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यह गठजोड़ की परीक्षा का समय नहीं

बिहार राजनीतिक रूप से उर्वर और राजनीतिक समीकरणों की जमीन है। इतिहास इसका कई बार गवाह बन चुका है। ऐसे में, लालू-नीतीश और कांग्रेस का गठबंधन एक प्रयोग की तरह है, जिसका भविष्य काफी हद तक बिहार उपचुनावों...

यह गठजोड़ की परीक्षा का समय नहीं
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 12 Aug 2014 08:52 PM
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बिहार राजनीतिक रूप से उर्वर और राजनीतिक समीकरणों की जमीन है। इतिहास इसका कई बार गवाह बन चुका है। ऐसे में, लालू-नीतीश और कांग्रेस का गठबंधन एक प्रयोग की तरह है, जिसका भविष्य काफी हद तक बिहार उपचुनावों के नतीजों पर निर्भर करेगा। यदि यह प्रयोग सफल होता है, तो निस्संदेह इसे केंद्र की राजनीति में असरदार तरीके से आजमाने के प्रयास किए जाएंगे। परंतु फिलहाल यह गठबंधन भाजपा विरोधी मोर्चा है। दूसरे शब्दों में, यह ‘पुराना जनता दल परिवार’ है। और यह खयाल कोई नया नहीं, बल्कि पहले भी इसकी संभावनाओं पर कई बार चर्चाएं हुईं और नफे-नुकसान के आकलन किए गए। पिछले दिनों आम चुनाव से पहले यह कोशिश हुई थी कि पुराना समता दल और पुराना जनता दल एकजुट हो जाएं, कांग्रेस के साथ इनका गठजोड़ बने, ताकि दलित-पिछड़े और कथित गैर-सांप्रदायिक वोटों को बंटने से रोका जा सके। लेकिन तब यह गठबंधन अंतिम रूप ले न सका। कारण जग-जाहिर है।

एक तो लालू और नीतीश का राजनीतिक अहं और दूसरा, कांग्रेस के खिलाफ बढ़ते जनाक्रोश का भय। ऊपर से आखिरी समय में रामविलास पासवान की पटकनी ने सारा खेल बिगाड़ दिया। किंतु जैसे ही जनाकांक्षाओं की लहर पर सवार होकर नरेंद्र मोदी केंद्र की सत्ता में पहुंचे, बिहार में जातिगत समीकरणों का नया दांव खेला जाने लगा। राजद और जनता दल (यू) अपने खोए जनाधार को वापस पाने के लिए एक साथ आए और भविष्य की केंद्रीय राजनीति में अपने हस्तक्षेप के लिए वे कांग्रेस के साथ खड़े हो गए। इसलिए इसे राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की लड़ाई के तौर पर भी देखा जाना चाहिए।

बिहार की जातिगत राजनीति के समीकरण एकदम साफ हैं। अगड़ी जातियां यहां की कुल आबादी में करीब 12 प्रतिशत हैं। नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं, जो राज्य की कुल जनसंख्या में 2.4 प्रतिशत है। उन्हें कोयरी जाति का भी समर्थन मिलता रहा है, जो पिछड़ी जातियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और करीब चार प्रतिशत है। तमाम उठापटक के बावजूद लालू प्रसाद बिहार में निर्विवाद रूप से यादवों का सबसे बड़ा चेहरा हैं और यह जाति बिहार की कुल आबादी की 11 फीसदी है। राज्य में मुस्लिम आबादी 16.5 फीसदी है, जिसके बारे में धारणा यही है कि इसका एकमुश्त वोट किसी एक के पक्ष में जाता है। इसी तरह, बिहार में दलित करीब 15 प्रतिशत हैं और इस पर भी कई पार्टियां दावा करती हैं। बीते कुछ समय में, इनमें से काफी नीतीश के साथ थे, इस बार भाजपा की तरफ उनका झुकाव रहा। इसमें पासवान फैक्टर की भूमिका रही होगी। इसके अलावा, एक प्रतिशत आदिवासी और बाकी अति पिछड़ी जातियां हैं। अति पिछड़ी जातियों में 119 जातियां आती हैं। राज्य के पिछले चुनाव में नीतीश कुमार इसका सबसे अधिक फायदा उठाने में सफल रहे, जो आबादी की 42 फीसदी होती हैं। तब इनको ध्यान में रखकर योजनाएं बनाई गई थीं, नीतीश ने अति पिछड़ी जातियों को पिछड़ी जातियों से अलग करने का काम किया और वह इसके सबसे बड़े नेता बने।

