इनके दुखों को कौन समझे
फेमिनिज्म के समर्थक पतियों की जान को हजार दुख होते हैं और उन दुखों को समझने वाला कोई नहीं होता। रिश्तेदारी में जोरू का गुलाम कहलाना पड़ता है। नौकर-चाकर, गेटकीपर्स, अर्दली जैसे लोग नामर्द और बेचारा...
फेमिनिज्म के समर्थक पतियों की जान को हजार दुख होते हैं और उन दुखों को समझने वाला कोई नहीं होता। रिश्तेदारी में जोरू का गुलाम कहलाना पड़ता है। नौकर-चाकर, गेटकीपर्स, अर्दली जैसे लोग नामर्द और बेचारा कहते हैं। समझदार और समान विचारधारा के लोग टाइम-टु-टाइम पहले से ज्यादा उदार बनने की सलाहियत ही नहीं देते, बल्कि आपके हर वाक्य के हर शब्द के हर अल्पविराम, अनुतान-वितान से आपकी स्त्री के लिए सेंसिटिविटी को ‘डीपली एग्जामिन’ करते रहते हैं। घर में आपकी जान को बहुत से काम ही नहीं बढ़ जाते, बल्कि उनको खुशी- खुशी करने की नौटंकी को भी अंजाम देना होता है। अपने मर्दवाद को तिजोरी में बंद करने और चाभी संभालकर रखने की कवायद एक एडिशनल डिसिप्लिन की तरह हो जाती है। अक्सर थके-हारे एक साथ घर पहुंचे दोनों बंदों में से कौन राहत सामग्री मुहैया कराने रसोई तक की जानलेवा यात्रा करेगा जैसी मुश्किल सिचुएशन्स सामने आ खड़ी होती हैं। ऐसे में, सोफे पर पसरे हुए पति नामक जीव का दिल करता है कि ऐसे बराबरी के खयालों के पालतू जीव को उतरा हुआ जूता फेंककर मारे और जुराबों को सोफे की तलहटी में दफ्न कर दे, बाकी बाद में देखा जाएगा। और दिल तो करता है कि चीख-चीखकर यह कहे कि हां, मैं एक जालिम पति हूं, मर्दवादी हूं, सामंती हूं, कर लो मेरा क्या करोगे? बहुत हुआ अब मैं जीना चाहता हूं, वैसे ही जैसे दुनिया के सारे पति जी रहे हैं...।
नीलिमा चौहान की फेसबुक वॉल से