फोटो गैलरी

Hindi Newsलिव-इन रिश्तों की कानूनी उलझनें

लिव-इन रिश्तों की कानूनी उलझनें

शीर्ष अदालत ने ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ पर अहम फैसला देते हुए कहा कि अगर कोई जोड़ा शादी किए बगैर एक साथ पति-पत्नी की तरह रहा है, तो दोनों कानूनी रूप से शादीशुदा माने जाएंगे। न्यायालय ने साफ किया...

लिव-इन रिश्तों की कानूनी उलझनें
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 20 Apr 2015 11:41 PM
ऐप पर पढ़ें

शीर्ष अदालत ने ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ पर अहम फैसला देते हुए कहा कि अगर कोई जोड़ा शादी किए बगैर एक साथ पति-पत्नी की तरह रहा है, तो दोनों कानूनी रूप से शादीशुदा माने जाएंगे। न्यायालय ने साफ किया कि इस दौरान अगर पुरुष साथी की मौत हो जाती है, तो उसकी संपत्ति पर महिला साथी का कानूनन अधिकार होगा और वह वारिस मानी जाएगी। न्यायालय ने यह निर्णय एक परिवार की जायदाद से जुड़े मामले में दिया है। पीठ ने फैसला सुनाते हुए यह भी कहा कि कानून बिना विवाह साथ रहने के खिलाफ है। यह निर्णय दो तथ्यों को साफ करता है। पहला, स्त्री का अधिकार जीवनसाथी से कानूनन विवाह न करने की स्थिति में कम नहीं हो जाता। दूसरा, कानून ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ को स्वीकारता तो है, पर उचित नहीं मानता।

आज भी देश में विवाह संस्था मजबूत है व सहजीवन को लेकर समाज में बहस छिड़ी हुई है। यह रिश्ता सिर्फ वैधता का मामला है या नैतिकता व सामाजिकता का या इनसे इतर भी कुछ और? पिछले दशकों में महानगरीय संस्कृति ने धीरे-धीरे सहजीवन को स्वीकार्यता दी है, पर प्रश्न यह है कि ऐसे क्या कारण हैं कि युवा वर्ग ‘विवाह’ को अस्वीकार कर ‘सहजीवन’ की ओर बढ़ रहा है? युवा पीढ़ी आर्थिक स्वतंत्रता के साथ वैचारिक आजादी व बंधनहीन जीवन को प्रमुखता देने लगी है, क्योंकि उसकी दृष्टि में पारंपरिक वैवाहिक जीवन में जटिलताएं अधिक हैं। यकीनन, ‘सहजीवन’ की शुरुआत वही युवा करते हैं, जो ‘प्रेम’ में हैं, परंतु दो लोगों का एक छत के नीचे रहना उत्तरदायित्वों का आरंभ है, फिर कैसे ‘सहजीवन’ जिम्मेदारियों से बचाव का रास्ता हो सकता है?

दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सहजीवन को नैतिकता के कठघरे में हम चाहे खड़ा करते रहें, परंतु इससे यह वास्तविकता नहीं बदली जा सकती कि ‘सहजीवन’ हमारी सामाजिक व्यवस्था में घुसपैठ कर चुका है। ऐसे में, उससे जुड़ी जटिलताओं को समझकर उनको दूर करने की जरूरत है। ‘सहजीवन’ में रह रहे जोड़ों को हमेशा ही सुरक्षा का अभाव सालता है। इसीलिए ये अपने अधिकारों के लिए अदालत पहुंचने लगे हैं। चूंकि एक स्त्री कानूनन ब्याहता न होने की स्थिति में भी जीवनसाथी को वह सभी सुखानुभूति प्रदान करती है, जो कि विवाहित पत्नी करती है, ऐसे में उसके अधिकारों की सुरक्षा होनी चाहिए। जरूरी नहीं है कि हर वह स्त्री आत्मनिर्भर ही हो, जो सहजीवन में है। ऐसी स्थिति में उसकी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति उसके साथी का उत्तरदायित्व है, परंतु ये ऐसी स्थितियां हैं, जिनके संबंध में स्पष्टता से कहीं अधिक भावनाएं बलवती हैं। सहजीवन से जुड़ी उलझनों को देखते हुए विधि निर्माताओं को इससे संबंधित नियमों को नए ढंग से परिभाषित करने की जरूरत है। पश्चिम में ऐसे संबंधों के लिए उचित न्यायिक व्यवस्था की गई है, विशेषकर आर्थिक संबंधों से जुड़े टकरावों को लेकर।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

 

 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें