद्रदेव ने दक्षिण भारत पर खास मेहरबानी दिखाई है। नतीजतन, तटवर्ती आंध्र, तमिलनाडु और कर्नाटक में रिकॉर्ड बारिश जारी है। भारत में होने वाली कुल वर्षा में 80 प्रतिशत योगदान दक्षिण-पश्चिमी मानसून का होता है। यह मानसून जून से शुरू होकर सितंबर महीने तक बरसता है। केरल से प्रवेश करने वाला यह मानसून भारत की विशाल पट्टी सराबोर करता है,  लेकिन तमिलनाडु जैसे कुछ इलाके इससे वंचित रह जाते हैं। सितंबर में जब दक्षिण-पश्चिम मानसून खत्म हो रहा होता है,  तब उत्तर-पूर्वी मानसून अपनी रफ्तार पकड़ता है और तमिलनाडु, खासकर चेन्नई में होने वाली 60 प्रतिशत बारिश इसी उत्तर-पूर्वी मानसून की बदौलत होती है। यह मानसून पूरे दिसंबर तक अपने वजूद में रहता है। जाहिर है,  तमिलनाडु और पड़ोसी कर्नाटक के किसानों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण समय है। आखिर एक अच्छा मानसून और उसके कारण हुई बेहतर पैदावार जनवरी के मध्य में पड़ने वाले पोंगल के चार दिनों के उत्सव को जोश और उत्साह से जो भरते हैं।

वास्तव में,  यह कुदरत का शुक्रिया अदा करने का उत्सव है। तमिलनाडु में लोग इस मौके पर अपने गांव जरूर जाते हैं। चूंकि तमिलनाडु देश के सबसे शहरीकृत सूबों में से एक है,  इसलिए वहां की विशाल आबादी अपने राज्य के विभिन्न शहरों में रहती है और पोंगल के दिनों में ट्रेनों में टिकट मिलने मुश्किल हो जाते हैं और ट्रैफिक की समस्या खड़ी हो जाती है। इन चार दिनों में राज्य के शहर लगभग खाली हो जाते हैं। तमिलनाडु और कर्नाटक में कावेरी नदी-जल बंटवारे को लेकर दशकों से विवाद रहा है। और यह विवाद भी तब-तब कटु मोड़ लेता रहा, जब-जब मानसून कमजोर पड़ा,  बारिश कम हुई। इसलिए जब पिछले सप्ताह ये दोनों राज्य कावेरी को लेकर फिर विवाद में उलझ पड़े, तो लोगों को आश्चर्य हुआ। इसकी शुरुआत उस वक्त हुई,  जब कर्नाटक सरकार ने मेकेदातु घाटी में एक बांध बनाने के तकनीकी औचित्य को परखने के लिए ‘ग्लोबल एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट’ की पहल की। इस बांध की जल संग्राहक क्षमता 48 टीएमसी होगी।

इससे बेंगलुरु व पुराने मैसूर के कुछ हिस्सों को जल-आपूर्ति करने की योजना है। कर्नाटक के जल-संसाधन मंत्री एम बी पाटिल का कहना है कि कर्नाटक ने इस परियोजना को लेकर कानूनी राय ली है और इससे कावेरी जल-विवाद ट्रिब्यूनल के आदेश का किसी तरह से उल्लंघन नहीं होता,  इसलिए राज्य सरकार इस दिशा में आगे बढ़ेगी। पाटिल का कहना है कि यह परियोजना 1960 के दशक से ही लटकी पड़ी है और कर्नाटक को इसके निर्माण का पूरा हक है, क्योंकि यह उसके अपने इलाके में बनाई जाएगी। पाटिल के इस बयान के सार्वजनिक होते ही उसके विरोध का सिलसिला भी शुरू हो गया। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ओ पनीरसेल्वम ने तुरंत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर मांग की कि वह कर्नाटक को इस परियोजना पर आगे बढ़ने से रोकें। अपने पत्र में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने यह दलील दी कि चूंकि तमिलनाडु निचला तटवर्ती इलाका है,  इसलिए इस परियोजना से राज्य के उन किसानों के हितों को गहरी चोट पहुंचेगी, जो अपनी खेती-किसानी के लिए कावेरी-जल पर आश्रित हैं।

करुणानिधि और राज्य के दूसरे बड़े नेताओं ने भी इस विरोध में अपने स्वर मिलाए हैं और उन्होंने मांग की है कि राज्य सरकार तत्काल सर्वदलीय बैठक बुलाए,  ताकि इस मसले पर विचार किया जा सके। कावेरी नदी वेस्टर्न घाट से निकलती है और बंगाल की खाड़ी में गिरने से पहले अपने 800 किलोमीटर के सफर में यह कर्नाटक,  तमिलनाडु,  केरल और पुडुचेरी से होकर गुजरती है। दक्षिण-पश्चिम मानसून की बारिश कर्नाटक के दक्षिणी जिलों और कावेरी बेसिन पर बरसती है। इस मौसम में कर्नाटक के पास पर्याप्त जल भंडार होता है,  मगर तमिलनाडु के जिले सूखे ही रहते हैं। दरअसल,  दोनों राज्यों के बीच विवाद का जन्म इसी से होता है और जल भंडारण के लिए कर्नाटक द्वारा बांध बनाने की किसी योजना का तत्काल तमिलनाडु में विरोध शुरू हो जाता है। इन दोनों राज्यों के बीच कावेरी-जल विवाद सदियों पुराना है।

कावेरी के जल को लेकर इनमें पहला समझौता ब्रिटिश काल में सन 1892 में हुआ था। तब मैसूर राज्य ने इस बात पर सहमति जताई थी कि मद्रास की अनुमति के बिना वह कावेरी नदी पर कोई बांध नहीं बनाएगा। फिर वर्षों के मोलभाव के बाद 1929 और 1933 में दो ऐतिहासिक समझौतों पर दस्तख्त किए गए। लेकिन विवाद खत्म नहीं हुआ, क्योंकि कर्नाटक और तमिलनाडु के अलावा केरल और पुडुचेरी भी इसमें कूद पड़े। आखिरकार, 1990 में एक ट्रिब्यूनल का गठन हुआ और साल 2007 में इसने अपना अंतिम फैसला दिया। लेकिन कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच विवाद अब भी कायम है। भारत में नदी-जल बंटवारे को लेकर गठित ट्रिब्यूनल एक प्रभावी तंत्र की भूमिका निभाने में सफल रहा है। यह एक बेहद ताकतवर निकाय है और इसके आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती। इसका सैद्धांतिक अर्थ यही है कि यदि ट्रिब्यूनल ने कोई फैसला दिया,  तो संबंधित पक्षों के प्रशासनिक तंत्रों को उसे हर हाल में लागू करना होगा। इस लिहाज से देखें,  तो ट्रिब्यूनल ने तमिलनाडु का 419 टीएमसी जल का अधिकार दिया है,  जबकि कर्नाटक को 270 टीएमसी,  केरल को 30 टीएमसी और पुडुचेरी को सात टीएमसी का। लेकिन कर्नाटक और तमिलनाडु,  दोनों ने इस आदेश का विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट में विशेष याचिका डाल दी।

साफ है,  ट्रिब्यूनल के अवॉर्ड के बाद भी इन दोनों राज्यों में तनातनी कायम है और इसकी वजह हैं इनके राजनेता व केंद्र की कमजोर प्रशासनिक पकड़। एक और समस्या यह भी है कि ट्रिब्यूनल का फैसला उस सूरत पर गौर नहीं करता,  जब कि बारिश कम हो और सूखे जैसे हालात हों। यही कारण है कि साल 2012 में दोनों देशों के बीच यह मसला काफी बदतर मोड़ पर पहुंच गया था। खेती-किसानी में आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों के इस्तेमाल से ये राज्य अब भी दूर हैं। एक पक्ष यह कहता है कि तमिलनाडु में नदी के किनारे बसे इलाकों में कावेरी जल का इस्तेमाल बेहद लापरवाही से होता है। दूसरे क्षेत्रों में भी सीमित संसाधनों के किफायती इस्तेमाल को लेकर कोई चिंता नहीं दिखती। एक के बाद दूसरी सरकारें व राजनेता केवल इस मामले का इस्तेमाल करने और दोनों राज्यों के लोगों को आपस में लड़ाने को उद्धत दिखते हैं।

हालांकि, फिलहाल इन दोनों राज्यों की तनातनी युद्ध जैसी स्थिति में नहीं पहुंची है, लेकिन अतीत में कई जानें इस वजह से जा चुकी हैं। इस साल बारिश अच्छी हुई है,  इसलिए बहुत घातक हालात नहीं पैदा होने चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या केंद्र नींद से जागेगा? क्या वह इस मसले के जल्द से जल्द निपटारे के लिए दखल देगा? इसकी उम्मीद कम ही है,  क्योंकि हम एक ऐसा मुल्क हैं,  जो दीवार के पूरी तरह टूटने से पहले दरारों को भरने की कोशिश नहीं करता। क्या कावेरी विवाद इसका अपवाद बन सकता है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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