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अयोध्या : कानूनी विवाद में नए पेंच

रामलला और उनके अभिन्न मित्र की खोज सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जा रही है, क्योंकि अयोध्या विवाद में जिन्होंने रामलला के अभिन्न मित्र बनकर दीवानी न्यायालय में दावा दायर किया था वे अब स्वर्गलोक में...

अयोध्या : कानूनी विवाद में नए पेंच
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 18 Jan 2010 10:24 PM
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रामलला और उनके अभिन्न मित्र की खोज सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जा रही है, क्योंकि अयोध्या विवाद में जिन्होंने रामलला के अभिन्न मित्र बनकर दीवानी न्यायालय में दावा दायर किया था वे अब स्वर्गलोक में पहुंच गये हैं बाद में जिन्हें भद्रलोक से मामले का पक्षकार बनाया गया था वे भी अपने बुढ़ापे का वास्ता देकर कहने लगे हैं कि पैरवी मेरे बस की नहीं। वैसे तो इस मामले को विश्व हिन्दू परिषद का पूर्ण समर्थन था, क्योंकि इस तर्क में उन्हें दम दिखता था। इसलिए यह माना जाता है कि विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े इतिहासकार टी़ पी़  वर्मा इसके लिए स्वाभाविक स्वत: पात्र माने गये थे।

इस मुकदमे का मुख्य प्रयोजन यह था कि वहां स्थापित रामलला मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति न मानना क्या मंदिर पक्ष के लिए लाभकारी हो सकता है? न्यायालय का फैसला हिन्दू या मुसलमानों में से किसी के भी पक्ष में हो तो भी मूर्ति हटायी नहीं जा सकेगी, क्योंकि उसे सुनवायी का अवसर ही नहीं दिया है। यह न्याय की स्वाभाविक प्रक्रिया के विपरीत होगा कि बिना उसकी बात और तर्क सुने उसे उचित प्रतिवाद का मौका दिये उसके खिलाफ कोई निर्णय नहीं हो जाए। इसलिए जीते कोई भी लेकिन तब तक रामलला विराजमान रहेंगे, क्योंकि उन्हें सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड ने भी पक्ष नहीं बनाया है।

यदि वह जीतता भी है और यह सिद्ध भी हो जाता है कि यह मस्जिद थी तो भी जब तक वहां मूर्ति स्थापित रहेगी तब तक यहां मस्जिद की अवधारणा के अनुसार इबादत नहीं हो पायेगी। लेकिन इसमें सबसे बड़ी कठिनाई यह आती है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के अनुसार कोई भी मूर्ति न्यायिक व्यक्ति की परिभाषा में तभी आ सकती जब तक उसकी शास्त्रोक्त विधि से प्राणप्रतिष्ठा हुई हो। पहली बार यह प्रश्न 1988 में अदालत में उठा था तब यह बताया गया था कि सर्वोच्च न्यायालय के चार निर्णय इस सम्बंध में हैं, उन सभी में यह व्यवस्था दी गयी है कि वही मूर्तियां विधिक व्यक्ति की संज्ञा में आती हैं जिनकी शास्त्रोक्त विधि से प्राणप्रतिष्ठा हुई हो। लेकिन इस मामले में रामलला की स्थिति ‘भये प्रकट कृपाला दीन दयाला’ की है। इसलिए क्या प्राकट्य को न्यायिक मानदंडों के अनुसार प्रतिष्ठा मिल सकती है?

यह चूंकि न्यायालय के समक्ष भी पहला प्रसंग होगा इसलिए जस्टिस देवकी नन्दन अग्रवाल का तर्क यह था कि सभी देवमूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा नहीं हुई है लेकिन उन्हें मान सम्मान भी मिलता है और देवरूप में प्रतिष्ठा और आस्था भी है। केदारनाथ श्रृंृंग पर अवस्थित हैं वहां कोई मूर्ति नहीं बल्कि उस श्रृंृंग को ही शिव माना जाता है। बाद में वहां मन्दिर भी बना दर्शन और पूजा की पद्धति भी चलती रही, लेकिन मंदिर बनने के बाद प्राण प्रतिष्ठा का जिक्र कहीं नहीं मिलता है। इसलिए क्या यह मान लिया जाय कि चूंकि प्राणप्रतिष्ठा नहीं हुई हैं इसलिए केदारनाथ देवभूमि और श्रृंग देवपुरुष की परिभाषा में नहीं आता। इसी प्रकार दूसरा उदाहरण गया के विष्णुपाद मंदिर का दिया गया है। जहां यह माना जाता था कि वहां विष्णु ने पैर रखा था वहां प्रतिवर्ष लाखों लोग श्रद्धा और आस्था से वशीभूत होकर पूजा के लिए आते हैं।

लेकिन क्या प्राणप्रतिष्ठा के अभाव में इसकी मान्यता समाप्त हो सकती है। यह प्रश्न भी विचारणीय है कि जब मूर्ति स्वत: प्रकट हुई है तो उसकी प्राणप्रतिष्ठा कैसे हो सकती थी। इसलिए इस प्राकट्य को दैविक आस्थाजनित माना जाए और इस प्रकार वह मूर्ति स्वत: देवपुरुष का स्थान ले सकती है?
 
लेकिन कठिनाई यही है कि क्या यह प्रश्न वैज्ञानिक मान्यताओं के विपरीत देखा जायेगा क्योंकि संविधान के मूल कर्तव्यों सम्बन्धी अनुच्छेद-19(51)(क) (ज) के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बताया गया है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे। जहां तक पक्ष बनने की पात्रता का सम्बन्ध है तो इसके लिए कोई भी व्यक्ति सामने आकर न्यायालय से आग्रह कर सकता है। और जहां तक पैरवी का सम्बन्ध है वह तो वकीलों द्वारा ही हो रही थी। पक्षकार द्वारा स्वयं पैरवी अपेक्षित नहीं है। इसलिए उनके रहने या हटने से कोई बड़ा अन्तर पड़ने वाला नहीं है।

इसमें निर्मोही अखाड़ा भी वादी है, लेकिन वह पूर्ण रूप से विश्व हिन्दू परिषद के साथ नहीं। मूल प्रश्न तो इस तर्क को विधिक रूप से स्वीकार्य बनाने का है कि भावना और मूर्ति में दोनों ही अलग होकर भी एक हैं। भावना अमूर्त है इसलिए क्या वह मूर्ति की व्यवस्थाओं का स्थान ले सकती है? लेकिन दूसरा पक्ष इसे विधिक व्यवस्थाओं के अनुरूप नहीं मानता।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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