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बहुत अभ्यास और मेहनत से बनी दफ्तर की दुनिया

जब भी मैं किसी सरकारी दफ्तर से लौटता हूं, तो मेरा शक गहरा हो जाता है कि कहीं न कहीं इन सरकारी कर्मचारियों का गहन प्रशिक्षण होता होगा। जो प्रतिभा और कौशल हमें सरकारी दफ्तर में किसी कर्मचारी में दिखता...

बहुत अभ्यास और मेहनत से बनी दफ्तर की दुनिया
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 03 Sep 2014 08:41 PM
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जब भी मैं किसी सरकारी दफ्तर से लौटता हूं, तो मेरा शक गहरा हो जाता है कि कहीं न कहीं इन सरकारी कर्मचारियों का गहन प्रशिक्षण होता होगा। जो प्रतिभा और कौशल हमें सरकारी दफ्तर में किसी कर्मचारी में दिखता है, वह जन्मजात नहीं हो सकता। दफ्तर के बाहर उन्हीं सरकारी कर्मचारियों को हंसते हुए और विनम्रता से बात करते देखा गया है। यह कैसे मुमकिन है कि दफ्तर में जाते ही अच्छा-भला आदमी ऐसा हो जाए कि पहचान में ही न आए। अक्सर किसी दफ्तर में जाकर आप पूछते हैं कि वर्मा जी कहां मिलेंगे? कर्मचारी कमरे की ओर इशारा कर देता है। पर कमरे में आपको कोई नहीं दिखता। परेशान होकर आप एक बार फिर बाईं तरफ की कुरसी पर बहुत ध्यान से देखते हैं, तो वहां पर मटमैली पीली पलस्तर झड़ी, पान की पीक वाली दीवार, टूटे फूटे मैले से फर्नीचर और उतनी ही मैली फाइलों के बीच दो-तीन आदमी दिखते हैं, जिन्हें दीवार, फर्नीचर और फाइलों से अलग करना ही असंभव है। जिस दफ्तर में आदमी, दीवार और फर्नीचर जैसा दिखने लगे, वहां उसका मिजाज भी बदल ही जाएगा।

मुझे लगता है कि सरकारी कर्मचारियों का प्रशिक्षण ऐसे होता होगा। उन्हें 45 डिग्री सेल्सियस में बिना पंखे वाले कमरे में बिठा दिया जाता है और प्रशिक्षक उन्हें खीज, उपेक्षा, गुस्से और अपमान से भरपूर आवाज में बोलने का प्रशिक्षण देता है। उन्हें बताया जाता है कि जहां तक हो सके लोगों के सवालों के जवाब न दो। दो तो फिर ऐसी आवाज में, जिससे उन्हें लगे कि वे संसार के सबसे पतित जीव हैं, जो इस दफ्तर में आ गए। मनहूस चेहरा बनाने का प्रशिक्षक अलग होता होगा।

इसके बाद कार्य-कौशल का प्रशिक्षण होता है। कर्मचारी से कहा जाता है कि कंप्यूटर पर कुछ लिखो। उसके बाद कहा जाता है कि अब इससे आधी गति से लिखो। फिर, इससे भी आधी गति से लिखो। इतना ही नहीं, स्लो मोशन में फिल्में दिखाकर उस तरह से हिलने-डुलने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इतने कठिन प्रशिक्षण के बाद वे जनता की सेवा में आते हैं और आप हैं कि शिकायत पर शिकायत किए जाते हैं।

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