अधिकार नगर की बस में बहस
सरकारी डीलक्स बस आरामदेह है और स्मार्ट भी। कहने को यह विकासपुरी के सेवा सचिवालय जाती है, पर असल में अधिकार नगर। लाखों इस की सवारी के इच्छुक हैं। यात्री को कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है, कामयाबी के...
सरकारी डीलक्स बस आरामदेह है और स्मार्ट भी। कहने को यह विकासपुरी के सेवा सचिवालय जाती है, पर असल में अधिकार नगर। लाखों इस की सवारी के इच्छुक हैं। यात्री को कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है, कामयाबी के लिए। सिर्फ योग्यता ही सफलता की कसौटी नहीं है। कुछ को बाकी के मुकाबले खासी रियायत है। सरकार अनुभवी है। वह जानती है कि कुछ निखट्टू भी अधिकार नगर की बस पर सवार हो लिए, तो कौन-सी उसकी खाट खड़ी होनी है? जनता भुगतेगी। यों हजारों साल से उपेक्षित लोगों के हित में सकारात्मक पहल सरकार का साविधानिक दायित्व है। जैसे बिल्ली की नजर चूहे पर है, वैसे ही सत्ता दल की वोट के आखेट पर। यह उसका स्वर्णिम अवसर है। कमेटी बनाकर विचार का नाटक और फिर देश और सामाजिक समरसता के हित में निर्णय का अभिनय। वर्षों से यही तमाशा दोहराया जाता है, कभी सामाजिक न्याय, तो कभी निर्धन कल्याण के नाम पर। बस की लाइन में एक से एक बांके जवान हैं। पोशाक और गुटरगूं में सब खाए-पिए घरों के चिराग हैं।
किसी के बाप कोटे के आधार पर अफसर हैं, तो कोई खेती की कमाई से पब्लिक स्कूल की फसल है। क्या ये सामाजिक उपेक्षा पीडि़त हैं या निर्धनता से? फैसला कोटा-पुराण के धुरंधर सियासी पंडों को करना है। वे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारें? कोशिश है कि डीलक्स बस से चूकने वाले सूबे की सत्ता के ई-रिक्शा पर तो सवार हो ही लें। सारे दल एकमत हैं कि मुल्क हित से मत का हित कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, वरना कोई तो परीक्षण करवाता कि आरक्षण से कितनों ने गरीबी रेखा पार की? क्या गरीबी पर केवल कुछ जातियों का एकाधिकार है और बाकी चांदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं? क्या भारतीय इंसाफ की नई परिभाषा है कि हत्या बड़बाबा करें और सजा पड़पोते को मिले? अब तक श्रेष्ठ शिक्षा की व्यवस्था हर निर्धन नागरिक के लिए सरकार क्यों नहीं करवा पाई है? फिर जो जिस पेशे के काबिल हो, उसी में जाए। फिलहाल कई हुनर हाथ सफाई का रखते हैं और हीरो सियासत के बनते हैं।