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ली कुआन की विरासत के सबक

ली कुआन यू की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए मैं पिछले दिनों सिंगापुर में था। सिंगापुर के संस्थापक पिता के रूप में वह हालिया इतिहास में सबसे लंबे समय तक (1959-1990) प्रधानमंत्री रहे। दो साल पहले...

ली कुआन की विरासत के सबक
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 02 Apr 2015 09:02 PM
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ली कुआन यू की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए मैं पिछले दिनों सिंगापुर में था। सिंगापुर के संस्थापक पिता के रूप में वह हालिया इतिहास में सबसे लंबे समय तक (1959-1990) प्रधानमंत्री रहे। दो साल पहले तक, 89 साल की आयु में भी वह नीति-निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाते रहे। उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होकर हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की महत्वपूर्ण सेवा की है। बल्कि रविवार को हमारे यहां भी राष्ट्रीय शोक घोषित था। हमारे इस व्यवहार ने सिंगापुर के नागरिकों के दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ा। सिंगापुर के पूर्व विदेश मंत्री जॉर्ज यू ने, जिनके साथ मैंने कुछ समय बिताया, मुझे बताया कि इस प्रतीकात्मक कदम ने उन सबके दिलों पर गहरा असर डाला है और वे इसके बड़े एहसानमंद हैं। मोदी का यह स्वनिर्णय उनके उच्च नेतृत्व क्षमता को दर्शाता है। नेता न सिर्फ अपने अनुभवों से उभरते हैं, बल्कि सही मौके की समझ भी इसमें अहम भूमिका निभाती है। सही समय और सही अवसर को चुनना एक निर्णायक नेतृत्व की विशेषता है।

हर कोई जानता है कि इंदिरा गांधी और ली कुआन के कूटनीतिक संबंध गर्मजोशी से भरे नहीं थे। भारत के पास तिरस्कार का यह भाव था कि एक छोटे-से शहर जैसे देश के नेता को हम जैसे जटिल देश को आर्थिक उदारीकरण का पाठ नहीं पढ़ाना चाहिए। हम उनके परामर्श को संशय भरी निगाहों से देखते थे। खुद ली कुआन भी भारत को लेकर निराशा का भाव रखते थे, क्योंकि भारत उन अवसरों का फायदा नहीं उठा रहा था, जो उसकी तकदीर बदल सकते थे। 1990 के दशक में हमारे यहां उदारीकरण की नीति लागू होने के बाद ली कुआन के विचारों में कुछ-कुछ परिवर्तन आया। बीते 20 वर्षों में भारत-सिंगापुर की दोस्ती और साझेदारी सार्थक रूप से गहरी हुई है। भारत उनके लिए लोकतांत्रिक ढांचे के तहत एक बड़ी जनसांख्यिकी व विशाल मांग वाला देश था, जो प्रबंधकीय कौशल व प्रौद्योगिकी का एक बड़ा बाजार था।

यह कोई रहस्य नहीं है कि साल 1965 में मलयेशिया से सिंगापुर के बंटवारे के बाद यह तेजी से तीसरी दुनिया के देशों से विकसित अर्थव्यवस्था की कतार में आ गया। इसकी प्रति व्यक्ति आय, जो साल 1965 में 540 अमेरिकी डॉलर थी, वह साल 2014 में 54,040 डॉलर पर पहुंच गई। वह कारोबार के लिहाज से सबसे सुभीते वाले देशों की सूची में लगातार शीर्ष पर रहा है, साथ ही सफल सार्वजनिक-निजी भागीदारी का भी एक उदाहरण है। इसके बावजूद, कई लोग सिंगापुर को परिवार संचालित तंत्र मानते हैं। समयबद्ध चुनाव और सक्रिय पार्लियामेंट के बावजूद इसने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को दबाया, मीडिया को अनुशासन में रहने को बाध्य किया। देश का युवा तबका इन नियंत्रणों के प्रति लगातार विरोध जताता रहा है। एक ऐसे देश में, जिसका कुल भौगोलिक दायरा 700 वर्ग किलोमीटर से अधिक नहीं है और जिसकी 50 लाख की जनसंख्या बूढ़ी हो रही है, निरंतर प्रवास ने सामाजिक बेचैनी को बढ़ाया है।

