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सुहावने मौसम में हो सकते हैं घातक संकेत

कुछ साल पहले तक ग्रामीण अंचल के अलावा भी बाकी जगहों पर सावन का बहुत बेसब्री से इंतजार होता था। सावन पर तमाम फिल्में बनती रहीं और गीत गूंजते रहे। सावन यानी काले-काले बादल और बरसात की झड़ी। पर अब तो हर...

सुहावने मौसम में हो सकते हैं घातक संकेत
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 13 Apr 2015 09:26 PM
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कुछ साल पहले तक ग्रामीण अंचल के अलावा भी बाकी जगहों पर सावन का बहुत बेसब्री से इंतजार होता था। सावन पर तमाम फिल्में बनती रहीं और गीत गूंजते रहे। सावन यानी काले-काले बादल और बरसात की झड़ी। पर अब तो हर मौसम में सावन आ रहा है। चैत में राजस्थान से लेकर उत्तर प्रदेश और आगे उत्तराखंड तक जिस तरह की बरसात हुई, वह सावन में ही होती थी। इससे कई राज्यों में गेहूं की खड़ी फसल खराब हुई,  तो किसानों की खुदकुशी की खबरें भी आने लगीं। जिसके बाद यह मुद्दा राज्य से केंद्र तक गरमाया हुआ है। महंगाई के खतरों से लेकर किसानों की समस्याओं तक चर्चा हो रही है। लेकिन बात सिर्फ इस साल और इस मौसम की नहीं है। पिछले साल एक जनवरी को चेन्नई जैसे गरम महानगर में सुबह कई सैलानी मरीना बीच पर गए थे, वे लौटे तो ठंड के चलते बीमार पड़ गए।

पुड्डुचेरी में जो सैलानी नया साल का जश्न मनाने समुद्र तट पर गए थे, वे स्वेटर और जैकेट खरीदते हुए दिखे। वहां अचानक कंबल और रजाई की मांग बढ़ गई। यह दक्षिण का वह इलाका है,  जहां साल के अंतिम दिनों में लोग उत्तर की कंपकंपाती ठंड से बचने के लिए परिवार समेत छुट्टियों पर जाते रहे हैं। साफ है, मामला सिर्फ उत्तर भारत में हुई बरसात भर का नहीं है, पूरे देश से मौसम चक्र बदलने के संकेत मिल रहे हैं। साथ ही फल-फूल से लेकर अनाज तक सबका चक्र बदल रहा है। जो आम मैदान में होता था, अब भीमताल तक चढ़ गया है, और वह अकेले नहीं गया है, अपने साथ पपीते, केले जैसे कई मैदानी फलों को साथ ले गया है।

अब तक पर्यावरण के जानकार जब जलवायु परिवर्तन की बात करते थे, तो लोग उसे बहुत गंभीरता से नहीं लेते थे। इसे अकादमिक मुद्दा मानकर विद्वानों के लिए छोड़ देते थे। मगर अब किसान से लेकर बागवान तक तबाह होने लगे हैं। जल, जंगल और जमीन के साथ जो बर्ताव पिछले कुछ दशकों में हुआ है, उसके घातक नतीजों की यह बानगी भर है। नदियों को हम नाले बना रहे हैं। जंगलों का रकबा कम होता जा रहा है। यह मानने वालों की संख्या अब बढ़ रही है कि बदलता जलवायु चक्र हमारे इन्हीं कारनामों का नतीजा है। उत्तर में स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी इसी जलवायु के  चलते इस बार ज्यादा कहर ढाने में कामयाब हुई।

गेहूं और दलहन की फसल को चौपट करने वाला यह मौसम अगर किसी घातक रोग को ज्यादा अनुकूल माहौल दे रहा है, तो इससे खतरे की गंभीरता को आसानी से समझा जा सकता है। हमें अभी ठीक से नहीं पता कि मौसम चक्र में हो रहे इस बदलाव की दिशा क्या है? हम यह भी नहीं जानते कि अपनी कोशिशों से हम इसे किस हद तक रोक सकते हैं? बेशक इस बार मौसम अभी तक सुहावना बना हुआ है और लोगों को गरमी उस तरह से नहीं सता रही, जैसी हर साल अप्रैल में सताती है। लेकिन इस बार जो आशंकाएं सता रही हैं, वे कहीं ज्यादा गंभीर हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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