अब भी कायम है दास प्रथा
नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी बोल रहे थे- ‘मैं एक बार अफ्रीका के उस इलाके में गया, जहां बच्चे कोको बीनने का काम करते हैं। आप जानते हैं, कोको से ही चॉकलेट बनती है। मैंने वहां...
नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी बोल रहे थे- ‘मैं एक बार अफ्रीका के उस इलाके में गया, जहां बच्चे कोको बीनने का काम करते हैं। आप जानते हैं, कोको से ही चॉकलेट बनती है। मैंने वहां काम कर रहे एक बच्चे से पूछा कि तुम्हें चॉकलेट कैसी लगती है? उसने पूछा, चॉकलेट? यह क्या होता है?’
कैलाश सत्यार्थी ‘हिन्दुस्तान टाइम्स लीडरशिप समिट’ में देश-विदेश के नामी लोगों से रूबरू थे। उनके भाषण का लब्बोलुआब यह था कि तेजी से आगे बढ़ती दुनिया में बच्चे पीछे छूटते जा रहे हैं। सवाल उठता है, क्या सिर्फ बच्चे पीछे छूटे जा रहे हैं? नहीं, विकास की इस दौड़ में इंसानियत अपने उस वजूद को ही खो रही है, जिसे उसने हजारों साल में तराशा था।
चर्चा चॉकलेट से शुरू हुई थी, इसलिए पहले उसकी बात। पूरी दुनिया में पारंपरिक मिठाइयों को चॉकलेट की आक्रामक मार्केटिंग लील रही है। डॉक्टर भले ही कहें कि मीठा नुकसानदेह होता है, पर यह सच है कि दुनिया के हर देश में इसका अपना महत्व है। खुद हिन्दुस्तान में, जहां किसी भी शुभ कार्य से पहले और बाद में मिठाई खिलाने का रिवाज रहा हो, वहां अब मीठे का मतलब चॉकलेट साबित किया जा रहा है। वैसे ही, जैसे ठंडे का अर्थ, किसी खास पेय से लगाया जाने लगा है।
मैं विज्ञापनों के खिलाफ नहीं हूं। हर व्यापारी को हक है कि वह अपना माल बेचे, पर उसके साथ ही उसका और उसके माल का उपभोग करने वालों का कुछ दायित्व भी बनता है। जब भी हम अपनी भरी हुई जेबों का उपयोग स्वाद या आराम के लिए करें, तो आत्मकेंद्रित होकर न रह जाएं, थोड़ा दुनिया के बारे में भी सोचें। विषमता भरी धरती न खुद चैन से जीती है, न जीने देती है।
चॉकलेट के लिए जरूरी कोको का एक-तिहाई से ज्यादा उत्पादन आइवरी कोस्ट में होता है। इसको बीनने के लिए बड़ी संख्या में बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने लगभग 10 बरस पहले एक सर्वेक्षण में पाया था कि दो लाख से अधिक बच्चे बतौर मजदूर इसमें झोंक दिए गए हैं। इस एक दशक में यकीनन बाल मजदूरों की तादाद में बढ़ोतरी हुई होगी। वजह? आइवरी कोस्ट एक गरीब देश है। वहां लोगों को दो वक्त का भोजन मुहाल है। बदकिस्मती से उसके जैसे तमाम छोटे देश इस अंधी दौड़ में शामिल हैं। घाना, नाइजीरिया, कैमरून, ब्राजील, इक्वाडोर में भी कोको बीनने के लिए अबोध बच्चों का दुरुपयोग कड़वी हकीकत है। कमाल देखिए, यह कड़वाहट उस मिठास की उपज है, जिसकी दुनिया दीवानी है।
खुद हमारा देश इस दुर्भाग्य का मारा है। भारत का बासमती चावल पूरी दुनिया में मशहूर है। वर्ष 2013-14 में लगभग 37.57 लाख टन बासमती का निर्यात किया गया था। इससे करीब 29,300 करोड़ रुपये की कमाई हुई, जो पिछले वित्तीय वर्ष के मुकाबले 10,000 करोड़ अधिक है। उम्मीद है, अगले साल यह आंकड़ा और तंदुरुस्त हो जाएगा। मंत्रालय से लेकर विभिन्न निर्यातक घरानों तक में इस पर ‘प्रेजेंटेशन’ दिखाए जाएंगे और तालियां बजेंगी। उत्सव के इस माहौल में हम उन किसानों को याद नहीं करेंगे, जो इसे पैदा करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, पर उनके घर इस चावल की खुशबू से अछूते रहते हैं।
यही हाल आम का है। पूरी दुनिया में आम की करीब 40 फीसदी पैदावार भारत में होती है। क्या गजब की नस्लें हमारी धरती की पैदाइश हैं- हापूस (अलफान्सो), मलीहाबादी दशहरी, केसर, तोतापरी या फिर चौसा। सात समंदर पार लोग इनके स्वाद और खुशबू के दीवाने हैं। एक अनुमान के मुताबिक, हम 250 करोड़ रुपये से अधिक का आम निर्यात करते है, पर कितने हिन्दुस्तानी ऐसे हैं, जिन्हें हापूस या तोतापरी खाने को उपलब्ध हैं? कुछ साल पहले कनॉट प्लेस की एक दुकान में मैंने बेहतरीन डिब्बे में पैक आमों की कीमत पूछी थी। उस पैकेट के 24 आमों का मूल्य था ढाई हजार रुपये। कीमत सुनकर भरी गरमी में कंपकंपी छूट गई थी। यही हाल मनाली के सेब का है।
किसानों के देश में अगर धरती के बेटे खुद अपने उत्पाद से वंचित रह जाते हैं, तो वे धरती पुत्र हैं या खेतिहर मजदूर?
