जीवन संघर्ष नहीं, सहयोग है
चार्ल्स डार्विन को सब जगह यही दिखाई दिया कि हर प्रजाति जिंदा रहने के लिए एक-दूसरे से लड़ रही है, संघर्ष कर रही है और उसमें जो बलवान है, वही जीतता है, और वही जीवंत रहता है।...
चार्ल्स डार्विन को सब जगह यही दिखाई दिया कि हर प्रजाति जिंदा रहने के लिए एक-दूसरे से लड़ रही है, संघर्ष कर रही है और उसमें जो बलवान है, वही जीतता है, और वही जीवंत रहता है। ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ का सिद्धांत तभी से चल निकला। आज दुनिया में मनुष्य के बीच जो संघर्ष चलता है, लोगों के बीच एक तरह की शत्रुता नजर आती है, उसके लिए डार्विन की खोज बहुत हद तक जिम्मेदार है। डार्विन के कारण दुनिया की सोच ही बदल गई। इसके ठीक विपरीत, लगभग उसी समय रूस में प्रिंस क्रोपाटकिन हुए। उन्होंने खोज की और पाया कि संघर्ष नहीं, सहयोग ही जीवन का आधार है। अरबों-खरबों जातियां इस अस्तित्व में एक साथ जी रही हैं और तमाम विविधताओं के बीच साथ-साथ विकसित हो रही हैं, तो उनके बीच जरूर कोई सामंजस्य होना चाहिए।
ओशो ने इन दोनों विरोधों का सुंदर समन्वय किया है। वह कहते हैं, ‘डार्विन ने जाकर देख लिया जंगल में कि शेर इस जानवर को खा रहा है, वह जानवर उस जानवर को खा रहा है। लेकिन क्रोपाटकिन का कहना है कि 24 घंटे में अगर एक बार शेर एक जानवर पर हमला करता है, तो बाकी 23 घंटे वह हजारों जानवरों के साथ सहयोग भी कर रहा है। जंगल के जानवर 24 घंटे लड़ नहीं रहे हैं। जंगल में इतना संघर्ष नहीं है, जैसा हमें लगता है। हम सबको भ्रांति है कि जंगल एक संघर्ष है, हिंसा है। ऐसा नहीं है, वहां पर बड़ा सहयोग है। लेकिन आदमी ने जो जंगल बनाया है, जिसका नाम सभ्यता है, समाज है, वहां बिल्कुल संघर्ष है।’ यह समाज समुद्र के खारे पानी जैसा है। पानी तो बहुत है, लेकिन पीने के लिए एक बूंद भी नहीं है। इतने सारे लोग हैं, लेकिन किसी का किसी दूसरे पर भरोसा नहीं है। आपस में सहयोग हो, तो आप जीवन के विराट संगीत का एक सुर बनेंगे।