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बिहार की जंग में विकास की राजनीति

बिहार के आगामी विधानसभा चुनाव काफी महत्वपूर्ण हैं। जैसे-जैसे चुनाव का बुखार चढ़ रहा है, व्यापक मुद्दे सामने आने लगे हैं। इनमें से एक है- पहचान की राजनीति बनाम विकास का मुद्दा। क्या इस बार विकास का...

बिहार की जंग में विकास की राजनीति
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 11 Aug 2015 08:56 PM
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बिहार के आगामी विधानसभा चुनाव काफी महत्वपूर्ण हैं। जैसे-जैसे चुनाव का बुखार चढ़ रहा है, व्यापक मुद्दे सामने आने लगे हैं। इनमें से एक है- पहचान की राजनीति बनाम विकास का मुद्दा। क्या इस बार विकास का मुद्दा पहचान की राजनीति पर भारी पड़ेगा? पहचान की राजनीति ऐसे समाज में बड़ी भूमिका निभाती है, जिसमें गतिशीलता बहुत सीमित हो, लोगों की आकांक्षाओं के आगे अड़ंगा डाला जाता हो और आर्थिक विकास अटका पड़ा हो। बिहार में पहचान की राजनीति पर चलने वाला विमर्श अभी जारी है। ऐसे में, यह तो नहीं कहा जा सकता कि इसका कोई असर पड़ेगा ही नहीं, लेकिन जरूरी नहीं है कि चुनाव नतीजों पर इसका कोई बड़ा असर दिखाई दे।

नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने भारत में चीजों को काफी बदल दिया है। इसकी वजह से विकास दर काफी तेजी से बढ़ी है, गरीबी घटी है, मीडिया समाज में ज्यादा गहराई तक पहुंचा है और मोबाइल फोन व इंटरनेट की पहंुच ज्यादा लोगों तक हुई है। इन सबका सीधा असर मतदाताओं के मनोविज्ञान पर पड़ा है। ऐसे राज्यों के उदाहरण बढ़ गए हैं, जहां विकास हुआ तो लोगों ने चुनाव में सत्ताधारी दल को फिर से चुन लिया। निस्संदेह, इन समावेशी नीतियों में बहुत-सी दिक्कतें भी हैं- विकास का लाभ सबको समान रूप से नहीं मिला, खासकर शहरों और गांवों में भेदभाव रहा, कुछ ऐसा ही भेदभाव स्त्रियों और पुरुषों के बीच भी रहा, कुछ को मुख्यधारा में आने के नुकसान भी हुए।

दूसरी बात यह है कि विकास की राजनीति ने युवा आबादी की भूमिका को नजरंदाज कर दिया। नितिन देसाई का शोध हमें बताता है कि सन 2050 तक सबसे ज्यादा युवा आबादी झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में होगी। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, अभी बिहार में औसत उम्र 20 साल है, जो 24 साल के राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। अगर भारत की आबादी जवान है, तो बिहार की आबादी ज्यादा नौजवान है, जो पुरानी जड़ता से मुक्त होकर रोजगार और खुशहाली के नए युग की तरफ जाना चाहती है। अगर यह आबादी पहचान की राजनीति से मुक्त होगी, तभी पुरानी व्यवस्था के पांव उखड़ेंगे। आकांक्षाओं का नया रूप पहचान की राजनीति की धार को खत्म कर देगा।

हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुजफ्फरपुर में रैली की, तो इसका सुबूत भी मिल गया कि ग्रामीण भारत में मोदी का आकर्षण अब भी पहले की ही तरह बना हुआ है। रोजगार और बेहतरी के लिए तकनीक तक पहुंच चाहने वाले ग्रामीण युवाओं से संवाद करने की उनकी क्षमता वहां दिखी, जिस पर खूब तालियां भी बजीं। अगर मोदी भारत के युवाओं की आकांक्षाओं के प्रतीक हैं, तो बिहार के युवा वर्ग के लिए वह और भी महत्वपूर्ण हैं। मोदी जब अपनी शैली में कहते हैं कि क्या उन्हें मोबाइल फोन चाहिए, कनेक्टिविटी चाहिए, हर समय बिजली चाहिए, बेहतर रोजगार चाहिए, तो इन युवाओं की आंखें चमक उठती हैं, जो बताता है कि उनकी प्राथमिकता क्या है। बिहार की यह नौजवान आबादी ही इस बार बिहार के चुनावी नतीजे तय करेगी।

