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अर्थव्यवस्था का रफ्तार पकड़ना

दुनिया की नजरें फिर से भारत पर हैं। तो क्या भारतीय विकास की रफ्तार नई उड़ान भर रही है? पहली बार इसने उड़ान 1990 में भरी थी, काफी ऊंचाइयां भी पाईं। 2004 के बाद रफ्तार थमी, लेकिन साफ तौर पर 2009 के बाद...

अर्थव्यवस्था का रफ्तार पकड़ना
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 17 Apr 2015 09:39 PM
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दुनिया की नजरें फिर से भारत पर हैं। तो क्या भारतीय विकास की रफ्तार नई उड़ान भर रही है? पहली बार इसने उड़ान 1990 में भरी थी, काफी ऊंचाइयां भी पाईं। 2004 के बाद रफ्तार थमी, लेकिन साफ तौर पर 2009 के बाद यह फिर दिखी है। क्या हमने अतीत की बाधाओं से पीछा छुड़ा लिया है? क्या हमने वाकई नई रफ्तार पकड़ ली है? विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की वासंती बैठक में इस साल की हमारी विकास दर को 7.5 प्रतिशत आंका गया है, और अगले वित्त वर्ष के लिए 7.9 प्रतिशत की उम्मीद बांधी गई है। पिछले हफ्ते ही कुछ महत्वपूर्ण रेटिंग एजेंसियों ने देश के आउटलुक को ‘नकारात्मक’ से सुधारकर ‘स्थिर’ आंका। एक और महत्वपूर्ण रेटिंग एजेंसी ‘मूडी’ ने तो इसे ‘स्थिर’ से ‘सकारात्मक’ का दर्जा दिया। इन सबका क्या मतलब निकलता है? क्या हालात अनुकूल बन रहे हैं या अभी कसर बाकी है? कुछ संशयवादी यह मानते आ रहे हैं कि जमीनी हकीकत इस तरह के आशावाद से मेल नहीं खाती। जैसे, ऋण-जमा और कुल व्यापार के आंकड़े अभी पीछे हैं। ग्रामीण मांग वाली महत्वपूर्ण उपभोक्ता वस्तुओं, जैसे मोटरसाइकिल और ट्रैक्टर की खरीद में कमी आई है। क्या इन सबका मतलब यह है कि आशावाद के साथ जमीनी हकीकत का तालमेल नहीं बैठता? तेजी से फैसले लेने या निवेशकों की संवेदनाओं को जीतने से ही जमीनी हकीकत बदलती है।

नई परियोजनाओं के आकार लेने और यहां तक कि शुरू होने के लिए निवेशकों की संवेदनाओं को जीतना होगा, जिसमें समय लगता है। वैसे, महत्वपूर्ण बदलाव शुरू हो चुके हैं और आने वाले महीनों में इसके प्रभाव दिखने भी लगेंगे। रेटिंग एजेंसियों के आकलन के मायने गहन जांच के लायक होते हैं। रेटिंग एजेंसियां देश के प्रदर्शन, उसके सामने मौजूद चुनौतियों और मौकों का आकलन कई पैमानों पर करती हैं। ये एजेंसियां मौकों और चुनौतियों, दोनों के आधार पर निजी उद्यमों के लिए संकेत देती हैं। काफी समय पहले की बात नहीं है, इस सरकार के आने से पहले ही पुरानी यूपीए सरकार के आखिरी महीनों में हड़बड़ी में कई सारे काम हुए, जिनसे साख गिरी। यह महसूस किया गया कि इस तरह की गिरावट चालू खाते के घाटे पर आगे भी दबाव बना सकती है, नतीजतन पूंजी बाहर जाएगी और बाहर से पूंजी के आने में अधिक मुश्किलें आएंगी, खर्च भी बढ़ेंगे। यह विनिमय दर और कई सारे बाहरी व अनियंत्रित कारकों को बिगाड़ने का एक दुष्चक्र हो सकता है, जिनसे किसी भी आर्थिक संगठन के फैसले प्रभावित हो सकते हैं। रेटिंग में आया सुधार इन रुझानों के पलटने का संकेत है। ये क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां कई कारकों से प्रभावित हुई हैं।

पहला, मैक्रोइकोनॉमी की तस्वीर में निर्णायक सुधार आया है। वित्त मंत्री ने बीते वित्त वर्ष में 4.1 फीसदी के कठिन लक्ष्य को पाने के दौरान वित्तीय सादगी की राह का समर्थन किया। उन्होंने अगले दो लगातार वर्षों में वित्तीय घाटे को तीन प्रतिशत तक लाने का नक्शा खींचा है। पेट्रोलियम सब्सिडी की तर्कसंगत व्याख्या का भी सकारात्मक असर पड़ा है। अनुकूल रुझानों ने रिजर्व बैंक को बीते छह महीने में दो बार ब्याज दर घटाने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके लाभ तेजी से हो रहे हैं। आरबीआई और वित्त मंत्रालय के बीच हुई नई मॉनिटरी पॉलिसी फ्रेमवर्क एग्रीमेंट सरकार और आरबीआई के पूरे दृष्टिकोण को एक साथ लाने का काम करेगी। साफ है, मौद्रिक नीति व वित्तीय नीति अब लगभग जुड़ी होंगी। कारोबार करने में आसानी हो, इसके लिए जो लगातार प्रयास हो रहे हैं, उनसे निवेशकों का भरोसा घरेलू और विदेशी, दोनों मोर्चो पर बढ़ा है।

