इंदिरा गांधी के दो बदकिस्मत फैसले
इंदिरा गांधी के साथ मेरा घनिष्ठ संबंध तब से रहा, जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। उनके यहां हमारा आना-जाना 1949 से 1964 तक लगा रहा। इंदिराजी उस समय अपना ज्यादातर समय घर के कामकाज की...
इंदिरा गांधी के साथ मेरा घनिष्ठ संबंध तब से रहा, जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। उनके यहां हमारा आना-जाना 1949 से 1964 तक लगा रहा। इंदिराजी उस समय अपना ज्यादातर समय घर के कामकाज की देखरेख में लगाती थीं और हम सबकी कमाल की खातिरदारी करती थीं। लेकिन इस दरमियान उनकी दिलचस्पी लगातार राजनीति में बनी रहती थी। जवाहलाल नेहरू को हम अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। वह राजशाही के विरुद्ध थे, इसलिए पिताजी से उनकी उतनी नहीं बनती थी, जितनी मुझसे। उन्हीं की किताबें, खास तौर पर एन ऑटोबायोग्राफी और डिस्कवरी ऑफ इंडिया पढ़कर हमारी पीढ़ी प्रोत्साहित हुई और सामाजिक-राजनीतिक जीवन में आई। नेहरू जी के प्रधानमंत्री-काल में एक समय बाद कई सारी घटनाएं घटीं, जिनके विस्तार में जाने की जरूरत मैं नहीं समझता। लेकिन पंडितजी के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने और इंदिराजी को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का जिम्मा मिला। इस दौरान हमारा उनसे बराबर संपर्क रहा। शास्त्रीजी की अकस्मात मृत्यु हुई और साल 1966 में इंदिरा भारत की प्रधानमंत्री बनीं और इस तरह भारत को एक कुशल प्रशासक मिला।
इधर, 1949 से मैं जम्मू एवं कश्मीर की सियासत में व्यस्त था। पहले जम्मू व कश्मीर का शासक बना, फिर सदर-ए-रियासत और इसके बाद गवर्नर, लगातार एक ही तरह के काम मैं करता रहा। मेरे अंदर राज्य से निकलकर पूरे भारत के लिए कुछ करने की इच्छा कुलबुला रही थी। साल 1966 में इंदिराजी जब सत्ता में आईं, तो उन्हें मैंने राष्ट्र की मुख्यधारा में आने की अपनी इच्छा बताई। मुझे जवाब मिला कि 1967 के आम चुनाव के बाद देखूंगी। उस चुनाव में मैंने यह काम जरूर किया कि उधमपुर से बिग्रेडियर घनसारा सिंह को, जो गिलगित के गवर्नर रह चुके थे, खड़ा किया और इस तरह राज्य में प्रकारांतर से यह संदेश गया कि युवराज लौटेंगे। 15 मार्च, 1967 को इंदिराजी का संदेश आया कि वह चाहती हैं कि मैं पर्यटन और नागरिक उड्डयन मंत्रालय संभालूं। जुबान की वह कितनी पक्की थीं, इसका अंदाजा कोई इस घटना से लगा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर मेरी राजनीति वहीं से शुरू हुई, बिग्रेडियर घनसारा सिंह ने इस्तीफा दिया और मैं इसके बाद लगातार चार बार उधमपुर से जीता। 1967-77 तक मैं इंदिरा सरकार में मंत्री रहा और उनके साथ मेरा विस्तृत पत्र-व्यवहार होता रहा, जो अलग-अलग वॉल्यूम में प्रकाशित हुए हैं। जब कोई देश के इतिहास को पलटेगा, तो वह इससे इनकार नहीं कर पाएगा कि इंदिरा जी की नीतियां घरेलू मोर्चों से लेकर विदेश मोर्चों तक काफी सराही गईं और सफल हुईं।
