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मंगलयान से आगे की यात्रा

लगभग पचास साल पहले केरल के थुंबा अंतरिक्ष केंद्र से भारत ने पहला रॉकेट दागा था और आज भारत का मंगलयान भारत की महत्वाकांक्षा का नया प्रतीक है। आधुनिक भारत की जो भी सफलता की कहानियां हैं, उनमें भारतीय...

मंगलयान से आगे की यात्रा
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 23 Sep 2014 08:13 PM
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लगभग पचास साल पहले केरल के थुंबा अंतरिक्ष केंद्र से भारत ने पहला रॉकेट दागा था और आज भारत का मंगलयान भारत की महत्वाकांक्षा का नया प्रतीक है। आधुनिक भारत की जो भी सफलता की कहानियां हैं, उनमें भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का नाम बहुत ऊपर है। मंगलयान को छोड़ दें, तो भी इसरो के नाम कई कामयाबियां हैं। हमारा चंद्रयान चंद्रमा तक पहुंचने में कामयाब हो चुका है और अंतरिक्ष में उपग्रह स्थापित करने में भारत एक प्रमुख देश की हैसियत पा चुका है। कुछ बड़ी नाकामियां भी हैं। इनमें सबसे बड़ी नाकामी जीएसएलवी का परीक्षण नाकाम होना है। जीएसएलवी रॉकेट अंतरिक्ष में हमारी पहुंच का दायरा बढ़ा देता है, क्योंकि उससे अंतरिक्ष यान ज्यादा दूरी तक आसानी से भेजा जा सकता है। मंगलयान के बारे में भी पहले यही सोचा गया था कि इसे जीएसएलवी के जरिये अंतरिक्ष में भेजा जाएगा। लेकिन जीएसएलवी के परीक्षण लगातार नाकाम हुए, इसलिए यह तय किया गया कि इसे पीएसएलवी के जरिये ही भेजा जाए, जिसमें इसरो को महारत हासिल है। इसीलिए मंगलयान कई दिनों तक धरती के चक्कर लगाता रहा और इस बीच उसके रॉकेट की शक्ति बढ़ाई जाती रही, ताकि वह धरती की कक्षा से बाहर निकलने लायक शक्ति जुटा सके। लेकिन अंतरिक्ष कार्यक्रमों में नाकामियों की जो दर है, उसके मुकाबले इसरो का रिकॉर्ड बहुत अच्छा है।

यह भी याद रखना चाहिए कि इसरो ने दूसरे देशों से कुछ मदद हासिल की है, पर भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम बहुत हद तक स्वदेशी है। इसके अलावा, भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम बहुत किफायती है। इसका अंदाज इस बात से लग सकता है कि ‘नासा’ का जो ‘मैवन’ दो दिन पहले मंगल की कक्षा में दाखिल हुआ है, उस पर मंगलयान से लगभग दस गुना खर्च आया है। अपनी ढेर सारी कामयाबियों और कुछ नाकामियों के साथ भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को विज्ञान के क्षेत्र में भारत का आदर्श कार्यक्रम होना चाहिए। अगर भारतीय विज्ञान के विराट व्यक्तित्व सर चंद्रशेखर वेंकट रमन जीवित होते, तो शायद वह भी इस कार्यक्रम से खुश होते। लेकिन विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में जो स्थिति है, खासकर विज्ञान की शिक्षा की जो गत है, उससे रमन तो क्या, कोई वैज्ञानिक खुश नहीं हो सकता। इसरो की कामयाबी बताती है कि भारतीय वैज्ञानिक कामयाबी पा सकते हैं और साधनों की कमी को अपने हुनर और अपनी कल्पनाशीलता से पूरा कर सकते हैं। लेकिन यह प्रवृत्ति हमें विज्ञान के दूसरे क्षेत्रों में क्यों नहीं दिखाई देती, खासकर उन क्षेत्रों में, जिनका सीधा रिश्ता हमारे समाज की तरक्की और नागरिकों की बेहतरी से है, मसलन स्वास्थ्य और खेती? स्वास्थ्य व्यवस्था और खेती की भारत में जो हालत है, उसे देखकर यह याद करना पड़ता है कि इनका रिश्ता सिर्फ व्यापार से नहीं, विज्ञान से भी है।

इस वक्त भारत कई स्वास्थ्य मानकों पर बांग्लादेश, श्रीलंका और यहां तक पाकिस्तान से भी पीछे है, जबकि ये तमाम देश पिछले लंबे दौर से राजनीतिक उथल-पुथल और हिंसा का शिकार रहे हैं। आर्थिक संसाधनों के मामले में भी ये देश भारत से मीलों पीछे हैं। भारत में जो लोग गरीबी की रेखा से जरा-सा ऊपर हैं, उनके गरीबी में पुन: धकेले जाने की एक बड़ी वजह स्वास्थ्य सुविधाओं का महंगा और अप्राप्य होना है। अपनी स्वास्थ्य समस्याएं हल करने में हमने वैज्ञानिक समझ का सहारा नहीं लिया। इसका एक उदाहरण यह भी है कि भारत में लगभग 80 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाएं निजी क्षेत्र में हैं, और दूसरा उदाहरण यह है कि चिकित्सा शोध के मामले में भारतीयों का रिकॉर्ड जीरो से कुछ ही ऊपर होगा।

