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तमिल राजनीति का नया मोड़

अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जे जयललिता आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषी करार दी गई हैं और उनको चार साल की सजा भी सुनाई गई। अदालत के इस फैसले के गूढ़ राजनीतिक प्रभाव दिखने लगे हैं। सबसे पहले तो यह फैसला...

तमिल राजनीति का नया मोड़
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 28 Sep 2014 07:10 PM
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अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जे जयललिता आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषी करार दी गई हैं और उनको चार साल की सजा भी सुनाई गई। अदालत के इस फैसले के गूढ़ राजनीतिक प्रभाव दिखने लगे हैं। सबसे पहले तो यह फैसला जयललिता के लिए बड़ा झटका है। डर है कि कहीं यह उनके राजनीतिक करियर को ढलान पर न ला दे। पिछले लोकसभा चुनाव में जयलिलता के नेतृत्व में अन्नाद्रमुक ने राज्य में अप्रत्याशित सफलता हासिल की, जब पूरा देश ‘मोदी लहर’ की चपेट में था। तब इस लहर के विरुद्ध अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु की 39 संसदीय सीटों में से 37 सीटें जीतीं और लोकसभा में कांग्रेस के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा संसदीय दल है। राज्य में इस बड़ी जीत के बाद दल को नुकसान पहुंचा है। राजनीति में शिखर से तुरंत ढलान संभाले नहीं संभलती है। जन-प्रतिनिधित्व कानून के तहत, अपराध साबित होने पर किसी भी विधायक या सांसद को अपनी विधायकी या सांसदी से इस्तीफा देना पड़ता है। इस स्थिति में जयललिता न तो विधानसभा और न ही सरकार में पार्टी का नेतृत्व कर पाएंगी। इसलिए यह उनके लिए निजी झटका तो है ही, पर पार्टी के लिए भी बड़ा नुकसान है।

राज्य में पिछला विधानसभा चुनाव अप्रैल 2011 में हुआ था, जिसमें अन्नाद्रमुक व उसके सहयोगी दलों को जीत मिली थी। 234 विधानसभा क्षेत्रों में अब अगला चुनाव मई, 2016 में होगा। यानी इस राज्य सरकार के कार्यकाल के पूरा होने में अभी डेढ़ साल बाकी हैं। यह मानकर चला जा रहा था कि जयललिता अपना कार्यकाल पूरा करेंगी, क्योंकि अन्नाद्रमुक को बहुमत प्राप्त है। अब उन्हें किसी और के लिए अपनी कुरसी छोड़नी होगी। साथ ही, इस डेढ़ साल में वह बड़ी अदालत का दरवाजा खटखटाकर दोषमुक्त नहीं हो पाएगी, क्योंकि आगे की प्रक्रिया में भी लंबा समय लगेगा, यह मामला 1996 का है और इसी फैसले को आने में 18 साल लग गए हैं। इसलिए उन्हें जल्द राहत मिलती नहीं दिख रही और ऐसे में, अन्नाद्रमुक के नेतृत्व में खालीपन का एहसास होगा। इस शून्य का लाभ द्रमुक, अन्य छोटे दल और भाजपा को मिल सकता है।

जाहिर है कि जयललिता को अपना ऐसा उत्तराधिकारी तलाशना होगा, जो विश्वस्त हो और जिसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा न के बराबर हो। तभी वह परदे के पीछे से सरकार चला पाएंगी। ‘डमी’ को ढूंढ़ना उतना आसान नहीं, क्योंकि अक्सर रिमोट कंट्रोल से कुरसी पर टाइट कंट्रोल नहीं हो पाता। बिहार में नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को अपना उत्तराधिकारी चुना, किंतु वह प्रभाव नहीं है। स्वयं जयललिता इतिहास के उसी मोड़ पर आ खड़ी हुई हैं, जहां वह 21 सितंबर, 2001 को थीं। तब उन्हें तांसी जमीन समझौते मामले में मुख्यमंत्री की कुरसी छोड़नी पड़ी थी। उस समय उन्होंने ओ पनीरसेल्वम पर भरोसा जताया और वह मुख्यमंत्री बने। इस बार यह देखना होगा कि जयललिता किस पर भरोसा जताती हैं। हालांकि, मौजूदा स्थिति का एक पक्ष यह बनता है कि वह जनता के बीच अधिकतम सहानुभूति हासिल करेंगी और यह भी संभव है कि यह सहानुभूति वोट में तब्दील हो।