वह असाधारण निर्णय लेने में माहिर थीं और एक कुशल वीरांगना भी थीं। 1971 के युद्ध में बांग्लादेश का निर्माण और भारत की जीत इसका सबूत है। यह भारत के इतिहास की चिर-स्मरणीय घटना है। उस समय बांग्लादेश से हमारे यहां लगातार बड़े पैमाने पर शरणार्थी आ रहे थे, लाख, दस लाख, करोड़ तक। इस बीच हम लोग उत्साह से भरकर अनुमान लगा रहे थे कि 18 दिनों में जीत हासिल हो जाएगी। लेकिन इंदिराजी ने कुछ और ही तय कर रखा था और 15 दिनों में ही फैसला हो गया। पाकिस्तान को बुरी हार का सामना करना पड़ा। उस युद्ध के बारे में यह कहना गलत नहीं होगा कि कई शताब्दियों के बाद हमें इतनी बड़ी जीत मिली थी।
दो दुर्भाग्यपूर्ण कांड को छोड़ दें, तो इंदिरा गांधी का शासन भारतीय राजनीति में निर्णायक रहा है। पहला कांड आपातकाल था। हम लोग उस समय बेहद विचलित हुए। मैंने निजी तौर पर इंदिराजी को एक पत्र लिखा और जिसमें मैंने कहा कि मेरी राय है कि आप अपना इस्तीफा राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को भेज दीजिए और वह इसे स्वीकार न करें और यह कहें कि जब सुप्रीम कोर्ट का निर्णय होगा, तब सोचेंगे, स्वीकार करेंगे। खैर, उनका जवाब आया नहीं। उस समय संजय गांधी छा गए थे। आपातकाल के बाद कांग्रेस का बुरा हाल हुआ और उत्तर भारत से सिर्फ तीन कांग्रेसी जीते, जिनमें एक मैं भी था।
लेकिन इंदिराजी कहां हार मानने वालों में थीं। वह दोबारा सत्ता में आईं, राजनीति में वह वापसी किसी चमत्कार से कम नहीं मानी जाती। इतनी बड़ी हार के बाद 1980 में वह दोबारा मजबूती से सत्ता में आती हैं और सारा विपक्ष, खास तौर पर जनता पार्टी, जिसमें सभी बड़े नेता थे- मोरारजी भाई, चौधरी चरण सिंह, बाबू जगजीवन राम, चंद्रशेखर और भी कई- आपस में लड़-भिड़कर और इंदिरा लहर में समाप्त हो जाता हैर्। ंकतु दुर्भाग्य से खालिस्तान की मांग प्रबल हुई और अलगाववाद की हिंसा और आग ऑपरेशन ब्लू स्टार तक जा पहुंची। अब यह कार्रवाई होनी चाहिए थी या नहीं, या इसका कोई विकल्प था, इस विवाद में मैं नहीं पड़ना चाहता। लेकिन इसी के कारण उनकी हत्या हो गई। 31 अक्तूबर, 1984, यानी तीस साल पहले, इंदिराजी हमसे दूर हो गईं। जब कुछ लोग उस विकल्प की बात करते हैं, तो मैं यह बताना चाहूंगा कि इंदिराजी दयालु और दानवीर भी थीं।
बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि उनके पास एक ही घर था, इलाहाबाद में आनंद भवन। जवाहरलाल नेहरू ने वसीयत में इंदिराजी को यह दे रखा था। लेकिन इंदिराजी ने यह घर जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड को दान में दे दिया। मैं इसका पहला गवाह रहा, क्योंकि तब मैं इस फंड का सचिव था। अपनी हत्या से कुछ समय पहले ओडिशा में (तब के उड़ीसा) इंदिराजी ने कुछ लिखा था, जिसे मैं वसीयत तो नहीं कहना चाहूंगा, लेकिन वसीयत की तरह ही कुछ था, जिससे यह लगता है कि उनको इस बात का एहसास हो चुका था कि उन्हें मारने की कुछ साजिशें हो रही हैं। मेरे मुताबिक, उनका यह लेख हर किसी को पढ़ना चाहिए, क्योंकि यह लेख बताता है कि वह अच्छी वक्ता ही नहीं, अच्छी लेखिका भी थीं। उनकी जिंदगी संभवत: इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि सुख-दुख जीवन में में आता-जाता रहता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)