फोटो गैलरी

Hindi Newsएक जैसे, मगर एक ही नहीं

एक जैसे, मगर एक ही नहीं

किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल में कई समानताएं हैं। दोनों ही आईआईटी से पढ़े हुए हैं, दोनों पुराने नौकरशाह हैं, दोनों प्रतिष्ठित रमन मैगसेसे पुरस्कार पा चुके हैं और सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका से अब...

एक जैसे, मगर एक ही नहीं
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 21 Jan 2015 09:37 PM
ऐप पर पढ़ें

किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल में कई समानताएं हैं। दोनों ही आईआईटी से पढ़े हुए हैं, दोनों पुराने नौकरशाह हैं, दोनों प्रतिष्ठित रमन मैगसेसे पुरस्कार पा चुके हैं और सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका से अब नेता बन चुके हैं। किरण और अरविंद, दोनों ने अपने दम पर अपनी  हस्ती बनाई है। लगभग समान शैक्षणिक और नौकरशाही पृष्ठभूमि के अलावा, दोनों समान मन-मिजाज के मालिक भी हैं। दोनों ठसक वाले, जिद्दी और आत्ममुग्ध इंसान हैं और अपनी ही बात का डंका पीटने वाले हैं। यही बात उन दोनों को टीम भावना से दूर ले जाती है, और वे अक्सर साथियों को अपने साथ जोड़े नहीं रख पाते।

हालांकि, देखने में दोनों समान उम्र के लगते हैं। मगर अरविंद केजरीवाल 1949 में पैदा हुईं किरण बेदी से 19 साल छोटे हैं। यह संभवत: इसी बात को  रेखांकित करता है कि दो अलग-अलग दशकों में जन्मे लोग एक-दूसरे के प्रतिरूप नहीं हो सकते।

उदाहरण के लिए, किरण बेदी में विनम्रता आसानी से नहीं आती। वह खीझ पैदा करने की हद तक किसी मामले में दखल देती हैं। इसका एक सबूत यह है कि पार्टी में शामिल होने के दूसरे ही दिन वह दिल्ली भाजपा के नेताओं को नीचा दिखाने वाले अंदाज में मिलीं। यद्यपि वह दूसरी पीढ़ी के राजनेताओं को संबोधित कर रही थीं, लेकिन उन्होंने उस उपस्थित समूह के एक वर्ग को धमका दिया, जिसमें वी के मल्होत्रा और मौजूदा कैबिनेट मंत्री हर्षवर्धन जैसे दिग्गज भी शामिल थे।

किरण को वर्षों से जान रहे एक पुलिस अधिकारी का कहना है कि, ‘वह इस हद तक भी जिद्दी हो सकती हैं कि आदेशों को न मानें।’ वह राजनीति में सफल हो पाएंगी, इसे लेकर यह अधिकारी महोदय आश्वस्त नहीं हैं। वह कहते हैं, ‘विपरीत विचारों की स्थिति में वह सहजता से दूसरे की बात मानने वाली नहीं हैं। उनकी उम्र 60 साल से ऊपर हो चुकी है और यह वह उम्र नहीं कि कोई अपने को बदल सके। इसलिए उनकी पार्टी के सदस्यों को ‘जो जैसा है’ के आधार पर ही उन्हें स्वीकार करना होगा।’

भाजपा की राज्य ईकाई के पास अब विकल्प लगभग नहीं हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर प्रधानमंत्री ने उन्हें चुना है और दांव खेला है। दरअसल, अरविंद ने भी आम आदमी पार्टी की तरफ से उन्हें मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी की पेशकश पिछले विधानसभा चुनाव से पहले की थी। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में दोनों ने जिन बड़ी ताकतों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, उन्हीं से किरण के जुड़ने के फैसले के विरुद्ध सीधा प्रहार करने से अरविंद को यही पेशकश रोकती है।

लेकिन राजनीति पार्टियों से ही नहीं, जनता से भी जुड़ी होती है। किरण जब समर्थन मांगने जनता के बीच जाएंगी, तो उन्हें इस सच्चाई से दो-चार होना होगा। यह समय उनके लिए एक धैर्यवान श्रोता बनने का है, न कि बड़बोला नेता बनने का। लेकिन क्या वह ऐसा कर सकती हैं?

