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आलोचक का आत्मसंघर्ष

इन दिनों मैं बगुले की तरह ध्यानमग्न हूं। जिस तरह कभी अर्जुन की आंख न पेड़ देख रही थी, न पेड़ के पत्तों को देख रही थी, सिर्फ चिडि़या की आंख को देख रही थी, उसी तरह मैं भी हिंदी आलोचना की उस सीट को...

आलोचक का आत्मसंघर्ष
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 26 Sep 2015 09:42 PM
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इन दिनों मैं बगुले की तरह ध्यानमग्न हूं।
जिस तरह कभी अर्जुन की आंख न पेड़ देख रही थी, न पेड़ के पत्तों को देख रही थी, सिर्फ चिडि़या की आंख को देख रही थी, उसी तरह मैं भी हिंदी आलोचना की उस सीट को देख रहा हूं, जो खाली होने वाली है। मेरे चेलों ने बताया है कि अब वह कभी भी खाली हो सकती है। इसीलिए मैं दिल्ली छोड़कर कहीं नहीं जाता हूं। मुझसे जलने वाले कहते हैं कि इस सीट में अब कुछ भी नहीं बचा। जराजीर्ण है। लेकिन मेरे लिए मेरे गुरुजी की यही सीट महिमामय है। 

ऐसी सीटें बार-बार खाली नहीं होतीं। मुझे डर है कि कहीं ऐसा न हो कि मैं देखता रह जाऊं और सीट कोई और झटक ले जाए। मेरेे ज्योतिषी ने बता दिया है कि आने वाले दिनों में तुमको एक बड़ी सीट मिलने वाली है। कुछ विघ्न खड़े हो सकते हैं, लेकिन उनका उपाय भी है। उपाय यह है कि ब्रह्म मुहूर्त में नित्यकर्म के पश्चात मानस के सुंदरकांड  का नित्य पारायण करें। शिवजी की पूजा करें, माथे पर तिलक धारण करें व नित्य लाल रंग वाला लंबा कुरता पहनें। रेखाएं कह रही हैं कि आलोचना की सीट उसी को मिलनी है, जिसके पास लंबा लाल कुरता है।

साहित्य में लिखे का नहीं, सिर्फ सीट का महत्व है। वही आगे गया है, जिसके पास साहित्य की सीट है। सीट है, तो साहित्य है। सीट है, तो आप आलोचक हैं। सीट नहीं, तो कोई पूछता नहीं। साहित्य बाद मेें, सीट पहले। 

मैंने दिल्ली की डीटीसी बसों से सीट हथियाने का मंत्र सीखा है। तब बसें कम हुआ करती थीं, चढ़ने वाले ज्यादा। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है, इसी तर्ज पर सीट की आवश्यकता ने सीट हथियाने की तरकीब का आविष्कार किया। यह एक डेमोक्रेटिक कला  की तरह विकसित हुई।

सीट हथियाने की मेरी इस प्रतिभा को आप अच्छी तरह जान लें। मुगल-ए-आजम के जमाने से लेकर शोले तक के पहले शो की एडवांस बुकिंग का एक्सपर्ट रहा हूं। यूनिवसिर्टी स्पेशल में सीट की बुकिंग का एक्सपर्ट रहा हूं। मुद्रिका सेवा तक में अपनी सीट रिजर्व रही हैं। 'अप' हो या 'डाउन', हमेशा सीट पर बैठकर आया-गया हूं।

सीट हथियाने की कला का पहला पाठ 'दिल्ली मिल्क स्कीम' के बूथों ने सिखाया। मदर डेरी से पहले वाली दिल्ली मिल्क स्कीम के बूथों पर बोतल लेने वाले दूध मिलने की गांरटी करने के लिए दूध की सप्लाई से पहले ही बूथ पर आते और ईंट रखकर घर चले जाते। फिर आते और अपने नंबर से दूध लेते। दिल्ली आकर मैंने सबसे पहले सीट हथियाने की कला सीखी। मैंने उसमें अपना भी कुछ नया जोड़ा।

बस की खाली सीट पर रूमाल रखकर सीट रिजर्व की है। मैं उस सीट को भी रिजर्व करने में माहिर हूं, जो खाली न हुई हो और खाली होने वाली हो। मैं पहले ही हल्ला करवा देता हूं, ताकि सीट न खाली करने वाला भी समझ जाए कि उसे खाली करने के लिए तैयार रहना है। मैं उसके बैठे हुए ही उसके पीछे अपना रूमाल रख देता हूं कि जब उठे, तो मेरा रूमाल उसकी जगह बैठा दिखे और कोई हाथ न लगाए। यह मेरा नवोन्मेष (इनोवेशन) है, जो अतुलनीय है।

इसलिए यह सीट भी जाएगी कहां? मैंने तो अपना रूमाल उनके बैठे हुए ही रख दिया है। हल्ला भी कर दिया है कि जो सीट खाली होने वाली है, वह मेरी है, मेरे बाप की है, क्योंकि सबको यह बता दिया गया है कि मेरा रूमाल उनके ऐन पीछे रखा है। ध्यान रहे, वह सीट मेरी है और मैं उसे लेकर रहूंगा।
यह है मेरी आलोचना का आत्मसंघर्ष।

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