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बिना मुद्दे के चुनाव का गणित

महाराष्ट्र और हरियाणा के बीच काफी दूरी है, लेकिन दोनों राज्यों में आज होने वाले विधानसभा चुनावों में काफी समानता है। दोनों राज्यों में चतुष्कोणीय मुकाबला है, दोनों राज्यों में कांग्रेस सत्ता में रही...

बिना मुद्दे के चुनाव का गणित
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 14 Oct 2014 07:52 PM
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महाराष्ट्र और हरियाणा के बीच काफी दूरी है, लेकिन दोनों राज्यों में आज होने वाले विधानसभा चुनावों में काफी समानता है। दोनों राज्यों में चतुष्कोणीय मुकाबला है, दोनों राज्यों में कांग्रेस सत्ता में रही है और उसे जनता के असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। भारतीय जनता पार्टी पहली बार दोनों राज्यों में अकेले चुनाव लड़ रही है। भाजपा का विशेष उल्लेख इसलिए जरूरी है, क्योंकि भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला अपनी इच्छा से किया है, बाकी पार्टियों के लिए यह मजबूरी थी। दोनों राज्यों में विकास काफी हुआ है, हालांकि आर्थिक पिछड़ापन भी है। दोनों ही जगह कोई एक महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है, जिसके आधार पर चुनाव लड़ा जाए। महत्वपूर्ण मुद्दा न होने की सूरत में ये चुनाव सिर्फ राजनीतिक समीकरणों, जातियों और क्षेत्रों में वर्चस्व और राजनीतिक रणकौशल की जोर आजमाइश बन गए हैं। ऐसा नहीं है कि दोनों राज्यों में कोई मुद्दा सचमुच नहीं है, लेकिन जो मुद्दे हैं, वे ऐसे हैं कि उन्हें उठाना राजनीतिक रूप से खतरनाक हो सकता है। मसलन, हरियाणा में आर्थिक समृद्धि के बावजूद सामाजिक पिछड़ापन एक मुद्दा हो सकता है, महाराष्ट्र में कथित मराठी पहचान के शोर की असलियत एक बड़ा मुद्दा होना चाहिए। लेकिन चुनाव में ऐसे मुद्दे उठाकर कोई ताकतवर राजनीतिक समूहों को नाराज नहीं करना चाहेगा। इसलिए बेहतर प्रशासन और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे ही उछाले जा रहे हैं, जो भारतीय राजनीति के संदर्भ में अमूर्त और अपरिभाषित हैं, इसलिए हानिरहित हैं।

इस चुनाव में सबसे ज्यादा महत्वाकांक्षी खतरा भाजपा ने उठाया और चुनाव पूर्व आकलन कह रहे हैं कि खतरा उठाने का फायदा भाजपा को मिल सकता है, हालांकि इतने जटिल चुनावों में भविष्यवाणी खतरनाक है। अगर दोनों राज्यों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर भी उभरी, तो यह माना जाएगा कि उसका दांव सही था। लोकसभा चुनाव में शानदार जीत के बाद अब तक नरेंद्र मोदी का जादू बरकरार दिख रहा है। अब तक के सबसे बुरे प्रदर्शन के बाद भी कांग्रेस की स्थिति दोनों राज्यों में खराब है। दोनों राज्यों में भाजपा के संभावित सहयोगियों की भी स्थिति डांवाडोल है और भाजपा के पास उनके प्रभाव क्षेत्र पर कब्जा करने का यह अच्छा मौका है। हालांकि भाजपा का दांव उल्टा भी पड़ सकता है, लेकिन भाजपा के पास धूल झाड़कर फिर से खड़े होने के लिए पर्याप्त वक्त है। राष्ट्रीय स्तर पर उसकी प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस अभी तुरंत संभलती नहीं दिख रही।

अगर शिवसेना का प्रदर्शन इन चुनावों में अच्छा नहीं होता है, तो यह उसके अस्तित्व के लिए खतरा होगा। शिवसेना के पास बाल ठाकरे की भव्य उपस्थिति अब नहीं है और कायदे का सांगठनिक ढांचा तो कभी भी उसके पास नहीं था। शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी खतरे में है। शरद पवार अब भी महाराष्ट्र में बड़ी हैसियत रखते हैं, लेकिन उनके परिवार और खासकर मुख्यमंत्री पद के दावेदार अजित पवार के बारे में महाराष्ट्र में कोई उत्साह नहीं है। महाराष्ट्र की कालिख कांग्रेस-राकांपा गठबंधन सरकार पर ही बड़ी मात्रा में लगी थी, लेकिन कांग्रेस के पास पृथ्वीराज चव्हाण जैसा बेदाग छवि वाला नेता है, राकांपा के पास वह भी नहीं है। महाराष्ट्र के कई इलाकों पर जलसंकट का खतरा मंडरा रहा है और ऐसे में सिंचाई घोटाला लोगों को ज्यादा शिद्दत से याद रहेगा। पार्टी को परिवार तक सीमित करने का खतरा शिवसेना और राकांपा, दोनों को उठाना पड़ सकता है।

महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा का गठबंधन तोड़ना भाजपा का जाना-बूझा फैसला था, हालांकि उसने यह दिखाने की कोशिश की कि वह तो गठबंधन बनाए रखना चाहती थी। शिवसेना यह जानती थी कि भाजपा की शर्तें मानने का अर्थ स्थायी रूप से जूनियर पार्टनर की हैसियत स्वीकार कर लेना और धीरे-धीरे महत्वहीन हो जाना हो सकता है, इसलिए उसे अकेले ही चुनाव लड़ना पड़ा। भाजपा भी यह जानती है कि अगर उसे कांग्रेस का राष्ट्रीय विकल्प बनना है, तो वह तमाम राज्यों में किसी क्षेत्रीय पार्टी का जूनियर पार्टनर बनकर नहीं रह सकती। भाजपा के लिए शुरू से ही साफ था कि देर-सवेर उसे तमाम राज्यों में अकेले बड़ी पार्टी के तौर पर खड़ा होना है। इस चुनाव में भाजपा ने इस दिशा में शुरुआती कदम उठा लिए हैं। यह कोई भविष्यवाणी नहीं, लेकिन हो सकता है कि इन चुनावों से महाराष्ट्र में भविष्य में कांग्रेस बनाम भाजपा की सीधी लड़ाई की भूमिका बन जाए।

हरियाणा में जानकार भाजपा के अच्छे प्रदर्शन की बात कर रहे हैं। यह कुलदीप बिश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस के लिए खतरा हो सकता है, जिससे भाजपा ने गठबंधन तोड़ लिया है। कुलदीप बिश्नोई का जनाधार गैर-जाट जातियों में है और अगर भाजपा एक महत्वपूर्ण पार्टी की तरह उभरी, तो ये जातियां उसकी ओर बड़ी संख्या में खिसक जाएंगी। भाजपा की रणनीति गैर-जाट जातियों के अलावा जाट वोटों का बड़ा हिस्सा पाने की है। कुलदीप बिश्नोई की भी वही स्थिति है कि उनमें अपने पिता भजनलाल का राजनीतिक कौशल और स्वीकार्यता नहीं है। ओमप्रकाश चौटाला के सामने कुलदीप बिश्नोई जितना बड़ा संकट तो नहीं है, क्योंकि वह हरियाणा की सबसे ताकतवर जाति के नेता हैं, लेकिन चौटाला की उम्र हो चुकी है और वह जेल में हैं। चौधरी देवीलाल के परिवार में राजनीतिक स्वीकार्यता और सूझबूझ हर पीढ़ी में कम होती गई है।

देवीलाल का जनाधार पूरे हरियाणा में था, चौटाला का सिर्फ अपनी जाति में है, जिस पर मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और भाजपा की भी दावेदारी है। सारी पार्टियों के लिए यह सिर्फ अपने राजनीतिक वर्चस्व या वजूद की ही लड़ाई है और इसके अलावा उनके पास कोई मुद्दा नहीं है, इसलिए वे आम तौर पर अपने क्षेत्र की, राज्य की या जाति की अस्मिता को मुद्दा बना रही हैं। कांग्रेस के राज में इन दोनों राज्यों ने ठीक-ठाक विकास किया है। लेकिन कांग्रेस की छवि इतनी खराब हो गई है कि उससे उबरने के लिए उसके पास न कोई मुद्दा है, और न रणनीति। जबकि भाजपा के पास एक मुद्दा है- वह है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि। दोनों राज्यों में भाजपा के पास कोई प्रभावी क्षेत्रीय नेता नहीं है, इसलिए वह सिर्फ नरेंद्र मोदी की छवि के भरोसे ही चुनाव लड़ रही है। इसके पहले उसने जमीनी स्तर पर सोशल इंजीनियरिंग जरूर की है, जिसके आधार पर उसे नरेंद्र मोदी की छवि के आकर्षण को वोटों में बदल पाने की उम्मीद है। इस रणनीति के तहत उसने हिंदुत्व से जुड़े अपने मुद्दों को भी ज्यादा तरजीह नहीं दी है। देखना यह होगा कि आम वोटर भाजपा के इस दांव में कितना उसका साथ देते हैं या कांग्रेस कितनी जमीन बचा पाती है। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि क्षेत्रीय पार्टियों का आकर्षण कितना है। इस चुनाव में मुद्दे भले ही न हों, लेकिन दांव बहुत बड़े लगे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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