हालांकि यह युवा आबादी खेल बदल देगी, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस बार बिहार के चुनाव में विकास और पहचान की राजनीति का रचनात्मक खेल दिखाई देगा। विकास चुनाव की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है और बिहार में भी वह यही भूमिका निभाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि नीतीश कुमार विकास के अपने रिकॉर्ड के आधार पर वोट मांगेंगे। लेकिन दिलचस्प यह है कि इस बार नीतीश का गठजोड़ उन लोगों के साथ है, जो बिहार में खराब प्रशासन और विकास न होने के लिए जिम्मेदार माने जाते रहे हैं। नीतीश कुमार ने अपने पहले पांच साल के शासन में बिहार को आर्थिक जड़ता से मुक्त किया था और बेहतर भविष्य की उम्मीद जगाई थी। इसकी वजह से भौतिक व सामाजिक, दोनों तरह के इन्फ्रास्ट्रक्चर में उल्लेखनीय सुधार हुआ था। इसके अलावा शिक्षा के बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए कई नए रचनात्मक तरीके अपनाए गए। लेकिन बाद के दौर में, खासकर भाजपा से साथ गठजोड़ टूटने के बाद उनका रिकॉर्ड उतना अच्छा नहीं रहा।
बिहार में 2010 से 2013 तक जो विकास दर 12 फीसदी थी, वह 15 फीसदी तक पहुंच गई, लेकिन बाद में वह घटकर 10 फीसदी पर आ गई।

राज्य का प्रति व्यक्ति सकल उत्पाद 2010-11 में 13.7 फीसदी था, जो 2014-15 में घटकर 8.3 फीसदी पर आ गया। मानव विकास के पैमाने पर भी रुकावट दिखने लगी है, सुरक्षा की स्थिति गड़बड़ा रही है और राजनीतिक अस्थिरता की वजह से निजी पूंजी का प्रवाह रुक गया है। निश्चित रूप से विकास की गति थमने का कारण संसाधनों की कमी नहीं है। 14वें वित्त आयोग ने जिस तरह केंद्रीय कर और शुल्क में बिहार की हिस्सेदारी को 10.88 फीसदी से घटाकर 9.69 फीसदी कर दिया, वह बहुत कुछ कहता है। सीधे कहें, तो अब बिहार के पास 136 फीसदी अधिक संसाधन हैं। ये साल 2010-15 के बीच 1,72,944.05 करोड़ रुपये थे, जो 2015-20 के बीच बढ़कर 4,08,166 करोड़ रुपये हो जाएंगे, यानी 2,35,221.99 करोड़ रुपये की अतिरिक्त धनराशि। स्थानीय निकायों को भी खूब संसाधन मिले हैं। राज्य के साथ हुए भेदभाव का काफी राजनीतिकरण हुआ है और इसी से विशेष राज्य का दर्जा पाने का मुद्दा उठा है। बिहार लंबे समय से इस दर्जे को हासिल करने की बात करता रहा है, जबकि वित्त आयोग सामान्य और विशेष का वर्गीकरण हटाने की ही बात कर रहा है।

विशेष क्षेत्र का दर्जा पाने की प्रासंगिकता व उपयोगिता अब खत्म हो चुकी है। यह मांग अब पुराने जमाने की हो गई है। बिहार के लिए इसका अर्थ होता 3,700 करोड़ रुपये की केंद्र प्रायोजित योजनाएं। अभी तक जो घोषणाएं हुई हैं या जो होने की उम्मीद है, उनके मुकाबले यह बहुत मामूली रकम है। 2015 के वित्त विधेयक में ही बिहार को इससे काफी ज्यादा मिला है। बिहार को इस बार 20 की बजाय 35 फीसदी अतिरिक्त डेप्रीसिएशन भत्ता मिला है, इसके अलावा 15 फीसदी निवेश भत्ता मिला है, पांच साल के लिए 15 फीसदी पहले ही उसे मिल चुका है। कर नीतियों की नई रियायत से राज्य में निवेश का प्रवाह बढ़ सकता है, जिससे बिहार की विकास दर बढ़कर उस ऊंचाई पर पहुंच जाएगी, जिसकी राज्य को जरूरत है। इससे इसके विकास सूचकांक भी राष्ट्रीय औसत के पास पहुंच सकेंगे। शॉर्टकट खोजने की बजाय बेहतर है कि बिहार विकास के आजमाए रास्ते पर चले। इन्फ्रास्ट्रक्चर व उत्पादकता को सुधारने और सुरक्षा व स्पर्द्धा सुनिश्चित करने का कोई विकल्प नहीं है। युवा आबादी और दीर्घकालिक विकास पहचान की राजनीति को कैसी चुनौती देंगे? विकास की नई सोच वोटरों की उम्मीदों और उनके मनोविज्ञान को बदल देगी। आने वाले महीनों में विकास व पहचान की राजनीति की लड़ाई बिहार के चुनावी मैदान में दिखाई देगी। विकास आखिर में पहचान की राजनीति को शिकस्त देगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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