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क्यों जरूरी है हिमालय को बचाना

धरती का स्वर्ग कहलाने वाली कश्मीर घाटी इस समय बाढ़ की आपदा से जूझ रही है। कश्मीर ही नहीं, उत्तर भारत, नेपाल और पाकिस्तान के कई हिस्सों में नदियों का जो रौद्र रूप इन दिनों दिख रहा है, उनमें से...

क्यों जरूरी है हिमालय को बचाना
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 08 Sep 2014 08:56 PM
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धरती का स्वर्ग कहलाने वाली कश्मीर घाटी इस समय बाढ़ की आपदा से जूझ रही है। कश्मीर ही नहीं, उत्तर भारत, नेपाल और पाकिस्तान के कई हिस्सों में नदियों का जो रौद्र रूप इन दिनों दिख रहा है, उनमें से ज्यादातर हिमालय पर्वत की श्रेणियों से ही निकलती हैं। यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें हम इस साल का हिमालय दिवस मना रहे हैं। यह पृष्ठभूमि बहुत कुछ कहती है। हिमालय पर्वत के हमारे लिए सदियों से बहुत से अर्थ रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से हिमालय को न जाने क्यों आपदा से जोड़कर देखा जाने लगा है। केदारनाथ की त्रासदी को तो शायद लोग दशकों तक नहीं भूल पाएंगे। केदारनाथ ही नहीं, पिछले कुछ बरसों में बिगड़ते पर्यावरण की लगातार जो खबरें आई हैं, हिमालय उनके केंद्र में है। यह सब उस समय हो रहा है, जब देश की सबसे बड़ी चिंता आर्थिक विकास की है, बेरोजगारों की लंबी फौज के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने की है।

इस प्रक्रिया में पर्यावरण की परेशानियों को भुला दिया गया है। आर्थिक विकास के आसमान छूने की कोशिश में लगे नीति-नियामकों को फिलहाल पैरों तले सिकुड़ती-खिसकती जमीन दिखाई नहीं दे रही। ऐसा पूरे देश में ही हो रहा है, यह जरूर है कि हिमालय में इसे साफ-साफ देखा जा सकता है। हिमालय से दूर महाराष्ट्र के मालीन गांव को ही लीजिए, जहां कुछ ही सप्ताह पहले वन विहीन पहाड़ का मलबा पूरे गांव को लील गया था। और हुआ वही, जो केदारनाथ त्रासदी के समय हुआ था। हम अक्सर तत्काल लाभ की चीजों के पीछे लगे रहते हैं, तात्कालिक हानि की आशंकाओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है। देश की पारिस्थितिकी का केंद्र हिमालय लगातार इस अनदेखी का शिकार रहा है। स्थानीय राजनीति और केंद्र सरकार की समझ ने हिमालय की सारी समस्याओं का इलाज यही माना है कि इसके विभिन्न हिस्सों को अलग-अलग राज्यों का दर्जा दे दिया जाए।

इससे एक फर्क यह पड़ा कि हिमालय के दर्द केंद्र सरकार के न होकर राज्यों के हो गए। दूसरी तरफ, जो लोग राज्य की मांग कर रहे थे, उनके लिए उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं ज्यादा महत्वपूर्ण थीं, उसके पीछे हिमालय के संरक्षण की सोच कहीं नहीं थी। हिमालय में पुराने राज्यों को अगर जरा देर के लिए भूल भी जाएं, तो नवोदित राज्य उत्तराखंड के हालात ही जान लें। इस राज्य के बनने से लेकर अब तक की सबसे बड़ी घटनाओं की अगर हम सूची बनाएं, तो उसमें लगातार हुई त्रासदियों के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। हिमालय का पर्यावरण इतना कमजोर पड़ चुका है कि अब यहां मानसून का स्वागत नहीं होता। विकास के नाम पर अंधाधुंध सड़कों ने गांवों को जोड़ने से ज्यादा तोड़ने का काम किया है। लोग सड़क से डरने भी लग गए हैं, क्योंकि यहां सड़क निर्माण का मतलब अब अक्सर मुसीबतों को दावत देना है।