ज्यादातर भ्रष्टाचार विरोधी सामाजिक कार्यकर्ताओं में लचीलेपन का अभाव होता है, लेकिन मेरी अपनी राय के अनुसार, अन्ना आंदोलन खत्म होने के बाद, जिससे आम आदमी पार्टी का उदय हुआ, यह टीम पूरी तरह से बिखर गई। उन सबमें ‘अतिवादी’ होने की हद तक अरविंद केजरीवाल ही थे, जिन्होंने आरटीआई कार्यकर्ता के तौर पर हासिल अपने जमीनी अनुभव के साथ प्रबंधकीय कौशल का इस्तेमाल उस अभियान को बड़ा बनाने में किया, जिसने संप्रग सरकार को हिला दिया।

वह किरण से इस मायने में अलग हैं कि बतौर आरटीआई कार्यकर्ता उन्होंने लोगों की शिकायतों को सुनकर अपने अंदर स्वाभाविक समझदारी विकसित की है। उनका कार्य-क्षेत्र बड़ा था, जबकि किरण जेल सुधारों और पुर्लिंसग तक सीमित रहीं।

लेकिन जिस तरह से अरविंद ने दिल्ली की गद्दी छोड़ी, उससे उनकी साख को धक्का लगा। इसने मध्य वर्ग को उनसे विमुख किया है, जो शुरू से उनके साथ था। फिर भी, वह लगे रहे। पार्टी में कई कमजोरियों और आखिरी समय में भाजपा द्वारा उनके नेताओं का शिकार करने के बावजूद वह अपनी पार्टी में ऊर्जा का संचार करते रहे। इससे यह जाहिर होता है कि दिल्ली और वाराणसी के दो चुनावों तथा मुख्यमंत्री पद पर थोड़े समय रहने के बाद भी वह एक दुर्जेय प्रतिद्वंद्वी हैं।

एबीपी न्यूज द्वारा आयोजित एक मीडिया-संवाद से अरविंद की राजनीतिक समझ जाहिर हो जाती है। उस मीडिया-संवाद में वह प्रधानमंत्री या किरण बेदी पर सीधा-सीधा हमला करने से परहेज करते रहे। और जब उनसे यह सवाल किया गया कि ‘क्या आप अतिवादी हैं, अराजकतावादी हैं या राजनीति ने आपको यर्थाथवादी बना दिया है,’ तो वह अपना बचाव करने लगे।

लेकिन अरविंद केजरीवाल ने अपनी शैली नहीं बदली है। वह अपने उन निम्न मध्य-वर्ग और गरीब समर्थकों की भाषा बोलते आ रहे हैं, जो अपनी तंगहाली के लिए व्यवस्था को हमेशा से कोसते आए हैं। इस अर्थ में, वह निश्चित रूप से अपनी कथनी के रास्ते पर हैं। यही वह मोर्चा है, जहां किरण बेदी को केजरीवाल का मुकाबला करने में मुश्किल होगी। खास तौर पर कारोबारी घरानों पर अरविंद के हमलों का, जिसे सुनने वालों की तादाद दिल्ली की झुग्गी-झोंपड़ियों में काफी है।

बहरहाल, आप नेता को यह दिखाने की जरूरत है कि वह ‘डेविड’ हैं और उनकी लड़ाई ‘गॉलिएथ’ से है। यह दिखाने के लिए कि किरण अब उनके खिलाफ गॉलिएथ के साथ चली गई हैं, आप को अलग तरीके से सोचना होगा। चूंकि राजनीति काफी कुछ धारणाओं से जुड़ी होती है, इसलिए हमें यह देखने के लिए इंतजार करना होगा कि क्या अरविंद केजरीवाल अपना संदेश मतदाताओं के दिल में उतार पाते हैं या भाजपा किरण बेदी की अपने इस ख्याति भरे अतीत को भुना पाती हैं कि वह देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी हैं, जो स्त्री-सशक्तीकरण का प्रतीक हैं। सिविल सेवा के करियर में किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल, दोनों उस शिखर पर नहीं पहुंच पाए, जो उन्होंने अपने लिए निश्चित किया था। अब देखना यह है कि राजनीति में किस्मत किसका साथ देती है?

 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें