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हिंदी का प्राइम टाइम

साहित्य का चाल-चलन तो यारों ने बिगाड़ डाला। जिस गोष्ठी में जाते हैं, उसकी बजाते हैं। उसमें भी अपनी तुरही बजाते हैं कि अपन ने क्या-क्या बोला? ‘अपनी ढपली-अपना राग’ वाली कहावत चरितार्थ होती...

हिंदी का प्राइम टाइम
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 27 Sep 2014 08:28 PM
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साहित्य का चाल-चलन तो यारों ने बिगाड़ डाला। जिस गोष्ठी में जाते हैं, उसकी बजाते हैं। उसमें भी अपनी तुरही बजाते हैं कि अपन ने क्या-क्या बोला? ‘अपनी ढपली-अपना राग’ वाली कहावत चरितार्थ होती रहती है। अपने कहे का, अपनी ही लेखनी द्वारा आत्म प्रकाशन इस कदर बढ़ गया है कि शास्त्रों का अश्लीलत्व दोष भी लज्जित हो चला है। इतनी साहित्यिक अश्लीलता आजकल जायज है। अब इतनी अश्लीलता के बिना साहित्य का काम चलता ही नहीं।

मैं इस अश्लीलत्व दोष से बचता आया हूं। जिस गोष्ठी में जाता हूं, उसके बारे में लिखने में शरमाता हूं। आज इस मूर्खतापूर्ण व्रत को तोड़ रहा हूं, अब मुझसे हिंदी के ‘थर्ड वर्ल्ड’ की उमस भरी गरमी सही नहीं जाती और चाहता हूं कि अब अपनी हिंदी भी कुछ ‘फस्र्ट वल्र्डीय’ हो जाए! हिंदी वाले अब तक अपने-अपने ‘थर्ड वल्र्ड’ में रहने को अभिशप्त हैं : पिछले पैंसठ बरसों से वही गरम हवा वाली प्रगतिशीलता, वही चीत्कार-फूत्कार से भरी शिकायतें और लानतें, वही जिस-तिस को शाप देता दुर्वासापन, वही लाल भभूका टाइप, बीड़ी-गमछा टाइप और गंवई टाइप हिंदी। वही धूल, गर्द, गरीबी की रोना।

मैं फस्र्ट वल्र्ड से अभी-अभी लौटा हूं। फस्र्ट वल्र्ड से लौटकर मैं कहना चाहता हूं कि आप एक बार अगर इस वर्ल्ड में आ गए, तो बार-बार आएंगे, क्योंकि ‘एसी में आनंद यहां है, ऐसी सुविधा और कहां है?’ यह वैसा अनुभव था, जैसा दिल्ली की सड़ी गरमी में ब्लूलाइन से निकलकर मेट्रो में प्रवेश करने पर होता है। ऐसा ‘ठंडा-ठंडा कूल-कूल’ महसूस हुआ कि लगने लगा, जैसे  मैं खुद ही ‘ठंडा यानी कोकाकोला’ हो गया हूं।

मैंने पहली बार जाना कि हिंदी साहित्य के परिवेश का क्या महत्व है और हिंदी का परिवेश अब तक तीसरी दुनिया छाप क्यों है? फस्र्ट वल्र्ड ने मुझे समझाया कि हिंदी के परिवेश को अब बदलना चाहिए। परिवेश का मतलब हिंदी की पीएचडी वाला ‘परिवेश’ नहीं है, बल्कि वह है साहित्य का आस-पास, पड़ोस, गली-कूचा, आंगन-छज्जा, चबूतरा आदि। अंग्रेजी में जिसे आप ‘एंबियन्स’ कहते हैं, वही हिंदी में परिवेश है, यानी साहित्य का, किताब का आस-पड़ोस, उसकी प्रस्तुति यानी उसके रहने और उसे बरतने की जगह। हिंदी साहित्य अब तक अंधेरी घिच-घिच में रखा जाता रहा है। इसीलिए उसमें अंधेरे की बातें ज्यादा होती हैं, उसमें दीमक जल्दी लगती है।

उजाला कभी पहुंचता ही नहीं। लेकिन यह एक नया परिवेश था, जिसमें एक नई हवा थी, जो अंग्रेजी के बीच हिंदी के रूप में बहती थी। यह ‘ऑक्सफोर्ड’ की दुनिया थी, जो दिल्ली में थी और इस शाम हिंदी के प्राइम टाइम से जुड़ी थी। वह हिंदी का नया पड़ोस था, जहां अंग्रेजी की किताबों के साथ एक कोना हिंदी का था, जहां ट्रॉली लगी थी, जिसमें हिंदी की किताबें रखी थीं। अंग्रेजी के फस्र्ट वल्र्ड में अपनी थर्ड वल्र्ड हिंदी भी फस्र्ट वल्र्ड लग रही थी। अंग्रेजी संगीत मंद्र होकर गूंज रहा था। एक गलियारे में अनेक लड़के-लड़कियां कुरसियों पर बैठे कॉफी-चाय पर बेतकल्लुफी के साथ चर्चारत थे। अंग्रेजी के बीच यहां कुछ ‘हिंदी का प्राइम टाइम’ होना था। कुछ हुआ भी! तब से मैं सोच रहा हूं कि अपनी हिंदी का भी ‘फस्र्ट वर्ल्ड’ बनेगा? कब एक ऑक्सफोर्ड जैसा शोरूम होगा, जहां बिखरी हुई शीतल चांदनी की धवलता पुस्तकों को नहलाती होगी और कब मेरी हिंदी के लड़के-लड़कियां ऑक्सफोर्ड के शोरूम की तरह किताबों के बीच गुटरगूं करते मिलेंगे?

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