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बहुत प्राचीन है दीप उत्सव की परंपरा

दुनिया भर की लगभग सभी प्राचीन संस्कृतियों में बुद्धि को प्रकाश की प्रतिमूर्ति माना गया है। प्रकाश की यह पूजा ही दीपोत्सव, ज्योति पर्व, प्रकाश पर्व या दीपावली का आधार है। उत्तर वैदिक काल में आकाश दीप...

बहुत प्राचीन है दीप उत्सव की परंपरा
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 22 Oct 2014 09:45 PM
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दुनिया भर की लगभग सभी प्राचीन संस्कृतियों में बुद्धि को प्रकाश की प्रतिमूर्ति माना गया है। प्रकाश की यह पूजा ही दीपोत्सव, ज्योति पर्व, प्रकाश पर्व या दीपावली का आधार है। उत्तर वैदिक काल में आकाश दीप के विधान से इसका उल्लेख मिलता है। हमारे शास्त्रों के अनुसार, श्राद्ध पक्ष के उपरांत जब हमारे पूर्वज अपने लोक को लौटते हैं, तो उन्हें दीपक के जरिये मार्ग दिखाया जाता है। इसे आकाश दीप कहते हैं। आकाश दीप की परंपरा यूनान, चीन, थाईलैंड,जापान और दक्षिण अमेरिका में आज भी दिखाई देती है। इन देशों में आकाश दीप जलाया जाना धार्मिक परंपरा का प्रमुख अंग है। वनवास की अवधि काटने के बाद राम के अयोध्या आगमन पर लोगों ने अपने मकानों पर ऊंचे बांस में आकाशदीप टांगे थे, ताकि वह इन्हें देखकर समझ लें कि यही अयोध्या है।

कौमुदी महोत्सव प्राचीन काल में इसी अवसर पर शरदकाल में मनाया जाता था, और जलाशयों, नदियों, नावों पर दीप जलाए जाते थे। चंद्रगुप्तकालीन ग्रंथों के अनुसार, पाटलिपुत्र में कौमुदी महोत्सव घूमधाम से बड़े पैमाने पर मनाया जाता था। प्राकृत गाथा सप्तशती के अनुसार, दीपोत्सव का समय दो हजार वर्ष से भी पहले का माना गया है। वात्स्यायन ने अमावस्या को यक्षरात्रि उत्सव मनाए जाने का उल्लेख किया है। हो सकता है कि शरद पूर्णिमा को आयोजित कौमुदी महोत्सव और अमावस्या के यक्षरात्रि उत्सव को मिलाकर एक महत्वपूर्ण उत्सव की कल्पना की गई हो, जिसने आज दीपोत्सव का रूप ले लिया हो। महाकवि कालिदास द्वारा कहे गए ‘उत्सव प्रियाहि मानव:’ कथन से जिस उत्सव की ओर संकेत किया गया है, दीपावली उसी का प्रतीक है। अलबरूनी ने भी दीपावली का वर्णन किया है। 15वीं शताब्दी तक दूसरे ग्रंथों में भी कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा या उसके आसपास के दिन दीपावली मनाने के प्रमाण मिलते हैं। 16वीं शताब्दी के नागानंद में भी इसका उल्लेख है। 17वीं सदी तक अमावस्या की रात ही दीपोत्सव व लक्ष्मी पूजन होने लगा।

नीलमत पुराण के अनुसार, दीपावली के पर्व को सुख रात्रि के नाम से जाना जाता है। देवताओं ने इस दिन अभय प्राप्त किया था। इस कारण इस पर्व का आयोजन हर्षातिरेक में किया गया था। वाराह पुराण  के अनुसार, इस दिन सूर्य के तुला राशि में होने के कारण लक्ष्मीजी इसी दिन निद्रा से जागकर अपने भक्तों को आर्शीवाद देती हैं। इसीलिए दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा का विधान है। दीपावली पर गणेश पूजन भी यक्ष पूजन परंपरा का ही अवशेष है। हमारा देश देवी-देवताओं का सदैव से पूजक रहा है। इंद्र, अग्नि, वरुण आदि देवों के समान ही हमारे यहां लक्ष्मीजी की पूजा होती है। 

हर अच्छे-बुरे, सामूहिक, सामाजिक काम में दीप जलाने की परंपरा रही है। देशकाल की वजह से भले ही इसके रूप में कुछ भिन्नता हो, लेकिन दीपावली के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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