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जीवन की चाशनी और चीनी कम की सोच

क्या दिन थे वे! हम और हमारे ऐसे घर के चीनी-गोदाम से निकलते और हलवाई की जलेबी की चाशनी में जा गिरते। आजादी के बाद ऐसी सुस्वादु हरकतों के नतीजे भोगने में देश को भले दो-तीन दशक लगे, अपनी चीनी की बीमारी...

जीवन की चाशनी और चीनी कम की सोच
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 28 Sep 2014 07:07 PM
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क्या दिन थे वे! हम और हमारे ऐसे घर के चीनी-गोदाम से निकलते और हलवाई की जलेबी की चाशनी में जा गिरते। आजादी के बाद ऐसी सुस्वादु हरकतों के नतीजे भोगने में देश को भले दो-तीन दशक लगे, अपनी चीनी की बीमारी का कल्याण तीन-चार साल में ही हो गया। अब हमें संशय है कि क्या बच्चे हमेशा बुजुर्गों से समझदार रहे हैं? बड़ों से विपरीत वे खाने में नियंत्रण के मुरीद हैं। पारंपरिक जीवन-मूल्यों और देसी मिठाई की अवहेलना तो दूर, उन्हें तो केक, पेस्ट्री और आइसक्रीम तक से गुरेज है। उन्हें शिकायत है कि दिखाऊ  नैतिकता और आपसी व्यवहार में माधुर्य का नकली मनोहारी डेंचर लगाए लोगों को वे कब तक बर्दाश्त करें? समय सबकी कलई खोलने में समर्थ है। कभी सियासी परिवारों के झूठे प्रजातांत्रिक प्रेम की कलई खोलता है, तो कभी सभ्य समाज के ढकोसलों की। आज के युवा ‘चीनी कम’ क्रांति के सूत्रधार हैं। पुरखों के अतिशय चीनी प्रेम की कीमत मुल्क आज भी चुका रहा है। हम भी रोज इंसुलिन की सुई चुभोने को अभिशप्त हैं। अब संयम और संतुलन की सीख बेकार है? अतीत की नसीहत से वर्तमान का उपयोगी पाठ कम ही पढ़ पाते हैं।

चीनी से ही नहीं, कुरसी से भी अतिशय लगाव उस मर्ज का जनक है, जो बच्चों की मेनिनजाइटिस की तर्ज पर बुजुर्गा की ‘सत्ताइटिस’ कहलाता है। इसके मरीजों में रजवाड़ा-मनोवृत्ति आती है। कुरसी पाने के दांव में वे जनता के पैसे से जनता को ही खैरात बांटते हैं। उसकी पार्टी, उसूलों, आदर्शों और जमीनी नेताओं से नहीं, खुशामदी दरबारियों से चलती है। खानदानी नेता की शान में सामने तो सब प्रशस्ति  के गीत गाते हैं, लेकिन पीठ पीछे गालियों के शब्दबाण। अति से बचना, धर्मग्रंथों से लेकर विद्वानों तक की सलाह है। इसके विपरीत हर डायबिटिक चटोरी जीभ से खुद की कब्र खोदने पर आमादा है और नेता लपलपाती, नियंत्रणहीन जुबान से मुल्क की। वोट के लिए इन्होंने इंसान को बांटा है, कभी सेक्युलर, तो कभी कट्टर बनकर। कहीं इनकी मंजिल वक्त का कूड़ेदान तो नहीं?

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