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नौकरशाही के हवाले बच्चों का संरक्षण

बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रोटोकॉल बनाया। भारत ने भी इस प्रोटोकॉल पर दस्तखत किए। प्रोटोकॉल की मंशा यह थी कि सभी बच्चों को विकास का एक जैसा माहौल दिया जा सके। भारत जैसे...

नौकरशाही के हवाले बच्चों का संरक्षण
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 02 Oct 2015 09:43 PM
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बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रोटोकॉल बनाया। भारत ने भी इस प्रोटोकॉल पर दस्तखत किए। प्रोटोकॉल की मंशा यह थी कि सभी बच्चों को विकास का एक जैसा माहौल दिया जा सके। भारत जैसे देश में बाल मजदूरी अपने चरम पर थी।

बच्चों से मजदूरी या छोटे- मोटे काम कराना सस्ता पड़ता है। इसलिए गरीबों के बच्चे इस काम के लिए इस्तेमाल होते थे। सिर्फ इतना ही नहीं, अनाथ बच्चों के संरक्षण की भी गंभीर समस्या थी। भारत ने जब संयुक्त राष्ट्र के प्रोटोकॉल पर दस्तखत किए, तो भारत पर एक बड़ी जिम्मेदारी आ गई। सभी कानूनों को नए सिरे से बनाने की जरूरत महसूस हुई। विभिन्न कानूनों में बच्चे की आयु अलग-अलग तय थी।

अब जरूरत थी सभी कानूनों में एक आयु तय करने और उसका कड़ाई से पालन करवाने के लिए सामाजिक निगरानी की। सबसे पहले सन 2000 में समग्र किशोर न्याय अधिनियम बनाया गया। फिर एक के बाद एक कई बदलाव हुए। 15 वर्ष बाद अब हमें समीक्षा करनी चाहिए कि जो लक्ष्य तय किए गए थे, उन पर हम कितना खरा उतरे?

बच्चों को अधिकार दिलाने और उनका संरक्षण करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी राष्ट्रीय और राज्यों के बाल अधिकार संरक्षण आयोगों की बनती थी। सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार के बाद अब देश के सभी राज्यों में आयोग गठित तो हो गए हैं, लेकिन कानून के अनुसार काम नहीं कर रहे। इसके दो बड़े कारण हैं। एक तो आयोग का कानून के अनुसार गठित न होना, और दूसरा आयोगों को कानून के अनुसार अधिकार संपन्न नहीं बनाया जाना। हर आयोग सेवा निवृत्त प्रशासनिक अधिकारियों को रोजगार देने का केंद्र बना दिया जाता।

ऐसा नहीं कि राजनीतिक दलों में बच्चों के क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ता नहीं हैं, लेकिन जब से आयोग बना है, आईएएस अधिकारियों का कब्जा बरकरार है। इस मामले में कांगे्रस और भाजपा सरकार में कोई अंतर नहीं दिखता।

बच्चों को संरक्षण देने के लिए किशोर न्याय अधिनियम में हर जिले में चार तरह के बाल गृह बनाने का प्रावधान है। सरकार ने इस मकसद के लिए समन्वित बाल संरक्षण योजना बनाई, जिसके अंतर्गत केंद्र से 75 प्रतिशत अनुदान का प्रावधान है। लेकिन 15 वर्षों में हम देश में एक भी ऐसा जिला नहीं बना पाए हैं, जहां जरूरतमंद बच्चों के लिए शरणालय, बाल गृह, संपे्रक्षण गृह और विशेष गृह हों। प्रावधान यह है कि अगर राज्य या केंद्र सरकार बाल संरक्षण के लिए ठीक काम नहीं करती, तो आयोग अदालत में जाए। लेकिन आयोगों को इतना बजट ही नहीं मिलता कि वे कोर्ट में जाने की सोच भी सकें। सरकारों ने इस कानून के अंतर्गत विशेष अदालतों का गठन ही नहीं किया। जहां अदालतें बन भी गईं, वहां सरकारी वकील तैनात नहीं हुए। इसीलिए पूरे 15 साल में हम कोई नतीजा हासिल नहीं कर सके।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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