खबरिया चैनलों पर जिस तरह के बयान पेश किए जा रहे हैं, उनमें ऐसे भी हैं कि ‘और लोग भ्रष्ट होते हैं, तो कोई बात नहीं, पर सब अम्मा के पीछे पड़े हुए हैं।’ यह देखकर लालू यादव पर आए फैसले और उनके वोटरों की प्रतिक्रिया याद हो आती है। चारा घोटाले पर आए फैसले के बाद लालू के कट्टर समर्थक गोलबंद हुए और यह चीज तमिलनाडु में भी दिख सकती है। लेकिन जो सामान्य समर्थक हैं, वे दूर भी हो सकते हैं, क्योंकि वे समय के साथ राज्य के प्रशासनिक कामकाज और सरकारी योजनाओं में जयललिता की कमी महसूस करने लगेंगे। निश्चित रूप से इसका लाभ करुणानिधि और उनके सहयोगी उठाना चाहेंगे। दक्षिण के राज्यों में भाजपा ने 1999 में जो थोड़ी-बहुत स्थिति सुधारी थी, उसे वह यहां से बढ़ाना चाहेगी। जहां एक तरफ फैसले से पहले ही जयललिता की टीम के शीर्ष नेता चिंतन करने में जुट गए थे, वहीं करुणानिधि के घर पर द्रमुक नेताओं की बैठकों का दौर शुरू हो चुका था, स्टालिन काफी सक्रिय नजर आए। भाजपा भी पल-पल की जानकारी जुटा रही थी। लेकिन कांग्रेस कहीं नजर नहीं आई, जबकि केंद्र में इस पार्टी का लंबे समय तक शासन रहा है।

मौजूदा राष्ट्रीय राजनीति में भी इस फैसले का प्रभाव दिख सकता है। राज्यसभा में पार्टी की 11 सीटें हैं और लोकसभा की 37 सीटें मिलाकर 48 की संख्या पहुंचती है। जयललिता के इशारे पर इस संख्या-बल से केंद्र की राजग सरकार पर थोड़ा दबाव बन सकता था, जो अब शायद न हो। यह संख्या बदलती राजनीतिक तस्वीरों के बीच भी काम आती, क्योंकि फिर से नए गठबंधन के आसार बनने लगे हैं। पुराने दुश्मन हाथ मिलाने लगे हैं। नीतीश-लालू साथ आए, तो महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटने के बाद उद्धव व राज के बीच बातचीत शुरू हो चुकी है। गैर-भाजपाई व गैर-कांग्रेसी गठबंधन के समन्वय काल में यह संख्या कुछ संकेत दे सकती थी। स्पेशल कोर्ट ने जो आदेश सुनाया, उसके बाद कर्नाटक व तमिलनाडु, दोनों राज्यों में स्थिति तनावपूर्ण नजर आई। चूंकि बेंगलुरु में यह फैसला सुनाया गया, इसलिए वहां जयललिता के समर्थक पहले से जमा थे और इस राज्य में आगजनी की घटनाएं घटीं। पुलिस की तैयारियों की पोल खुली, जबकि यह राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दा था और बवाल की खुफिया सूचना मिलने के बाद सुरक्षा व्यवस्था कड़ी की जानी चाहिए थी।

तमिलनाडु में भी समर्थक बेकाबू हुए और अब सवाल उठता है कि क्या यह सब होने दिया जा रहा है कि हो रहा है?
जयललिता ने कई सारी ‘अम्मा योजनाओं’ की शुरुआत की थी और उनका गरीब तबके पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। अब इन योजनाओं के भविष्य पर सवाल है, क्योंकि बीते शुक्रवार को तमिलनाडु सरकार ने अम्मा सीमेंट योजना की घोषणा की, जिसमें सीमेंट कंपनियों से सीमेंट खरीदकर सस्ती दर पर गरीबों को इसकी बोरियां बेची जाएंगी। यह योजना ‘अम्मा कैंटीन’ और ‘अम्मा मिनरल वाटर’ की तरह ही है और इससे राज्य के लोगों की ढेर सारी उम्मीदें हैं। यह भी संभव है कि जयललिता के हटने के बाद ऐसी लोक-लुभावन योजनाएं और बढ़ें। बहरहाल, इसमें शक नहीं कि पहले लालू प्रसाद और बाद में जयललिता के खिलाफ सजा तय होने के बाद अब राजनीतिक तबके को अधिक सतर्क होना होगा। यह धारणा टूटने लगी है कि अदालती मामलों में सिर्फ ‘छोटों’ पर शिकंजा कसता है, ‘बड़ों’ पर नहीं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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