यही स्थिति खेती की है। सीवी रमन चाहते थे कि भारतीय वैज्ञानिक भारत की समस्याएं हल करें, इसके लिए वह खेती से सीधे जुड़े क्षेत्रों पर शोध करने के हिमायती थे। भारत में हरित क्रांति के बाद खेती के क्षेत्र में कोई बड़ा हस्तक्षेप नहीं दिखता, न ही बदलती परिस्थितियों में भारतीय खेती की बेहतरी के लिए कोई वैज्ञानिक नजरिया दिखता है। सिंचाई और जल प्रबंधन में कोई सूझबूझ नहीं दिखती। ऐसी नाकामियों के उदाहरण तमाम क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं, जिनमें विज्ञान का इस्तेमाल होता है। यह इसलिए भी अजीब है, क्योंकि कई क्षेत्रों में भारत ने शोध और विकास का काम बहुत पहले शुरू कर दिया था। जिन देशों ने हमसे बहुत बाद में शुरुआत की, वे हमसे बहुत आगे निकल गए।

एक बड़ा उदाहरण रक्षा अनुसंधान का है, जहां हम अपनी तमाम रक्षा जरूरतों के लिए अब भी आयात पर निर्भर हैं।
यह सवाल भी हमें पूछना चाहिए कि ऐसा क्यों है कि भारत में रहकर विज्ञान का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले एकमात्र वैज्ञानिक सीवी रमन को यह पुरस्कार आजादी के पहले मिला था। आजादी के बाद जिन भारतीय वैज्ञानिकों को यह पुरस्कार मिला, उन सबने विदेशों में रहकर अपना काम किया। जगदीश चंद्र बोस और सत्येन बोस जैसे वैज्ञानिक, जो नोबेल पुरस्कार के पूरे-पूरे हकदार थे, वे भी आजादी के पहले ही हुए। क्या इसका अर्थ है कि आजादी के पहले भारत में विज्ञान के क्षेत्र में काम करने के लिए बेहतर परिस्थितियां थीं, जो आजादी के बाद बदतर हो गईं? एक बड़ी वजह शायद यह थी कि आजादी के पहले हुए ये लोग गहरे अर्थों में देशभक्त थे। नारे लगाने वाले नहीं, बल्कि ऐसे देशभक्त, जो विज्ञान की तरक्की को अपने देश की बेहतरी और सम्मान से जोड़ते थे। तब हम अंग्रेजों के गुलाम थे, इसलिए यह भावना भी बहुत तीव्र थी। इन लोगों में यह साबित करने की तीव्र इच्छा थी कि हम दुनिया से पीछे नहीं हैं।

आजादी के बाद इस तरह की गहरी, विनम्र और रचनात्मक देशभक्ति की जगह नारे लगाने वाली देशभक्ति ने ले ली और इस तरह विज्ञान का भारतीय जमीन से रिश्ता टूट गया। इससे एक नुकसान यह भी हुआ कि हमने विज्ञान को पूरी तरह पश्चिमी चीज मान लिया और यह मान लिया कि विज्ञान के क्षेत्र में जो कुछ भी होना है, वह पश्चिम में ही होगा, हम उसकी नकल भर कर सकते हैं। मंगलयान के बाद भी उग्र देशभक्ति की एक लहर आनी है, या कि वह शुरू हो चुकी है। चीन का मंगल पर यान भेजने का एक प्रयास नाकाम हो चुका है, इसलिए हम इसे चीन पर अपनी जीत की तरह देखेंगे। जैसे खेलों में हम पाकिस्तान ग्रंथि से पीड़ित हैं, वैसे ही चीन के प्रति जबर्दस्त आकर्षण और उतनी ही जबर्दस्त आशंका भारतीयों में है। लेकिन हमारी कामयाबी चीन के खिलाफ नहीं है, यह पाकिस्तान के खिलाफ भी नहीं है और न पश्चिम के खिलाफ है, वह हमारी अपनी जड़ता के खिलाफ है। भारत के लिए चुनौती बाहर से नहीं, अपने से ही है। इसरो की कामयाबियों पर खुश होते हुए अगर हम अपने आप से यह सवाल पूछ सकें कि दूसरे क्षेत्रों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता, तो हम इस चुनौती की आंखों में आंखें डालकर देखना शुरू कर सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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