ये तो कुछ उदाहरण हैं, सूची काफी लंबी है। अमेरिका और उसकी सरपरस्ती में पनप रहे बहुराष्ट्रीय दानवों के लिए विकासशील देश सिर्फ उत्पादक अथवा उसके माल के उपभोक्ता भर हैं। इसीलिए इन देशों में जब श्रम सुधारों का नारा उछाला जाता है, तो वहां के लोग कांपने लग जाते हैं। इन ‘सुधारों’ की वजह से जितनी नौकरियां पैदा होती हैं, उससे कहीं ज्यादा उनके जाने का खतरा भी आकार ले रहा होता है। इसके उलट, विकसित देश अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए सख्त कानून बनाते हैं। मसलन, वे जब अपने लिए कोई वाहन बनाते हैं, तो उसके मानदंड अलग होते हैं और एशियाई व अफ्रीकी देशों के लिए अलग। यही वजह है कि जितनी तेजी से वाहन बढ़ रहे हैं, उतनी ही तीव्रता से हादसे भी।
हादसों पर भोपाल गैस त्रासदी याद आ गई। अगली दो दिसंबर को इस भीषण विभीषिका के 30 साल पूरे हो जाएंगे। जिस देश में लगभग आधी आबादी 30 वर्ष से कम की हो और जो अपनी विशालता पर आत्ममुग्ध हो, उसके लिए यह दुर्घटना आंख खोल देने वाली है। दो दिसंबर,1984 की रात को तकरीबन 11 बजे जब शहर सर्दी की हवा से लोरियां सुन रहा था, तभी यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से रिसने वाली गैस ने उनकी सांसों को दमघोटू बना दिया। कुछ ही घंटों में तीन हजार आठ सौ लोगों ने तड़प-तड़पकर दम तोड़ दिया। कितने मरे, कितनों की देह क्षतिग्रस्त हो गई? आने वाली पीढ़ियों पर इसका क्या असर पड़ा? इस पर तरह-तरह के शोध किए गए। जितने शोधकर्ता, उतने तर्क और उतने ही आंकड़े। एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, कार्बाइड के कारखाने से निकली गैस ने लगभग 20 हजार लोगों का दम घोट दिया था। किसी सिकंदर, चंगेज खां या हलाकू ने एक दिन में एक शहर में इतने लोगों के सिर कलम नहीं किए। कार्बाइड ने मानवता के कलंक माने जाने वाले सारे वहशियों के कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया। इस महादुर्घटना के तीन दशक बाद भी बहुत से लोग न्याय का इंतजार कर रहे हैं।
इंसाफ इस मुल्क में कमजोरों के लिए कितना दुर्लभ है?
क्या आपको नहीं लगता कि इक्कीसवीं शताब्दी बदले हुए नारों और लुभावने वायदों के साथ एक बार फिर 700 साल पीछे लौट रही है। उन दिनों यूरोप में औद्योगिक पुनर्जागरण हो रहा था। इंग्लैंड, फ्रांस, पुर्तगाल या हॉलैंड जैसे देश संस्कृति संपन्न देशों को सिर्फ इसलिए गुलाम बना रहे थे, क्योंकि वे उनकी तरह बर्बर नहीं थे। उन्होंने संस्कृति के विकास पर जोर दिया था, खून की प्यासी सेनाओं पर नहीं। इसीलिए उन्हें आसानी से गुलाम बना दिया गया। जहां काम करने के लिए मजदूर नहीं थे, वहां इन मुल्कों से जबरन श्रमिक भेजे जाते थे। फिजी और मॉरीशस जैसे देश तो सिर्फ ऐसे ‘गिरमिटियों’ से ही बस गए।
मतलब साफ है। दास प्रथा पर कानूनी तौर पर रोक तो लग गई, पर वह आज भी कायम है। बस, उसने नए मुखौटे ओढ़ लिए हैं।