इसलिए बिहार की नई राजनीति में यह सबसे प्रभावशाली जनाधार है। जैसे लालू का मुस्लिम-यादव, यानी माई (16.5 जोड़ 11 प्रतिशत) पहले अधिक प्रभावशाली जनाधार था। बीते कुछ वर्षों में भाजपा वहां अगड़ी जातियों की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनी और इस आम चुनाव में वह रामविलास पासवान की लोजपा के साथ नीतीश तथा लालू के जनाधार में सेंध लगाने में सफल रही। ऐसे में, दो करिश्माई छवि के नेता, यानी लालू और नीतीश का एक मंच पर आना किसी को आश्चर्य में नहीं डालता, क्योंकि यहां सवाल यादव, मुस्लिम, कोयरी-कुर्मी और अति पिछड़ी जातियों के वोट बैंक को बचाने से जुड़ा है, जो बिहार की आबादी का बड़ा हिस्सा हैं। यदि इसमें रामविलास पासवान (जो अभी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में हैं) का दलित जनाधार भी जुड़ता, तो यह सबसे अनूठा व सबसे सफल प्रयोग हो सकता था। लेकिन फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है तथा बिहार में कांग्रेस के साथ अगड़ी जाति के वोटर लगभग नहीं हैं। इस गठबंधन की प्लस प्वॉइंट यह है कि क्षेत्रीय राजनीति में, जिसकी परीक्षा के अभी डेढ़ साल बाकी हैं, लालू और नीतीश के मुकाबिल भाजपा के पास कोई बड़ा, लोकप्रिय और करिश्माई नेता नहीं है। लेकिन यही प्लस प्वॉइंट इस सवाल से मुठभेड़ भी है कि क्या लालू और नीतीश अपने-अपने राजनीतिक अहं को किनारे रख पाएंगे? एक समय के किंगमेकर और चाणक्य के सामने यह सवाल मुंह बाए खड़ा है और बिहार की जनता भी इस आशंका से त्रस्त है।

राजनीति में समाजवादियों के बारे में एक धारणा है कि वे छह महीने से अधिक एक साथ नहीं और छह महीने से अधिक अलग नहीं रह सकते। ‘सीट शेयरिंग’ व ‘इगो प्रॉब्लम’ दो ऐसे बाधक हैं, जो इस धारणा को पुष्ट करते रहे हैं। लालू और नीतीश को भी इन बाधाओं से गुजरना होगा। इसके अलावा, अवसरवादी राजनीति व वोट बैंक की छीनाझपटी दो अलग मसले हैं। यदि उपचुनाव के नतीजे इस गठबंधन के पक्ष में आते हैं, तो जैसा कि लालू-नीतीश के मंच से कहा गया कि अन्य राज्यों में भी इसका विस्तार होगा और इससे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को चुनौती दी जाएगी। इसमें कोई शक नहीं कि उपचुनाव के नतीजे गठबंधन के पक्ष में आने पर कार्यकर्ताओं और राजनीतिक पार्टियों का हौसला बढ़ेगा, लेकिन यह भी साफ है कि उपचुनाव के नतीजे शायद आगामी विधानसभा चुनावों पर खास असर नहीं डाल पाएंगे, क्योंकि विधानसभा चुनाव होने में अभी डेढ़ साल बाकी हैं। हाल ही में भाजपा उत्तराखंड के उपचुनावों में हार गई, इसका मतलब यह नहीं कि इस पार्टी ने अपनी लोकप्रियता खो दी है। लालू की जुबान से निकली एक नसीहत ने लोगों का ध्यान जरूर खींचा है कि उत्तर प्रदेश में मुलायम और  मायावती भी एकजुट हो जाएं। लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार शायद इसे लेकर बहुत उत्साहित नहीं होंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि मुलायम और मायावती की लड़ाई राजनीतिक नहीं, बल्कि निजी है।

ये दोनों एक साथ नहीं आ सकते, भले किसी तीसरी पार्टी को दोनों समर्थन कर दें। यह मामला ऐसा ही है, जैसे तमिलनाडु की राजनीति में जयललिता और करुणानिधि की पार्टी की विचारधारा लगभग एक है, पर इन दो नेताओं के झगड़े बेहद निजी हैं। बिहार के राजनीतिक गठजोड़ का क्या व्यापक प्रभाव होगा, इस पर अभी से कुछ आकलन कर पाना बहुत कठिन है। इसके लिए केंद्र की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के किरदार को भी जांचना-परखना होगा। लालू-नीतीश-कांग्रेस गठबंधन की अंदरुनी दिक्कतों के अलावा, बढ़ती कीमतों पर केंद्र सरकार का फैसला तथा आर्थिक नीतियों का रूप बिहार के चुनाव में जातिगत राजनीति के साथ बड़ी भूमिका निभाएंगे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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