हालांकि सड़क से ज्यादा बड़ी दिक्कतें यहां लगने वाली विभिन्न जल-विद्युत परियोजनाएं पैदा करती हैं। हिमालय से निकलने वाली हर जलधारा को विद्युत ऊर्जा का स्रोत मानने की प्रवृत्ति ने इस महान पर्वत को स्वर्ग से नरक बना दिया है। ताबड़तोड़ बन रही ये परियोजनाएं ऊर्जा की आपूर्ति के नाम पर हिमालय को छिन्न-भिन्न कर रही हैं। उत्तराखंड को राज्य का दर्जा मिलने के बाद यह काम ज्यादा तेजी से हुआ है। वैसे, यही हिमाचल के अलग राज्य बनने के बाद भी हुआ था। हिमालय के सभी राज्य, चाहे वे उत्तर-पूर्वी हों या पश्चिमी, किसी ने भी अपने पर्यावरण को सुरक्षित और बेहतर रखने की चिंता नहीं की। सभी राज्यों की एकमात्र चिंता यही थी कि किस तरह राज्य की जीडीपी बढ़ाई जाए और रोजगार के साधन व अवसर बढें।

केदारनाथ की त्रासदी के बाद राज्य सरकार कुछ समय के लिए गंभीर दिखाई दी और उसने राज्य का पर्यावरणीय ब्योरा तैयार करने में काफी तत्परता दिखाई। सरकार ने स्वीकार किया कि राज्य की आर्थिक प्रगति के साथ ही पारिस्थितिक लेखा-जोखा भी तैयार किया जाएगा। पारिस्थितिक विकास में सरकार ने क्या प्रगति की, उसका हिसाब-किताब सकल पर्यावरणीय उत्पाद के रूप में देगी। ऐसे वादे अक्सर भुला दिए जाते हैं, सो इस बार भी यही हुआ। एक मुख्यमंत्री ने वादा नहीं निभाया, तो दूसरे ने उसे ज्यादा तवज्जो ही नहीं दी। सच तो यह है कि सरकारें विकास के बड़े दबावों में पर्यावरण संरक्षण से कतराती हैं, क्योंकि उनके लिए तो विकास का सबसे बड़ा विरोधी पर्यावरण ही है।

एक तरफ सरकार के ये हाल हैं, तो दूसरी तरफ पर्यावरण के पक्षधर हैं, जो विकास के हर कदम का विरोध करते हैं। दोनों को जोड़ने वाला कोई पुल नहीं है। इसी की वजह से पिछले दो दशकों से किसी भी हिमालयी राज्य में पारिस्थितिकी संबंधी संतुलन को बनाए रखने के लिए कोई रोडमैप तैयार नहीं हुआ। कोई नहीं जानता कि हालात किधर जा रहे हैं, उन्हें कहां रोकना है, कहां मोड़ना है और कहां ले जाना है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि हिमालय की यह अनदेखी आखिर में सबके लिए परेशानी का सबब बनने वाली है। जब भी हिमालय में कोई आपदा आएगी, उसका असर न सिर्फ पूरे देश पर, बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ेगा, क्योंकि मैदानी इलाकों में बहने वाली तमाम नदियां यहीं से अपनी यात्रा शुरू करती हैं।

नदियों द्वारा लाई गई हिमालय की मिट्टी मैदानी इलाकों में हरियाली लाती है। वनों के सारे सरोकार हिमालय से ही हैं। मिट्टी, हवा जैसे जीवन के सारे आधार हिमालय की ही देन हैं। वन से आच्छादित हिमालय ही देश की प्राण-वायु व पानी का सबसे बड़ा कारक है। देश की 65 प्रतिशत जनता इसी के प्रताप से फलती-फूलती है। ऐसे में, हिमालय की पारिस्थितिकी बिगड़ती है, तो इसका असर देश के जन-जीवन पर पड़ेगा। हिमालय को बचाना इसीलिए जरूरी है। हिमालय देश का मुकुट ही नहीं, प्राण भी है। हिमालय ने अपनी समस्याओं और आने वाले संकटों के संकेत देने शुरू कर दिए हैं। अगर आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग दुनिया का सच बनती है, तो इससे हमारी रक्षा हिमालय ही कर सकता है। यह हमारा अन्नदाता ही नहीं, हमारा सुरक्षा कवच भी हो सकता है। हिमालय को बचाने का मतलब है सीधे-सीधे देश की रक्षा करना। इसे मुकुट की संज्ञा तो हमने अक्सर दी है, पर अब इस ताज की सुरक्षा के संकल्प का समय आ गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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