वहीं, कारोबार में आसानी के लिए की गई सरकारी पहलों ने निवेशकों के भरोसे को देश के अंदर और बाहर, दोनों जगहों पर बहाल करने में मदद की है। इन पहलों में शामिल हैं, सरलीकृत श्रम कानून और विवादित प्रस्तावों पर विशेषज्ञ संगठन बनाना, कई अदालतों में विशेष वाणिज्यिक विभाग बनाना और सरलीकृत जमीन अधिग्रहण कानून की उम्मीद। रक्षा व बीमा में एफडीआई की बढ़ी सीमा तथा आधारभूत ढांचों के विकास के वादे ने भी अपनी भूमिका निभाई है। दूसरा, सुधार प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में रेटिंग एजेंसियों द्वारा मिली इस पदोन्नति ने निवेशकों के भरोसे को धीरे-धीरे लौटाया है। अर्थव्यवस्था में पूंजी का अंदर आना मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत, निर्मल गंगा और एफोर्डेबल हाउसिंग तथा अन्य अभियानों की सफलता है।

रोजगार पैदा करने, ग्रामीण आधारभूत संरचनाओं को सुधारने और समावेशी विकास को बढ़ावा देने में इन सबके कई प्रभाव दिखेंगे। ऐसे में, सवाल है कि क्या हम बदतर हालात पीछे छोड़ आए हैं? बेशक, यह अब जाहिर हो चुका है। आगे जो बदलाव होने हैं, वे इन चीजों पर निर्भर करेंगे: राजस्व जमा करने के रास्ते पर बने रहना और कई बजट प्रस्तावों को लागू करने का निश्चय करना, खास तौर पर वैधानिक बदलावों, जैसे नया दिवालिया कानून, विवाद सुलझाने का नया तंत्र, हाईकोर्ट में वाणिज्यिक बेंच निर्धारित करना तथा वित्तीय क्षेत्र के दूसरे कानून। इसके अलावा, आधारतभूत संरचना के क्षेत्र में परिवर्तन को जारी रखना भी अहम होगा, जो रुकी हुई ऊर्जा व सड़क परियोजनाओं को फिर से बढ़ावा देगा। विधेयकों को पास करने में सरकार का रिकॉर्ड बढ़िया रहा है। वह बड़ी स्वीकृति के लिए भूमि कानूनों में बदलावों से जुड़ी रही, जबकि इसमें विकास को केंद्र में रखा और इसका भी ख्याल रखा कि विकास व किसान के हित जुड़े रहें।

आगे भी यह रवैया बनाए रखना होगा। साथ ही कर-व्यवस्था के अनुरूप बर्ताव करना होगा। मसलन, जीएसटी को लागू करने की जो समय-सीमा बताई गई है, उस पर कायम रहना होगा। कॉरपोरेट टैक्स में चरणबद्ध कमी पर भी काम करना है। मुद्रास्फीति से जुड़े लक्ष्यों को भेदना और चालू खाते को नियंत्रित स्तरों पर बरकरार रखना भी अहम रहेगा। ये चुनौतियां हैं, लेकिन मौके भी हैं। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में वैश्विक मंदी के विशिष्ट संकेत मिलते हैं। अमेरिका में आर्थिक सुधार धीमा पड़ रहा है और बेरोजगारी का संकट गहराया है। हो सकता है कि फेडरल बैंक ब्याज दर बढ़ाए। स्पेन, इटली और जर्मनी धीमे विकास को दर्शा रहे हैं। एशिया में जापान का आर्थिक सुधार स्थिर नहीं, अस्थायी है। चीन का विकास धीमा हो गया है। इसके पीछे उसके अंदरूनी कारण भी हैं और विकास की नई राह पर सरकार के चलने का फैसला भी। ब्राजील और रूस सकारात्मक तस्वीर नहीं पेश कर रहे।

ऐसे में, क्या हम दुनिया भर के विकास की रफ्तार से अलग हटकर विकास करेंगे, यहां तक कि महत्वपूर्ण आसियान बाजार के विकास से अलग? बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि अगले छह महीने में क्या होने जा रहा है। क्रेडिट रेंटिग में सुधार ही अपने आप में अंत नहीं है। यह तो सकारात्मक रुझानों का एक संकेत है। समय बताएगा कि क्या ये रुझान जमीनी हकीकत बदलेंगे? वैसे, भारत बाकी दुनिया से बेहतर स्थिति में है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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