बेबाकी के साथ कहें, तो सिंगापुर की सफलता की कहानी में भारत के लिए चार सबक हैं। पहला,  सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को यदि भरपूर स्वायत्तता दी जाए, उन्हें उनसे संबंधित ज्ञान और उम्दा तकनीकी मुहैया कराया जाए, तो उत्पादकता को बढ़ाना और विकास करना संभव है। सिंगापुर एयरलाइंस, चांगी एयरपोर्ट और महत्वपूर्ण आधारभूत परियोजनाओं को सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी टेमासेक संचालित करती है। सार्वजनिक क्षेत्र को सुचारु रूप में और सक्षम तरीके से चलाना तथा उसकी दक्षता बढ़ाते सिद्धांत व उत्पादकता सचमुच दोहराने के लायक हैं। दूसरा, सिंगापुर शहरी योजना और जल-प्रबंधन तंत्र के मामले में एक शानदार उदाहरण है। वहां एक बूंद पानी भी बरबाद नहीं होता। पानी की जितनी मात्र उपयोग में आती है, उसका रिसाइकिल किया जाता है और साथ ही, वर्षा-जल का प्रभावी परिशोधन होता है। जल संरक्षण तंत्र और शहरी योजना, दोनों हमारे लिए प्रासंगिक हैं, क्योंकि हम पानी की कमी और अनियोजित शहरीकरण की समस्याओं से लगातार जूझ रहे हैं।

सिंगापुर सबसे स्मार्ट सिटी है। इस वास्तविकता को आंध्र पद्रेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने तुरंत भांपा और राज्य की नई राजधानी अमरावती के निर्माण में सिंगापुर से मदद मांगी है। हम शहरों के लिए ऐसा कर सकते हैं और स्मार्ट शहरों को अधिक ठोस सुविधाएं उपलब्ध करा सकते हैं। तीसरा,  नियंत्रित पूंजीवाद के लिए अक्सर चीन का उदाहरण पेश किया जाता है। इनोवेटिव संस्कृति में निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन, प्रौद्योगिकी के उत्थान, बड़े प्रबंधकीय कौशल और सार्वजनिक संसाधनों से उनको जोड़ने की कला, ये सब मिलकर सार्वजनिक-निजी भागीदारी का मॉडल तैयार करते हैं, जिसकी हमें जरूरत है। जोखिम-निर्धारण, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ के दुर्गंध को दूर करने व तमाम हितधारकों को पर्याप्त लाभ सुनिश्चित करने के संदर्भ में भारत अपने पीपीपी मॉडल को व्यवस्थित करने का प्रयास कर रहा है।

चौथा, श्रम कानूनों को बनाने में सिंगापुर का पारदर्शी प्रशासकीय तंत्र भारत के लिए सीख है। यहां पर अब श्रम-कानूनों में सुधार के मुद्दे ने नीति-नियंताओं का ध्यान आकृष्ट किया है। इसके अलावा, जहां भारत में मजदूर संगठनों की सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति निवेश घटाती है, वहीं सिंगापुर इस शक्ति का इस्तेमाल शिक्षा और अन्य सामाजिक सेवाओं को सुधारने के लिए करता है। आखिर में,  सिंगापुर और उसके महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर जोर, मानव संसाधन विकास में निवेश, कौशल-शिक्षा प्रदान करना व भ्रष्टाचार निवारण के लिए नौकरशाहों को ऊंची तनख्वाहें देना, ये हमारे लिए महत्वपूर्ण सीख हैं। यह सच है कि सिंगापुर एक शहरीकृत देश है। इससे भी बड़ा सच यह है कि इसके पास न तो जनसंख्या संबंधी लाभ हैं और न ही वहां भाषा, जाति और धर्म के जटिल संघर्ष है, हमारे जैसे तंत्र में ये हैं। हां, छोटा हमेशा सुंदर नहीं होता, लेकिन सिंगापुर जैसे छोटे शहरीकृत देश के पास हमारे लिए कई सारी सीखें हैं।

ली कुआन की विरासत भारत को उसके चूके अवसरों की याद दिलाती रहेगी, और इस बात की भी कि हमारे नेताओं के अहंकार व उनकी अक्षमता ने हमारे आर्थिक और सामाजिक सुधारों को तब तक टाले रखा, जब तक कि हमारी आर्थिक बदहाली ने उसके लिए हमें मजबूर नहीं कर दिया। वैसे सीखने के लिए कोई देरी नहीं होती। आखिरकार हमने भी सफलतापूर्वक सुधार की राह पकड़ी। सिंगापुर के साथ गहरी साझेदारी को बढ़ावा देकर हम उसके संस्थापक पिता की विरासत से सही सीखों को अपना रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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